विशेष : काशी की देव दीपावली में ‘देवत्व‘ के ‘दीप‘ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

विशेष : काशी की देव दीपावली में ‘देवत्व‘ के ‘दीप‘

अर्द्धचंद्राकार में गंगा के किनारे चमकते-दमकते घाटों की कतारबद्ध श्रृंखलाएं। घाटों पर विद्युत झालरों की झिलमिलाहट व असंख्य दीयों में टिमटिमाती रोशनी की मालाएं, आकर्षक आतिशबाजी की चकाचैंध। बजते घंट-घडियालों व शंखों की गूंज। आस्था एवं विश्वास से लबरेज देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु। हर हाथ में दीपकों से थाली और मन में उमंगों की उठान। स्वर्णिम किरणों में नहाएं घाटों पर अविरल मंत्रोंचार। कल-कल बहती पतित पावनि मां गंगा। ऐसा विहगंम व मनोरम दृष्य मानों देवता वास्तव में इस पृथ्वी पर दीवाली मनाने आ रहे हो। मानों गंगा के रास्ते देवताओं की टोली आने वाली है और उन्हीं के स्वागत में काशी के 84 घाट पूरी तरह से टिमटिमाती दीयों की रोशनी में नहाएं से दिखाई देते है 


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ऋतुओं में श्रेष्ठ शरद ऋतु, मासों में श्रेष्ठ ‘कार्तिक मास’ तथा तिथियों में श्रेष्ठ पूर्णमासी यानी प्रकृति का अनोखा माह तो है ही, त्योहारों, उत्सवों के माह कार्तिक की अंतिम तिथि देव-दीपावली है। इसे देवताओं का दिन भी कहा जाता है। तभी तो ‘देव दीपावली‘ का उत्साह चारों ओर दिखाई देता है। कार्तिक माह के प्रारंभ से ही दीपदान एवं आकाश दीप प्रज्जवलित करने की व्यवस्था के पीछे धरती को प्रकाश से आलोकित करने का भाव रहा है, क्योंकि शरद ऋुतु से भगवान भास्कर की गति दिन में तेज हो जाती है और रात में धीमी। इसका नतीजा यह होता है कि दिन छोटा होने लगता है और रात बड़ी, यानी अंधेरे का प्रभाव बढ़ने लगता है। इसलिए इससे लड़ने का उद्यम है दीप जलाना। दीप को ईश्वर का नेत्र भी माना जाता है। इस दृष्टिकोण से भी दीप प्रज्जवलित किए जाते हैं। इस माह की पवित्रता इस बात से भी है कि इसी माह में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य आदि ने महापुनीत पर्वों को प्रमाणित किया है।  इस माह किये हुए स्नान, दान, होम, यज्ञ और उपासना आदि का अनन्त फल है। इसी पूर्णिमा के दिन सायंकाल भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था, तो इसी तिथि को अपने अत्याचार से तीनों लोकों को दहला देने वाले त्रिपुरासुर का भगवान भोलेनाथ ने वध किया। उसके भार से नभ, जल, थल के प्राणियों समेत देवताओं को मुक्ति दिलाई और अपने हाथों बसाई। काशी के अहंकारी राजा दिवोदास के अहंकार को भी नष्ट कर दिया। इसीलिए काशीपुराधिपति बाबा विश्वनाथ का एक नाम त्रिपुरारी भी है। त्रिपुर नामक राक्षस के मारे जाने के बाद देवताओं ने स्वर्ग से लेकर काशी में दीप जलाकर खुशियां मनाई। तभी से तीनों लोकों में न्यारी काशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवताओं के दीवाली मनाने की मान्यता है। देवताओं ने ही इसे देव दीपावली नाम दिया। कहते है उस दौरान काशी में भी रह रहे देवताओं ने दीप जलाकर देव दीपावली मनाई। तभी से इस पर्व को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर काशी के घाटों पर दीप जलाकर मनाया जाने लगा।  इस दिन घाटों की दीए देखने के बाद अद्भुत, अकल्पनीय, अविस्मरणीय, आनंदकारी, अद्वितीय, अलौकिक, अविश्वसनीय जैसे सारे शब्द कम पड़ जाते है। इस दिन कार्तिक पूर्णिमा के चंद्र की धवल किरणें गंगा की लहरों पर अठखेलियां कर रही होती है तो दूसरी ओर घाट की सीढ़ियों पर रोशन लाखों दीपक सितारों की फौज के धरती पर उतर आने का आभास करा रहे होते है। गंगा की लहरों पर हिचकोले खाती, सजी-धजी नौकाओं पर यह नजारा देखते ही बनता है। अस्सी से राजघाट के बीच घाट पर बने मठों, मंदिरों, महलों, शिवालों हर लम्हा रंग बदलती रोशनी और घाटों पर जगमग दीपकों के प्रतिबिंब गंगा की लहरों पर पड़ कर अलग ही चित्र संरचना कर रहे होते है। गंगा की लहरों पर पड़ती सतरंगी रोशनी, जलधारा पर तैरती चंद्रकिरणों के साथ मिल कर कभी जल में तैरते इंद्रधनुष सी नजर आती तो कभी गंगा की लहरों पर प्रवाहित हो रहे दीप गंगा में आकाश गंगा जैसी अनुभूति करा रहे होते है। ऐसा प्रतीत होता मानो सुनहरी और रूपहली किरणधाराएं सैकड़ों टिमटिमाते सितारों के बीच से होकर गुजर रही है। मान्यता है कि इस दिन देवताओं का पृथ्वी पर आगमन होता है। इस प्रसन्नता के वशीभूत दीये जलाये जाते हैं। वैसे भी इस समय प्रकृति विशेष प्रकार का व्यवहार करती है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है और वातावरण में आह्लाद एवं उत्साह भर जाता है। इससे समस्त पृथ्वी पर प्रसन्नता छा जाती है। पृथ्वी पर इस प्रसन्नता का एक खास कारण यह भी है कि पूरे कार्तिक मास में विभिन्न व्रत-पर्व एवं उत्सवों का आयोजन होता है, जिनसे पूरे वर्ष सकारात्मक कार्य करने का संकल्प मिलता है। 


