पटना. कॉमरेड विनोद मिश्र का 22वां स्मृति दिवस18 दिसंबर को है.भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) 1999 से इस दिन को “संकल्प दिवस” के रूप में मनाते रहे हैं, ऐसे दिन के रूप में जब पूरी पार्टी अपने क्रांतिकारी संकल्प का नवीनीकरण करती है. इस बार, हम इस दिन को, उस अभूतपूर्व किसान आंदोलन के बीच मना रहे हैं, जिसमें कॉर्पोरेट प्रभुत्व (जिसे लोकप्रिय तौर पर अदानी-अंबानी कंपनी राज कहा जा रहा है) और भारत पर फासीवादी कब्जे के विरुद्ध एक शक्तिशाली जनप्रतिरोध में विकसित होने की तमाम संभावनाएं मौजूद हैं. भारत को फासीवादी खतरे से मुक्त करने की लड़ाई में, अपनी भूमिका बढ़ाने और चुनौतियों का सामना करने के मामले में, हाल में सम्पन्न बिहार चुनाव में हासिल उत्साहवर्द्धक उपलब्धियों ने पार्टी को बेहतर स्थिति में ला दिया है. हमें इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से उठ खड़ा होना होगा. कॉमरेड विनोद मिश्र ने पार्टी का नेतृत्व करते हुए जन संगठनों के व्यापक नेटवर्क और चुनावों में भागीदारी समेत जन राजनीतिक पहलकदमियों की शृंखला के साथ पार्टी को क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के अखिल भारतीय केंद्र के रूप में उभारा. हमारी वर्तमान मजबूत चुनावी उपस्थिति, सर्वाधिक उत्पीड़ित जन-गण के लिए आधारभूत मानवीय गरिमा हासिल करने के लिए हमारे दखल से लेकर जनता के अधिकारों के लिए बढ़ते हुए संघर्ष की ताकत पर चुनावी जीत तक के हमारे उन्नयन की जीवंत अभिव्यक्ति है. कॉमरेड विनोद मिश्रा (वीएम) ने हमें, अपने वैचारिक धरातल, ठोस प्रगतिशील दृष्टिकोण, जीवंत जनवादी संस्कृति और क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की सांगठनिक एकजुटता को कमजोर किए बिना, एक बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. पार्टी की विकास की संभावना की चुनौती को स्वीकार करते हुए हमें अपनी पार्टी की इन बुनियादी विशेषताओं को कतई कमतर नहीं करना चाहिए.
1990 के पूरे दशक में कॉमरेड वीएम ने सांप्रदायिक फासीवाद के बढ़ते खतरे के प्रति पार्टी को निरंतर आगाह किया. उन्होंने बथानी टोला नरसंहार को नई रौशनी में देखा,जिसमें सामंती हिंसा के गरीबों पर सांप्रदायिक फासीवादी हमले और क्रांतिकारी वामपंथ पर विषबुझे हमले के रूप में बढ़ने के संकेतों को बिना चूक वे देख पा रहे थे. इसके चलते बिहार में राजद सरकार और फिर बाद में केंद्र में यूपीए से मुक़ाबिल होते हुए भी भाजपा और संघ ब्रिगेड के विरुद्ध संघर्ष में पार्टी मुस्तैद और दृढ़ता पूर्वक डटी रही. आज भारत और भारतीय लोकतंत्र को मोदी हुकूमत के फासीवादी हमले से बचाना, वामपंथ और अन्य विपक्षी ताकतों के लिए सर्वाधिक निर्णायक चुनौती बन गयी है. इसीलिए बिहार में हमारी पार्टी की जीत को पूरे देश में इतनी सराहना मिली. यही कारण है कि भाजपा को बंगाल की सत्ता पर काबिज होने से रोकने की वामपंथी-उदारवादी खेमे से हमारी अपील का पश्चिम बंगाल में व्यापक स्वागत हुआ. मोदी सरकार का फासीवादी हमला तथा देश के सामने मुंह बाए खड़ी आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक तबाहियां जबरदस्त प्रतिवाद और सामूहिक प्रतिरोध उत्पन्न कर रहे हैं. भीड़ हत्या के खिलाफ प्रख्यात लेखकों एवं अन्य सांस्कृतिक हस्तियों का प्रतिवाद; रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद छात्रों के बीच जागृति, अब युवा भारत के शिक्षा, रोजगार और लोकतंत्र के संघर्ष में तब्दील हो चुकी है; एनआरसी-एनपीआर-सीएए का मुस्लिम महिलाओं, विश्वविद्यालय के छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की अगुवाई में अभूतपूर्व प्रचंड प्रतिरोध ; मंदसौर हत्याकांड के बाद राष्ट्रीय आकार लेता किसान आंदोलन, अब ऐतिहासिक उभार में तब्दील हो रहा है; महिलाओं और कामगारों के अन्य हिस्सों के समय-समय पर होने वाले शक्तिशाली संघर्ष -भयानक दमन, फासीवादी हिंसा तथा घृणा व झूठ फैलाने के अभियानों के बीच भी जन प्रतिरोध निरंतर बढ़ रहा है.
