- जाति व पार्टी के साथ बदल जाती है वोट की ‘कीमत’
पिछले चुनाव में मैदान में उतरे कई उम्मीदवारों से हमने बातचीत की। इसमें कई रोचक तथ्य सामने आये। विधान परिषद के स्थानीय निकाय कोटे से चुनाव के लिए पार्टियां अपना उम्मीदवार उतारती हैं, लेकिन पार्टी की भूमिका टिकट तय होने तक होती है। इसके बाद हर उम्मीदवार के लिए चुनाव व्यक्तिगत हो जाता है। उम्मीदवार को ही एक-एक वोट का इंतजाम करना होता है। इसमें पैसा और जाति की ही भूमिका निर्णायक होती है। इस चुनाव के लिए पार्टी उम्मीदवार को खर्च करने के लिए एक पैसा भी नहीं देती है। चुनाव आयोग की आंख में धूल झोंकने के लिए पार्टी की ओर से उम्मीदवार के चुनाव एकाउंट में पैसे भेजे जाते हैं। लेकिन इस राशि का भुगतान उम्मीदवार पहले ही पार्टी के फंड में दान कर चुके होते हैं। वही पार्टी की ओर से एकाउंट में भेज दिया जाता है। पिछले चुनाव के कुछ उम्मीदवारों ने अपने अनुभव को साझा करते हुए बताया कि अंतिम समय में एक-एक वोट के लिए पांच-पांच हजार रुपये का भुगतान करना पड़ा। वोट की कीमत के संबंध में बताया कि किसी पार्टी की ओर से टिकट तय होने के बाद वोट खरीदने का अभियान शुरू हो जाता है। वोटर तय होते हैं। शुरू में वोट की कीमत कम होती है। उम्मीदवार कमजोर जाति के वोटरों को पहले खरीद लेना चाहते हैं। उनको वोट की कीमत अदा कर उनका सर्टिफिकेट जब्त कर लिया जाता है। बाद में इनसे ज्यादा हुजत की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके बाद स्वजातीय वोटों पर फोकस किया जाता है। ऐसे वोटरों पर रिश्तेदारों का दबाव बनाकर कम कीमत में सौदा तय कर लिया जाता है। अंतिम में विरोधी जाति के वोटों पर ‘हमला’ किया जाता है। स्थानीय प्राधिकार कोटे के चुनाव में प्राय: आमने-सामने में एक ही जाति के दो मजबूत उम्मीदवार नहीं होते हैं। उनको लगता है कि दोनों हार गये तो जाति का भारी आर्थिक नुकसान हो जायेगा। जातीय आत्मीयता और समन्वय का ऐसा दूसरा उदाहरण और कहीं नहीं मिलेगा। स्थानीय प्राधिकार कोटे में यादव, राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, बनिया और मुसलमान ही मैदान में उतरते हैं। एकाध अपवाद हो सकता है। वजह है कि वोटरों को देने के लिए माल और मैनेजमेंट की क्षमता इन्हीं जातियों के पास है। पैसा देकर वसूल करने की ताकत भी रखते हैं।
चुनाव के दिन या एक-दो दिन पहले वोट ट्रांसफर भी बड़ी संख्या में होता है। वोट ट्रांसफर भी प्राय: तीन जातियों का ही होता है। ये जाति हैं- यादव, राजपूत और भूमिहार। वोट ट्रांसफर का मतलब है कि कोई जीतेंद्र सिंह नामक वोटर ने धीरेंद्र यादव नामक उम्मीदवार को वोट देने का सौदा 2000 रुपये में किये हैं। लेकिन अमरेंद्र शर्मा नामक दूसरा उम्मीदवार ने 2000 के बदले 2500 रुपये में जीतेंद्र सिंह के साथ सौदा कर लिये। वैसी स्थिति में वोटर जीतेंद्र सिंह उम्मीदवार धीरेंद्र यादव को पैसा वापस कर अपना सर्टिफिकेट रिलीज करवाता है। इसके बाद अमरेंद्र शर्मा से 2500 लेकर सर्टिफिकेट उन्हें सौंप देता है। किसी का पैसा वापस करना दुश्मनी लेने के समान है। इसलिए तीन जातियों के वोटर ही पैसा वापस लेने और वोट ट्रांसफर करने जोखिम उठाते हैं। इस चुनाव में विरोधी वोटों को साधना भी एक रणनीतिक काम है। इसको ऐसे समझिये। मानिये यादव और राजपूत दो उम्मीदवार हैं। यादव उम्मीदवार द्वारा राजपूत वोटों को साधना और राजपूत उम्मीदवार द्वारा यादव वोटों को साधना ही विरोधी वोटों को साधना है। इसमें पैसा के अलावा स्थानीय समीकरण और राजनीतिक संभावना की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन अब लोकल बॉडी के चुनाव पर ही आफत आ गयी है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव अब निर्धारित समय पर नहीं होगा। पंचायत चुनाव स्थिति सामान्य होने के बाद करवाया जायेगा। इसके बाद ही स्थानीय निकाय कोटे का विधान परिषद चुनाव करवाया जायेगा। राज्य निर्वाचन आयोग से प्राप्त सूचना के अनुसार, अब पंचायत चुनाव अगले साल नगर निकाय के साथ ही करवाया जायेगा। हालांकि यह कोई अंतिम रूप से तय नहीं हुआ है। लेकिन इतना तय है कि पंचायत चुनाव के बाद ही विधान परिषद की 24 सीटों के लिए चुनाव होगा।