ज्योतिरुप में प्रकट हुए थे महादेव 

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इसके अलावा नरकासुर को मारने के लिए अग्नि और वासुदेव के यहयोग से जन्मे कार्तिकेय को देवसेना का अधिपति बनाया गया, लेकिन भाई गणेश का विवाह कर दिये जाने के कारण कार्तिकेय रुष्ट होकर कार्तिक पूर्णिमा को ही क्रौंच पर्वत पर चले गए थे। कार्तिकेय के स्नेह माता पार्वती एवं पिता महादेव वहां ज्योति रुप में प्रकट हुए थे। छह कृतिकाओं से पालित कार्तिकेय के क्रौंच पर्वत पर जाने और ज्योति रुप में पार्वती-महादेव के प्रकट होने को यदि योगशास्त्र के कसौटी पर कसा जाएं, तो षटचक्रो, यथा-मूलाधार, स्वाधिष्ठान,, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र को जाग्रत कर सहस्त्रार में ज्योति रुप में शिवा-शिव का प्रकट होना परिलक्षित हेाता है। कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शंकर द्वारा त्रिपुरासुर के बध से साफ लगता है कि योग की उच्चतम स्थिति समाधि के देवता भगवान शंकर दैहिक, दैविक और भौतिक तपों या सत-रज-तमों गुणों से उपर उठकर देवत्व तक पहुंचने का संदेश दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह परमानंद से जुड़ने का काल है। आकाश में कृतिका नक्षत्र, चंद्र-सूर्य राशियों में परिर्वतन की स्थिति में इस अवधि में साधना कर पूरे वर्ष तक आनंद, परमानंद का दीप प्रज्जवलित किया जा सकता है। महाभारत के शांति पर्व के अनुसार, कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक शर-शैया पर लेटे भीष्म ने योगेश्वर कृष्ण की उपस्थिति में पांडवों को राष्ट्रधर्म, दानधर्म और मोक्षधर्म का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण ने इस अवधि को भीष्म पंचक कहा। स्कंदपुराण में ज्ञान का यह काल इतना शुभ है कि इस अवधि में व्रत, उपवास, सदाचार, दान का विशेष महत्व है। विभिन्न पुराणों में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव मंदिरों, नदी के तटों पर दीप जलाने का प्रावधान है। ज्ञान, सदाचार, सद्भाव आदि भी व्यक्ति के जीवन में आत्मबल के दीपक बनकर रोशनी करते हैं। 


