मीडिया का मतलब जनभावनाओं की अभिव्यक्ति है। लेकिन मीडिया सच और गलत के अंतर को दिखाने से बचे तो तो उसे पत्रकारिता कैसे कहा जायेगा? भारत में ही अनके ऐसे उदाहरण सामने आ चुके है, जहां अपनी खामियां छुपाने के लिए सरकारें व अमित त्रिपाठी जैसे भ्रष्ट व बेईमान अफसर माफियाओं के साठगांठ से पत्रकारों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह अलग बात है कि सपाराज के गुंडे व माफिया योगीराज में जेल की हवा खां रहे है। लेकिन दबावों की राजनीति के समक्ष नतमस्तक होते मीडिया के बीच कुछ पत्रकार एवं मीडिया हाउस तनकर सामने खड़े हुए, नुकसान की परवाह किए बिनाअभिव्यक्ति की आजादी प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है। तो भला उस अधिकार से मीडिया को क्यों रोका जाएं। कोई भी सरकार ठीक से काम कर रही हैं यह तब पता चलेगी जब उसे सही और गलत का अंतर समझ में आएगा। लेकिन अफसोस है कि सरकारों एवं प्रशासनिक अफसर उन पत्रकारों या मीडिया हाउसों के खिलाफ हो जाते है, जो उनकी खामियां उजागर करती है। वे खींझ इस हद तक निकालने पर आमादा पर हो जाते है कि माफियाओं की साठगांठ से पत्रकरों की हत्या व घर-गृहस्थी लुटवाने के साथ मीडिया हाउसों के विज्ञापनों पर रोक लगा देते है। जबकि कुछ चाटुकार मीडिया संस्थानों व पत्रकारों पर इस कदर मेहरबान रहते है कि अपनी पूरी खजाना उनके लिए खोल देते है। पर वो भेल जाते है कि कई बार मीडिया में छाई रहने वाली सरकारों का पतन होते हमनें देखा है। देश में दबाव के अलावा प्रलोभन की राजनीति का कुचक्र जाल भी पैर पसारता जा रहा है। यानी दबाव न चले तो प्रलोभन से मीडिया को बस में करने के हथकंडे अपनाए जाने की खबरें आम होने लगी है। कहने में संकोच नहीं कि मीडिया का एक वर्ग इस जाल में फंसने की स्वयं बेताब नजर आ रहा है। यह पत्रकारिता नहीं विशुद्ध व्यवसाय है। व्यवसाय अगर पत्रकारिता पर हावी होने लगेगा तो पत्रकारिता बचेगी कहां?
देश ही नहीं दुनिया में दबाव की राजनीति को शिकस्त देने की जरूरत है, ताकि अभिव्यक्ति की आजादी भी बरकरार रह सके और सत्ता संस्थानों पर अंकुश भी बना रहे। बता दें, वर्ष 2006 से 2021 तक दुनिया भर में 1,211 पत्रकारों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों में से करीब 90 फीसदी को दोषी करार नहीं दिया गया। पत्रकारों की ये हत्याएं संघर्षरहित क्षेत्रों में हुई, जो राजनीति, अपराध और भ्रष्टाचार पर रिपोर्टिंग के लिए खबरनवीसों को निशाना बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है। रिपोर्ट के मुताबिक, पत्रकारों के लिए काम करने के लिहाज से अरब देश सबसे खतरनाक हैं, जहां 30 प्रतिशत हत्याएं हुई। इसके बाद लातिन अमेरिका और कैरीबियाई क्षेत्र (26 प्रतिशत) और एशिया तथा प्रशांत देश (24 प्रतिशत) आते हैं। वर्ष 2019 से अब तक भारत में किसी पत्रकार की हत्या नहीं हुई है। वर्ष 2017 की रिपोर्ट बताती है कि 180 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर था। वर्ष 1992 से 2017 के बीच भारत में 75 पत्रकारों की हत्या हुई। जबकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2013 से 2014 में भारत में जितने पत्रकारों पर हमले हुए, उनमें से 70 फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। वर्ष 2015 में पत्रकारों की हत्या के दो मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। पत्रकारों पर हमलों के मामले में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है और उसके बाद बिहार का नंबर आता है। ऐसे मामलों में अब तक किसी को सजा नहीं हुई है। यह चिंता की बात है। रिपोर्ट यह भी है कि इसमें यूपी के कई पत्रकारों की हत्याओं का आंकड़ा दर्ज ही नहीं है। यूपी में सपा के अखिलेश राज में 200 से अधिक पत्रकारों का उत्पीड़न किया गया, जिसमें दो दर्जन से अधिक हत्याएं हुई। इसमें कई को जिंदा जला दिया गया तो कईयों को सरेराह सड़कों पर माफियाओं के द्वारा मरवा दिया गया तो कईयों पर फर्जी रपट दर्ज कराकर उनके घर-गृहस्थी लूटवा लिया गया। लेकिन अखिलेशकाल के बेईमान अधिकारी व कुछ दलाल पत्रकारों की साजिश में इन्हें हत्या या उत्पीड़न माना ही नहीं गया। परिणाम यह है कि अपराधियों को सजा नहीं मिलने की वजह से उनके हौसले बुलंद हो जाते हैं। वे ऐसे ही कई और अपराध को अंजाम देते हैं। कानून और न्याय व्यवस्था को धता बताते हैं। कुछ एनजीओं की नजर में यह मानवाधिकार का गंभीर उल्लंघन है। लेकिन उन्हें कौन बताएं कि मानवाधिकार भी उन्हीं सरकारों व प्रशासनिक अधिकारियों पर निर्भर है, उन्हें वे जो रिपोर्ट देते है वहीं सच मान लेता है।