विधान परिषद के घुंघरू यानी वोटर ही बिखर गये हैं। पंचायत चुनाव नहीं होने का असर सीधा परिषद चुनाव पर पड़ा है। स्थानीय प्राधिकार का चुनाव धन कुबेर व धन पशुओं के लिए ही होता है। इसलिए चुनाव में पैसे का तांडव वही करते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में लगता है कि विधान परिषद के स्थानीय निकाय का चुनाव एक साल के टल सकता है। इस कोटे के तहत बिहार विधान परिषद की 24 सीटें हैं। इस कोटे के तहत तीन सीट हैं, जहां से एक व्यक्ति लगातार तीन बार से निर्वाचित हो रहे हैं। नवादा के सलमान रागीब, मुजफ्फरपुर के दिनेश सिंह और पश्चिम चंपारण के राजेश राम लगातार तीसरी बार निर्वाचित हुए हैं। दूसरी बार निर्वाचित होने वाले में कई विधान पार्षद हैं। अधिकतर सदस्य पहली बार निर्वाचित हुए हैं। अलगे चुनाव की संभावनाओं को लेकर चर्चा करें तो आज की तारीख में स्थानीय निकाय कोटे के 19 सदस्य ही सीटिंग हैं। 24 में 3 सदस्य दिलीप राय, मनोज यादव और रीतलाल यादव विधायक बन गये हैं, जबकि सुनील कुमार सिंह और हरिनारायण चौधरी का देहांत हो गया है। सीटिंग 19 सदस्यों के फिर से चुनाव मैदान में उतरना तय है। वे अपने वर्तमान निर्वाचन क्षेत्र से ही चुनाव लड़ेंगे। कुछ सदस्य नयी परिस्थिति और माहौल में अपनी पार्टी बदलकर भी मैदान में उतरेंगे। पिछली बार लोजपा से निर्वाचित नूतन सिंह (सुपौल )भाजपा में शामिल हो गयी हैं। वैसे ही पिछली बार राजद से निर्वाचित संजय प्रसाद (मुंगेर) और राधाचरण साह (भोजपुर) जदयू में शामिल हो गये हैं। दिलीप राय भी पिछली बार राजद से निर्वाचित होकर जदयू में शामिल हो गये थे, लेकिन बाद में वे विधान सभा के लिए जदयू के टिकट पर चुन लिये गये। भाजपा के टुनजी पांडये (सीवान) के अगला चुनाव राजद से लड़ने की संभावना है। भाजपा में उनका पार्टी नेताओं से रिश्ता बिगड़ गया है। उनके भाई बच्चा पांडेय राजद के विधायक भी हैं।
राजनीतिक गलियारे में चर्चा में है कि दिलीप राय (सीतामढ़ी), रीतलाल यादव (पटना) और मनोज यादव (बांका) अगले विधान परिषद चुनाव में अपनी पत्नी या भाई को मैदान में उतार सकते हैं। इसी प्रकार हरिनारायण चौधरी (समस्तीपुर) के निधन के बाद उनके पुत्र तरुण चौधरी का चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। फिलहाल वे राजद में सक्रिय हैं, लेकिन चुनाव भाजपा से भी लड़ सकते हैं। सुनील सिंह (दरभंगा) के स्थान पर भाजपा उनके परिवार से बाहर किसी को टिकट दे सकती है, क्योंकि उनकी पुत्रवधू सवर्णा सिंह वीआईपी की विधायक बन गयी हैं। विधान परिषद के स्थानीय निकाय कोटे के वर्तमान सदस्यों का कार्यकाल 15 जुलाई को समाप्त हो रहा है। वे चुनाव की तैयारी पिछले एक साल से कर रहे थे। तैयारी का मतलब है कि वोटरों के साथ मोलभाव। इस संबंध में एक विधान पार्षद ने कहा कि तैयारी क्या करना है, वोट खरीदना है। पंचायत चुनाव के बाद ही वोट खरीदने का इंतजाम होगा। लेकिन पंचायत चुनाव कब होगा, अब यही सवालिया निशान हो गया है। जब तक पंचायत चुनाव नहीं होगा, तब तक विधान परिषद का चुनाव भी नहीं होगा। विधान परिषद के 24 सीटों का रिश्ता पंचायत चुनाव से जुड़ गया है। वर्तमान सदस्यों के पास कार्यकाल समाप्त होने के बाद पंचायत चुनाव का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
-वीरेंद्र यादव न्यूज-
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