पेरिस समझौते के बाद से तय की गई गतिशीलता ने पिछले पाँच वर्षों में निम्न-कार्बन समाधानों और बाज़ारों के लिए नाटकीय रूप से प्रगति करने के लिए परिस्थितियां पैदा की हैं। इस समझौते ने - इस अंतर्निहित ‘शफ़्ट’ ने - 195 देशों के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को लगातार कम करने के लिए एक साफ़ रास्ता तैयार कर दिया। इलेक्ट्रिक वाहनों से वैकल्पिक प्रोटीन्स से लेकर स्थायी उड्डयन ईंधन तक सब के लिए अनुकूल परिस्थितियों तैयार हो गयी नजर आ रही है। 50% से ज्यादा सकल घरेलू उत्पाद के लिए ज़िम्मेदार देश, शहर, क्षेत्र और कंपनियों ने शुद्ध शून्य लक्ष्य स्थापित किए हैं । यूरोपीय संघ, यू.के. और अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बिडेन (जो संयुक्त रूप से 30% से ज्यादा वैश्विक आयात करते हैं) द्वारा कार्बन सीमा कर समायोजनों की वास्तविक संभावना पहले से ही इस्पात और एल्यूमीनियम जैसी वस्तुओं के लिए बाज़ार में व्यवहार में एक तरह का व्यावधान उत्पन्न कर रही हैं। अबखाद्य कंपनियों पर यह साबित करने की ज़िम्मेदारी कि उनकी आपूर्ति शृंखलाएं वनों की कटाई से मुक्त हैं, आवश्यकताओं की विश्वसनीय संभावना व्यवहार को बदल रही है। इसी क्रम में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र और गवर्नेंस के प्रोफेसर और वहीँ पर, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण पर अनुदान अनुसंधान संस्थान के अध्यक्ष, निकोलस स्टर्न, अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं, "हम जानते हैं कि अपर्याप्त कार्रवाई आगे चल कर बड़े और महंगे जलवायु जोखिम में तब्दील हो जाती है। इसलिए बुद्धिमान नीति निर्माता और निवेशक ऐसा कुछ करने से बचेंगे और ऐसे लक्ष्य बनायेंगे जिनसे नौकरियों का सृजन हो और व्यवस्था में लचीलापन। और ये सब सिर्फ़ एक शुद्ध-शून्य अर्थव्यवस्था के माध्यम से ही किया जा सकता हैं।” यह दर्शाता है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और वैश्विक तापमान में वृद्धि जारी है, अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में कम कार्बन प्रगति अब तेज हो रही है। सौर और पवन की तेजी से गिरती लागत पहले से ही कई बाजारों में जीवाश्म ईंधन की तुलना में बेहतर दांव लगाती है, जबकि इलेक्ट्रिक वाहन विकास की गति ने अनुमानों को दोहराया है। 2030 तक, 70% उत्सर्जन में योगदान करने वाले क्षेत्रों के लिए, हमारे पास भारी सड़क परिवहन, भारी उद्योग और कृषि सहित प्रतिस्पर्धी कम या लो कार्बन समाधान होंगे। अब 2020 के दशक में जीरो-कार्बन उद्योगों की प्रगति, समृद्ध विकास करने, लाखों नौकरियों और अधिक लचीली अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करने के लिए पीढ़ी में एक बार आने वाला अवसर है। पेरिस इफेक्ट के चलते भारी उद्योग क्षेत्रों में पर्यावरण अनुकूल समाधानों को प्राथमिकता मिलेगी जिससे शिपिंग और विमानन जैसे क्षेत्र अपने ग़ैर-हरित समकक्षों की तुलना में तेजी से प्रतिस्पर्धी बन जाएंगे। चीन के बाहर कोयले में नये निवेशों में तेज़ी से गिरावट दर्ज जो रही है और नई डीजल और पेट्रोल चालित कारों को 2030 के दशक तक कुछ ख़ास बाजारों में ही वापस लाये जाने की संभावना है। और इस सब के बीच जिस तरह से तेल की बड़ी कंपनियों के वैल्यूएशन में गिरावट दिख रही है, उससे पीक ऑयल डिमांड एक हक़ीक़त लग रही है।
एक नज़र भारत पर
भारतीय रेलवे ने वर्ष 2030 तक प्रदूषणमुक्त संचालन वाली दुनिया की पहली रेलवे बनने का लक्ष्य तय किया है। भारत कूलिंग एक्शन प्लान घोषित करने वाले दुनिया के पहले देशों में शामिल है। भारत अक्षय ऊर्जा के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों और ऊर्जा दक्षता के मामले में भी अग्रणी है। ये सभी चीजें पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से भारत की सकारात्मक तस्वीर पेश करती हैं। भारत ने राउंड द क्लॉक रिन्यूएबल्स की 38 डॉलर प्रति मेगावाट के हिसाब से नीलामी की और ताजा सोलर बिड 27 डॉलर प्रति मेगावाट रही है। एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में बहुत उछाल आने वाला है और जब इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमतें परंपरागत ईंधन से चलने वाले वाहनों के मूल्यों के बराबर हो जाएंगी, तब इलेक्ट्रिक वाहनों के बाजार में जबरदस्त उछाल आएगा। पेरिस समझौते की सालगिरह से पहले उसी संदर्भ में हुई एक वेबिनार में टेरी की प्रोग्राम डायरेक्टर रजनी आर. रश्मि ने कहा, “जहां तक अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का सवाल है तो मेरे हिसाब से भारत सही रास्ते पर है। भारत अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहा है। वह एमिशंस इंटेंसिटी के मामले में 24% की गिरावट दर्ज कर चुका है।” उसी वेबिनार में डब्ल्यूआरआई इंडिया की जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर कहती हैं “पहले माल ढुलाई का काम रेलवे से ज्यादा होता था लेकिन अब यह काम डीजल से चलने वाले ट्रकों पर आ गया है। यहां पर प्रदूषण कम करने के लिहाज से जबर्दस्त सम्भावनाएं हैं। अगर भारत को अपने सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करना है तो सीमेंट और स्टील जैसे उद्योगों में अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल के प्रति दक्षता लानी होगी। कार्बन प्राइसिंग और कार्बन ट्रेडिंग के जरिए इन उद्योगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।’’
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