स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से जूझ रहे पहाड़ में कई बार महिलाएं सड़क और जंगलों में बच्चों को जन्म देने के लिये मजबूर हो जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में खोले गये अस्पतालों में विशेषज्ञ चिकित्सकों का नितांत अभाव है। कई क्षेत्रों में सड़क और दूरसंचार व्यवस्था भी पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थितियों में महिलाओं को प्रसव के दौरान गम्भीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पिछले वर्ष फरवरी में चमौली जिला स्थित पैंखोली गांव की 25 वर्षीय सुनीता ने रात में आपात स्थिति में घर पर ही एक बच्ची को जन्म दिया। प्रसव के कुछ देर बाद ही सुनीता की तबियत बिगड़ने लगी। संचार सुविधा के अभाव में चिकित्सकीय परामर्श न हो पाने की स्थिति में गांव वाले रात में ही सुनीता को कुर्सी पर और नवजात को गोद में लेकर अस्पताल के लिए निकल पड़े। मुख्य सड़क अभी भी गांव से 3 किमी दूर थी और अस्पताल 25 किमी की दूरी पर था। लेकिन सुनीता और उसकी नवजात बच्ची ने सड़क पर पंहुचने से पहले ही दम तोड़ दिया।
राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने का लाख दावा कर ले लेकिन वास्तविकता यही है कि पहाड़ी जनपदों में आज भी स्वास्थ्य सेवायें पूरी तरह से अनुपस्थित हैं। वहां ना तो सड़कें हैं और न ही संचार की उचित व्यवस्था, ऐसे में शासन-प्रशासन ने और पहाड़वासियों ने भी स्वयं को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। फिलहाल इससे बेहतर विकल्प भी गांव वालों के पास नहीं है। इन विकट परिस्थितियों का सबसे अधिक सामना महिला और बच्चों को करना पड़ता है। अगस्त 2011 में देवप्रयाग के खड़ोली गांव की एक महिला को 5 किलोमीटर की पैदल दूरी पर स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हिंडोलाखाल लाया जा रहा था। प्रसव पीड़ा सहते हुये महिला की हालत ज्यादा बिगड़ गई और आधे रास्ते में ही उसकी मौत हो गई है। सुदूरवर्ती सीमांत पिथौरागढ़ जिले में स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल सबसे अधिक बुरा है। पूरे जिले में प्रसव के लिये एकमात्र जिला अस्पताल पर ही निर्भरता है। स्वास्थ्य सुविधाओं का दूर होना और समय पर उचित इलाज नहीं मिलने की कीमत महिलाओं को प्रसव के दौरान अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है।
वर्ष 2019 की नीति आयोग की हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव इंडिया रिपोर्ट में 21 राज्यों की सूची में उत्तराखंड 17वें पायदान पर है। आईएमआर और सीएमआर में भी राज्य का बुरा हाल है। वर्ष 2015-16 में राज्य में शिशु मृत्युदर 28 से बढ़कर 32 (प्रति हजार बच्चों पर) हो गई थी। स्वास्थ्य विभाग में कर्मचारियों का बहुत अभाव है। लाख कोशिशों के बावजूद सरकार पहाड़ों पर डाक्टर भेजने में असफल रही है। पूरे देश में उत्तराखंड उन तीन राज्यों में है जहां मातृ मृत्यु दर सर्वाधिक है। इसकी असली वजह पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचों के घोर अभाव का होना है। इस कोरोना संकट में महिलाओं को प्रसव के दौरान दुगुनी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। शहरी क्षेत्रों की गर्भवती महिलाओं को इस समय स्वास्थ्य सुविधाओं का मिलना कठिन हो रखा है। ऐसे में भौगोलिक विकटता और सुविधाओं के अभाव में पहाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों की गर्भवती माताएं किस संकट से गुज़र रही होंगी, इसका केवल अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
बहुत संघर्षों और बलिदानों के बाद उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ है। राज्य आंदोलन के संघर्ष में महिलाओं ने बढ़चढ कर भागीदारी की थी। राज्य आंदोलन की बुनियाद में प्रदेश की महिलाओं के कष्ट भी प्रमुख थे। लेकिन इसके बावजूद राज्य बनने के बीस वर्ष बाद भी महिलाओं को प्रसव के लिये अपनी जान से समझौता करना पड़ रहा है, यह बेहद शर्मनाक स्थिति है। किसी भी राज्य की दशा और दिशा को बदलने तथा वहां के नागरिकों के लिए बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध करवाने के लिए दो दशक का समय काफी होता है। लेकिन उत्तराखंड में इसकी कमी राज्य से लेकर पंचायत स्तर तक की उदासीनता दर्शाता है। यह उदासीनता पहाड़ की बेटियों के जीवन को खतरे में डाल रही है।
अंजली नेगी एवं सपना नेगी
टिहरी गढ़वाल
उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
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