अपराधियों को सजा न मिलने से बढ़े अपराध
अपराधियों को सजा नहीं होने की वजह से पूरे समाज पर खतरा उत्पन्न हो जाता है। इससे आमजन के मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, भ्रष्टाचार और अपराध को बढ़ावा मिलता है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, वर्ष 2018 में बिहार और झारखंड में दो-दो पत्रकारों की हत्या हुई। कहीं पत्रकार को पीट-पीटकर मार डाला गया, तो कहीं गाड़ी से कुचल दिया गया। कहने का अभिप्राय है कि स्थानीय स्तर पर सबसे ज्यादा पत्रकारों को काम के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ती है। इन मामलों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जिसकी वजह से पत्रकार निर्भीक होकर पूरी ईमानदारी से काम नहीं कर पाते। हर साल आज का दिन हमें हिंदी पत्रकारिता पर बात करने के लिए मिलता है। दशकों से इस दिन आमतौर पर हिंदी पत्रकारिता की दिशा और दशा पर चिंता जताते हुए आयोजन होते हुए दिखते हैं। कभी कभी हिंदी पत्रकारिता के गुणगान के आयोजन भी हो जाते हैं। इस बार भी कई जगह हो रहे होंगे। लेकिन उन आयोजनों मे हुए विचार विमर्शों के बारे में खुद हिंदी अखबारों और हिंदी टीवी चौनलों में कुछ भी पढ़ने-सुनने को नहीं मिलता। खैर ये कोई बड़ी चिंता की बात नहीं। क्योंकि हिंदी के अलावा और दूसरी भाषाओं की पत्रकारिता पर ही कौन सा विमर्श हो रहा है। खासतौर पर अंग्रेजी पत्रकारिता तो इस समय अपनी अस्मिता की चिंता को छोड़ धड़ल्ले से हिंदी के शब्द, हिंदी के वक्ताओं और हिंदी भाषी जनता को हूबहू कहते दिखाना चाह रही है। यानी पत्रकारिता चाहे हिंदी में हो या किसी दूसरी भाषा में, वह अपनी भाषाई अस्मिता को छोड़ती हुई सिर्फ पत्रकारिता ही दिखाई दे रही है।
अब इंटरनेट मीडिया
पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भविष्य में पत्रकारिता में बेहतर उत्थान की कल्पना बिना वेब मीडिया या कहे इंटरनेट के अधूरी-सी लगती है। मतलब लगभग 80 फीसदी आबादी इंटरनेट से जुड़ चुकी है। तमाम चुनौतियों के बावजूद आज इंटरनेट रोजमर्रा के जीवन में बहुतायत में शामिल हो चुका है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांशी ‘डिजिटल भारत’ योजना के चलते भारत के प्रत्येक नागरिक तक इंटरनेट संबंधित मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिए केंद्र सरकार प्रतिबद्ध है। इसी के मद्देनजर हम भारत में पत्रकारिता के भविष्य की और नजर दौड़ाएं तो हमे इंटरनेट पत्रकारिता का स्वर्णिम भविष्य नजर आने लगेगा। अंग्रेजी में पुरानी कहावत है कि आपको वही सरकार मिलती है, जिसके योग्य आप हैं। यही बात पत्रकारिता के बारे में कही जा सकती है। पत्रकारिता के विकास की दृष्टि से यह जानना महत्वपूर्ण है कि उसकी सामाजिक परिस्थितियां क्या हैं। यह बहुत कुछ समाज की राजनैतिक रुझान पर भी निर्भर करता है। मोटे तौर पर समाज में पत्रकारिता के प्रति एक आदर का भाव विद्यमान होता है, किंतु अब वहां पत्रकारिता पर सवाल उठने लगे हैं, उसे संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है और दूसरी तरफ जिस पत्रकारिता को लोकशिक्षण का अनिवार्य माध्यम सदियों से माना गया है, उससे लोकशिक्षण के बजाय लोकमनोरंजन की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जा रही है।
दिमाग की बत्ती जली रहनी चाहिए
मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में जा रहा है। उनका एजेंडा पैसा कमाना है। देश और अवाम से उनका कोई लेना-देना नहीं है। पाठकों तक हर तरह का समाचार पहुंचाने के लिए दिमाग की बत्ती जली रहनी चाहिए। यह बुझनी नहीं चाहिए। ताकि कोई आपका इस्तेमाल न कर सके। किसी चीज की सराहना करना मेरा काम नहीं। मैं अपनी बात बोलूंगा। यदि आप मुझे दीवार दिखाने ले जायेंगे, तो मैं उसे मुक्का मार कर देखूंगा कि यह कहां से गिरनेवाली है। बात साफ है। यदि नागरिकों की दिलचस्पी लोकहित के गंभीर प्रश्नों में नहीं है तो ऐसे में पत्रकारिता का विकास
-सुरेश गांधी-
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