दशाश्वमेध घाट 

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यह काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही स्थित है। कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने इसका निर्माण भगवान भोलेनाथ के स्वागत में किया था। ब्रह्माजी ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रत्येक संध्या पुजारियों का एक समूह यहां अग्नि-पूजा करता है, जिसमें भगवान शिव, गंगा नदी, सूर्यदेव, अग्निदेव एवं संपूर्ण ब्रह्मांड को आहुतियां समर्पित की जाती हैं। यहां देवी गंगा की भी भव्य आरती की जाती है। प्रतिदिन सूर्यास्त के पश्चात गोधुलि बेला में काशी के अधिकतर घाटों पर ‘गंगा आरती’ का आयोजन होता है, परन्तु दशाश्वमेघ घाट पर होने वाली गंगा आरती अद्भुत है। रोजाना बड़ी संख्या में श्रद्धालु ऐतिहासिक दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती के दर्शन के लिए जुटने शुरू हो जाते हैं। गंगा आरती की अद्भुत छटा को देखकर श्रद्धालु भावविभोर हो उठते हैं और विदेशी पर्यटक इस दृश्य को पूरी तन्मयता से अपने कैमरों में कैद करने में जुटे रहते हैं। इस आरती के नजारों को पर्यटक बड़े चाव से देखते हैं एवं आस्था में डूब जाते हैं। गंगा आरती करने वाले ब्राह्मणों की एक-एक गतिविधि देखकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। गंगा आरती के दौरान अगरबत्ती से आरती करने का तरीका, चंवर झुलाने का अंदाज एवं शंख ध्वनि श्रद्धालुओं का ध्यान अपनी तरफ खींचती है। यह आराधना पूरे विश्व में ‘गगा आरती’ के रूप में विख्यात है। आरती के लिये घाट की सीढ़ियों पर विशेष तौर से चबूतरो का निर्माण कराया गया है। चबूतरों पर 5,7,11 की संख्या में प्रशिक्षित पण्डों द्वारा घण्टा-घड़ियाल एवं शंखों के ध्वनि के साथ गंगा की आरती एक साथ सम्पन्न की जाती है। इन पण्डों की समयबद्धता इतनी सटीक होती है कि झाल आरती पात्र (हर पात्र में 108 दीप होते हैं), से आरती, पुष्प वर्षा एवं अन्य क्रिया एक समय में एक साथ होता है। दर्शक घाट की सीढ़ियों एवं नौकाओं से इस आराधना का साक्षी बनने के लिये उत्सुक रहते हैं। आरती के समय दर्शक भाव विभोर होकर माँ गंगा की वन्दना की धारा में प्रवाहमान होते हैं। दशाश्वमेध घाट पर गंगा की महाआरती प्रतिदिन की तुलना में देव दीवाली के दिन और अधिक भव्यता के साथ होती है। गंगा आरती के दौरान अगरबत्ती से आरती करने का तरीका, चंवर झुलाने का अंदाज एवं शंख ध्वनि का गुरु-गंभीर उद्घोष पूरे वातावरण को और अधिक आस्थायुक्त कर देता है। पिछले कुछ वर्षो से देव दीपावली उत्सव के साथ एक अद्भुत प्रसंग जुड़ गया है। दशाश्वमेध घाट पर दीयों से विशाल इंडिया गेट बनाया जाता है जहां शहीदों को सलामी दी जाती है। वाराणसी स्थित 39 गोरखा ट्रेनिंग सेंटर के जवानों की इसमें अग्रणी भूमिका होती है। यह दृश्य रोमांचक होता है और पूरे उत्सव को अर्थमय बना देता है। एक ओर जहां प्रकृति की बरसते अमृत धार के प्रति काशीवासी दीपों के द्वारा अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं वहीं दूसरी ओर देश शहीदों को नमन करता है। विश्व की किसी भी दूसरी नदी के किनारे ऐसे दृश्य शायद ही देखने को मिलते हों। 