हालांकि पुलवामा हमले की छाया में हुए लोकसभा चुनावों में मोदी दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव जीतने में कामयाब रहे, पर उसके बाद हुए झारखंड और बिहार विधानसभा के चुनावों ने स्पष्ट तौर पर इस प्रतिरोध को चुनावी दायरे में ले जाने की संभावनाओं को प्रदर्शित किया है. आगामी विधानसभा के चुनावों में असम में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के सारे प्रयास किए जाने चाहिए, पश्चिम बंगाल की सत्ता में पहुँचने से उसे रोका जाना चाहिए और तमिलनाडू, केरल व पुदुच्चेरी में उसके आगे बढ़ने की संभावनाओं को लगाम लगाई जानी चाहिए. मोदी सरकार की दमनात्मक और विनाशकारी नीतियों का विरोध करते हुए हमें आरएसएस की शातिर भूमिका, उसके जटिल नेटवर्क और जमीनी संवाद तथा लोगों को गोलबंद करने वाली गतिविधियों पर पैनी निगाह बनाए रखनी चाहिए. आरएसएस की फासीवादी परियोजना के बरखिलाफ कम्युनिस्ट प्रतिवाद विकसित करते समय न केवल कम्युनिस्टों की पहचान रहे वैचारिक साहस और राजनीतिक स्पष्टता का होना आवश्यक है बल्कि वह मजबूत पकड़ और गहनता वाला जन कार्य और नीचे तक जाने वाला व कठोर परिश्रम वाली कार्यशैली भी आवश्यक है, जो कम्युनिस्टों की पहचान रही है. कोविड-19 महामारी के दौर की अराजकता और कुप्रबंधित लॉकडाउन के दौर की क्रूरता झेलने के बाद भारत मोदी सरकार के तानाशाही फरमानों के सामने समर्पण नहीं करेगा. पंजाब के किसानों की अपराजेय भावना ने देश भर की संघर्षशील ताकतों के साथ जबरदस्त तादात्म्य स्थापित कर लिया है. बिहार चुनाव में भाकपा(माले) की उत्साहवर्द्धक उपलब्धियों ने वामपंथी कतारों और बदलाव चाहने वाले लोगों के बीच नयी उम्मीद और जबरदस्त ऊर्जा का संचार किया है. कम्युनिस्ट आंदोलन के पुनःउभार और फासीवादी खतरे को नाकाम करने के लिए, हमें इन नयी परिस्थितियों का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने 18 दिसंबर के लिए केंद्रीय कमेटी का आह्वान किया है कि बिहार चुनाव से हासिल उपलब्धियों को चिरस्थायी बनाने के लिए पार्टी को विस्तारित और मजबूत करो!फासीवाद विरोधी प्रतिवाद को तीव्र और विस्तृत करने के लिए चौतरफा पहलकदमी लो!!
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