देवताओं ने तोड़ा दिवोदास का अहंकार 

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कहते है त्रिपुर नामक राक्षस द्वारा काशी में उस दौरान देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबंद्ध लगा दी गई थी। उसके अहंकार से देवलोक में हड़कंप मच गया। कोई देवी-देवता काशी आने को तैयार नहीं होता। कार्तिक मास में पंच गंगा घाट पर गंगा स्नान के महात्म्य का लाभ का लेने के लिए चुपके से साधुवेश में देवतागण आते थे और गंगा स्नान कर चले जाते। उसी दौरान त्रिपुर नामक दैत्य को भगवान भोलेनाथ ने वध किया और अहंकारी राजा दिवोदास के अहंकार को नष्ट कर दिया। राक्षस के मारे जाने के बाद देवताओं की विजय स्वर्ग में दीप जलाकर देवताओं ने खुशी मनाई। इस दिन को देवताओं ने विजय दिवस माना और खुशी मनाने के लिए कार्तिक पूर्णिमा पर काशी आने लगे। काशी आने का मकसद भगवान भोलेनाथ की महाआरती करने का भी था। वैसे भी कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा का सम्पूर्ण प्रकाश पृथ्वी को प्रकाशित करता है तथा दीयों के प्रकाश के साथ मिल कर एक विशेष प्रकार की आभा उत्पन्न करता है, जिससे देवताओं की प्रसन्नता की अनुभूति होती है। ऐसा लगता है मानो पृथ्वी पर पूरा दिव्यलोक उतर आया हो। देव दीपावली दीयों से संबंधित उत्सव है। काशी के गंगाघाट पर इस दिन सूर्यास्त के पश्चात चन्द्रोदय के समय गंगा की विधिवत पूजा एवं अर्चना के साथ दीये जलाएं जाते हैं। परम्परा और आधुनिकता का अदभुत संगम देव दीपावली धर्म परायण महारानी अहिल्याबाई से भी जुड़ा है। अहिल्याबाई होल्कर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत हजारा दीप स्तंभ स्थापित किया था जो इस परम्परा का साक्षी है। आधुनिक देव दीपावली की शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी। 


घाटों पर जलेंगे लाखों दीये 

आस्था और विश्वास के उत्सव के प्रति लोगों में जगब का उत्साह है। इस बार 30 नवम्बर को तकरीबन 3 किमी से भी अधिक लंबा अर्धचंद्राकारी गंगा का किनारा लाखों दीपों की अल्पनाओं, लड़ियों से किसी स्वर्गलोक की मानिंद आभा बिखेरेगा। विश्वसुंदरी पुल के पास मदरवा, सामने घाट से लेकर राजघाट व गंगा वरुणा संगम यानी सराय मोहाना तक घाट-घाट पर टिमटिमाती दीये रोशन होंगे। 


पंचगंगा घाट 

बनारस में पंचगंगा घाट का संबंध कबीर से है। इसी घाट की सीढ़ियों पर लेटे कबीर को स्वामी रामानंद ने राम नाम की दीक्षा दी थी। कार्तिक पूर्णिमा के दिन इसी घाट पर देव दीपावली मनाई जाती है। इस घाट पर अहिल्याबाई होल्कर द्वारा बनवाया गया खूबसूरत हजारा दीप स्तंभ भी है। सीढ़ियों पर जगमगाते हजारों दीप और सामने कलकल बहती गंगा की लहरों पर थिरकते छोटे-छोटे दीप मन को बांध लेते थे। लेकिन 1980 के दशक से देव दीपावली का विस्तार होता गया और अब यह आयोजन सभी चैरासी घाटों तक फैलकर महोत्सव का रूप ले चुका है। अब इसकी ख्याति सात समुद्र पार तक पहुंच गई है। काशी में केवल घाटों पर ही नहीं, बल्कि नगर के तालाबों, कुंओं एवं सरोवरों पर भी देव दीपावली मनाई जाने लगी है। गंगा पार रेती पर भी लाखों दीपक जलाए जाते हैं। 


श्रीकृष्ण ने की थी रासलीला 

भागवतकथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने शरद पूर्णिमा को रासलीला की थी। लोक भी यही मानता है। शरदोत्फुल्ल मल्लिका वाली रातों में जिसने रासलीला की, मनोहर कल्पना की वह भी साक्षात रसमूर्ति था। वह काशी लोक की इसी भावभूमि पर स्थित है। यह हमारा लोकमंगल ही है जो पूरे कार्तिक मास को उत्सव का महीना बना देता है और पूर्णिमा के दिन अपने भावों को शत-शत दीयों के माध्यम से प्रकृति के इस अनोखे सौंदर्य के प्रति समर्पित कर देता है। 


अंतरराष्ट्रीय ख्याति 

देव दीपावली का यह आकर्षण अब अंतरराष्ट्रीय हो गया है। यह उत्सव काशी की संस्कृति की अपनी पहचान बन गया है। हां, इस सबके बीच मेरा मन गंगा की धार के साथ जुड़ जाता है। दीया प्रकाशक तत्व है। इसलिए वह ज्ञान का प्रतीक है। दीप जलाने का अभिप्राय देवता की उपस्थिति का ज्ञान होना है और देवता के साथ मनुष्य के संबंध का ज्ञान होना है। हम प्रयास करें कि इस दिन जलने वाले लाखों दीये हमारे देवत्व से हमारा परिचय करा सकें। 


स्नान के बाद गंगा में दीपदान 

इस दिन घाटों के नीचे कल-कल बहती गंगा की लहरें, घाटों की सीढ़ियों पर जगमगाते लाखों दीपक एवं गंगा के समानांतर बहती हुई दर्शकों की जनधारा आधी रात तक अनूठा दृश्य अविस्मरणीय एवं मनोहारी दृश्य का एहसास कराती है। गंगा की धारा में हजारों नावों और बजड़ों (दो मंजिली बड़ी नावों) पर बैठे दर्शनार्थी इस अद्भुत दृश्य को अपने आंखों एवं कैमरे में कैद करते देखा जा सकता है। रात में दीपों से गंगा की गोद ऐसी टिमटिमा उठती है जैसे आसमान से आकाश गंगा जमीन पर उतर आई हों। वैसे भी शरद ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण की महा रासलीला का काल माना गया है। श्री मदभागवत् गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में श्रीकृष्ण का महारास सम्पन्न हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही काशी के गंगा घाटों पर लाखों लोग स्नान कर पुण्य लाभ कमाते हैं एवं गंगा में दीपदान कर सुख समृद्धि की कामना करते है। इस अवसर पर दीपों के माध्यम से पुरखों और पितरों को भी श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। पं रामदुलार उपाध्याय का कहना है कि शरद ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण की महा रासलीला का काल माना गया है। श्री मदभागवत् गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में श्रीकृष्ण का महारास सम्पन्न हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही काशी के गंगा घाटों पर लाखों लोग स्नान कर पुण्य लाभ कमाते हैं एवं गंगा में दीपदान कर सुख समृद्धि की कामना करते है।  


बेहद खास होगी देव दीवाली 

इस बार काशी की विश्व प्रसिद्ध देव दीपावली बेहद खास होगी। 84 घाटों पर एक जैसा नजारा होगा। पूरे शहर में आतिशबाजी और सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौजूदगी में मथुरा के रंगोत्सव और अयोध्या के दीपोत्सव की तरह ही बनारस की देव दीपावली को मनाया जाएगा। इसमें 84 घाटों पर एक जैसे आयोजन के अलावा शहर में भी इसकी शृंखला चलाई जाएगी। गंगा के दूसरी तरफ भी आयोजन किए जाएंगे। गंगा के अर्द्धचंद्राकार घाटों पर एक साथ आयोजन कर प्रशासन इस त्योहार को भी बनारस की संस्कृति से जोड़ने की कोशिश करेगा। देव दीपावली के दिन कहीं पीएम मोदी के स्वच्छ भारत मिशन का संदेश होगा तो कहीं डिजिटल इंडिया और बेटी बचाओं-बेटी पढ़ाओं का संदेश दीपमालाओं में उकेरा जायेगा। तो कहीं सरहदों की रक्षा में जान कुर्बान करने वाले जवानों के नाम के दीये रोशन होंगे। खास यह है कि इस दिन अनूठे जलोत्सव यानी देव दीपावली पर कुल 51 लाख दीये जलाएं जायेंगे। पंचनंद तीर्थ पंच गंगा घाट पर ही आठ स्तंभो पर कुल 8000 दीप शाम ढलते ही जगमगाने लगेंगे। आतंकवाद के अलावा देवी-देवताओं, राष्ट्रीय परिदृश्यों पर आधारित दीपों की अल्पनाएं यादगार बनेंगी। गंगा तट से लगायत शहर के सभी कुंड-तालाबों पर शहीदों की याद में लाखों दीप टिमटिमाएंगे। तुलसी घाट पर देव दीपवाली का अलग ही नजारा होगा। दशाश्वमेध घाट पर गंगा सेवा निधि की ओर से इंडिया गेट की रिप्लिका बनाई जायेगी। इसमें शौर्य धुन के साथ सेना के आला अफसर पुष्प गुच्छ अर्पित करेंगे। 




--सुरेश गांधी --

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