उन्होंने कहा ‘‘जैव-विविधता में बदलाव के परिणामस्वरूप जलवायु पर प्रभाव पड़ता है। खासतौर पर यह असर नाइट्रोजन, कार्बन और जल सम्बन्धी चक्रों के जरिये पड़ता है। सुबूत बिल्कुल जाहिर है : इंसानों और कुदरत दोनों के ही लिये सतत वैश्विक भविष्य का लक्ष्य अब भी हासिल किया जा सकता है, मगर इसके लिये रूपांतरणकारी बदलाव करने होंगे और ऐसे दूरगामी कदम बहुत तेजी से उठाने होंगे, जो पहले कभी नहीं उठाये गये। ये कदम उत्सर्जन में कटौती के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों पर आधारित हों। जलवायु और जैव-विविधता के बीच कुछ मजबूत और जाहिर तौर पर न टाले जा सकने वाले परस्पर तालमेल का समाधान करने से कुदरत से सम्बन्धित व्यक्तिगत और साझा मूल्यों में गहन सामूहिक बदलाव लाया जा सकेगा। जैसे कि सिर्फ जीडीपी पर आधारित विकास को ही आर्थिक प्रगति मानने की परिकल्पना से दूर हटना और ऐसा मत बनाना जो गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिये कुदरत के बहुविध मूल्यों और मानव विकास में एक संतुलन पैदा करे और जैव-भौतिकी तथा सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन भी न हो।’’ लेखकों ने इस बात के लिये भी आगाह किया है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये संकीर्ण रूप से केन्द्रित कदम उठाये जाने से कुदरत को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंच सकता है, मगर ऐसे अनेक उपाय मौजूद हैं जो इन दोनों ही क्षेत्रों में उल्लेखनीय सकारात्मक योगदान कर सकते हैं। इस रिपोर्ट में जिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण उपलब्ध कदमों की पहचान की गयी है, वे निम्नलिखित हैं : जमीन और महासागरों में कार्बन और जैव प्रजातियों के लिहाज से समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्रों को हो रहे नुकसान और उनके अपघटन को रोकना। खासकर जंगलों, वेटलैंड्स, पीटलैंड, घास के मैदानों और सवाना के मैदानों को। इसके अलावा तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों जैसे कि मैंग्रूव, नमक के दलदल (साल्ट मार्शेज), केल्प फॉरेस्ट और समुद्री घास के मैदानों के साथ-साथ डीप वाटर और पोलर ब्लू हैबिेटैट्स को भी संरक्षित करना होगा। रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि वनों के कटान और उनके अपघटन में कमी लाकर मानव की गतिविधियों के कारण पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में हर साल 0.4 से लेकर 5.8 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर की कमी लायी जा सकती है। कार्बन और जैव प्रजातियों के लिहाज से समृद्ध रहे पारिस्थितिकी तंत्रों को फिर से पुरानी स्थिति में लाना। लेखकों ने उन सुबूतों की तरफ इशारा किया है जो यह बताते हैं कि पुनर्बहाली ही वह प्रकृति आधारित उपाय है जो सबसे सस्ता और तेजी से नतीजे देने वाला है। इससे पौधों और जीवों को उनका बहुप्रतीक्षित ठिकाना मिलता है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन की शक्ल में इससे जैव-विविधता के टिकाऊपन में वृद्धि होती है। इसके अलावा बाढ़ के नियमन, तटों की सुरक्षा, पानी की गुणवत्ता में वृद्धि, मिट्टी के अपरदन में कमी और परागण का सुनिश्चित होना जैसे अनेक अन्य फायदे भी मिलते हैं। पारिस्थितिकी की बहाली होने से रोजगार पैदा हो सकते हैं और आय में वृद्धि हो सकती है, खासकर जब स्थानिक लोगों और स्थानीय समुदायों के अधिकारों की आवश्यकता और उन तक उनकी उपलब्धता को ध्यान में रखा जाए।
जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन की क्षमता में वृद्धि करने, जैव-विविधता को बढ़ाने, कार्बन स्टोरेज में बढ़ोत्तरी करने और उत्सर्जन में कमी लाने के लिये कृषि एवं वानिकी सम्बन्धी सतत पद्धतियों को अपनाने में वृद्धि करना जरूरी है। इन उपायों में रोपित फसलों, वन्य जैव-प्रजातियों, कृषि-वानिकी तथा कृषि-पारिस्थितिकी का विविधीकरण शामिल है। रिपोर्ट के मुताबिक खेती की जमीन और चरागाहों के प्रबन्धन को बेहतर बनाने, जैसे भूमि का संरक्षण करने और खाद के इस्तेमाल में कमी लाने से 3-6 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर जलवायु परिवर्तन उत्सर्जन की सालाना क्षमता उत्पन्न होने का अनुमान है। संरक्षण सम्बन्धी बेहतर-लक्षित उन कदमों को तेज करना जिन्हें जलवायु अनुकूलन और नवोन्मेष का मजबूत समर्थन हासिल हो। इस वक्त संरक्षित क्षेत्रों का दायरा जमीन के 15 प्रतिशत और महासागर के 7.5 फीसद हिस्से में फैला है। उल्लेखनीय रूप से बढ़ रहे अक्षुण्ण और प्रभावशाली तरीके से संरक्षित क्षेत्रों से बेहतर नतीजे मिलने की उम्मीद है। अनुकूलन करने योग्य जलवायु, स्व-सतत जैव-विविधता और जीवन की अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक प्रभावशाली रूप से संरक्षित क्षेत्रों की वास्तविक आवश्यकताओं के वैश्विक अनुमान अभी तक स्थापित नहीं किये जा सके हैं, मगर ये सभी महासागरों तथा भूतल क्षेत्रों के 30 से 50 प्रतिशत के बीच हैं। संरक्षित क्षेत्रों के सकारात्मक प्रभावों को बेहतर बनाने के विकल्पों में अधिक संसाधनीकरण, बेहतर प्रबन्धन और प्रवर्तन तथा इन क्षेत्रों के बीच बढ़े हुए अंतर्सम्पर्क के साथ बेहतर वितरण शामिल हैं। संरक्षित क्षेत्रों से परे संरक्षण के उपाय भी चर्चा का विषय हैं। इनमें विस्थापन कॉरिडोर और बदलते हुए पर्यावरणों के लिये योजना के साथ-साथ कुदरत के साथ लोगों का बेहतर जुड़ाव भी शामिल है ताकि उपलब्धता में समानता और लोगों के प्रति प्रकृति के योगदान का बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित हो सके। वनों का कटान, उर्वरक का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और अत्यधिक मत्स्य आखेट जैसी जैव-विविधता को नुकसान पहुंचाने वाली स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर की गतिविधियों का कारण बनने वाली सब्सिडी को खत्म करने से जलवायु परिवर्तन की तीव्रता को कम करने और अनुकूलन को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। साथ ही इससे व्यक्तिगत उपभोग की तर्ज में बदलाव, हानि और कचरे में कमी होने और खासकर धनी देशों में आहार सम्बन्धी वरीयताओं को कृषि आधारित विकल्पों की तरफ मोड़ने जैसे लाभ भी मिल सकते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण और अनुकूलन सम्बन्धी कुछ केन्द्रित उपाय जैव-विविधता और लोगों के प्रति प्रकृति के योगदान के लिये नुकसानदेह हैं। ये इस प्रकार हैं :-
भूमि क्षेत्रों के एक बहुत बड़े हिस्से पर मोनोकल्चर में बायोएनर्जी फसलें उगाना। इन फसलों को जब बहुत बड़े पैमाने पर उगाया जाता है तो वे पारिस्थितिकी तंत्रों को नुकसान पहुंचाती हैं। इससे लोगों के प्रति कुदरत के योगदानों में कमी आती है और सतत विकास के अनेक लक्ष्यों को हासिल करने में रुकावट पैदा होती है। जीवाश्म ईंधन से होने वाले प्रदूषण में तेजी से कमी होने के साथ-साथ बिजली या ईंधन उत्पादन के लिये छोटे पैमाने पर बायोएनर्जी फसलें उगाने से जलवायु अनुकूलन और जैव-विविधता सम्बन्धी सह-लाभ प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे पारिस्थितिकीय तंत्रों, जो ऐतिहासिक रूप से जंगल नहीं रहे हों, में वृक्षारोपण करना और खासतौर पर देसी पादप प्रजातियों को रोपित कर मोनोकल्चर के साथ वनीकरण करना। इससे जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद मिल सकती है। मगर यह अक्सर जैव विविधता, खाद्य पदार्थ उत्पादन तथा लोगों के प्रति कुदरत के अन्य योगदानों को नुकसान पहुंचा सकता है। इससे जलवायु अनुकूलन के कोई जाहिर लाभ नहीं प्राप्त होते और इससे जमीन को लेकर प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने से स्थानीय लोगों को विस्थापित भी होना पड़ सकता है। बढ़ती हुई सिंचाई क्षमता। सूखे के लिए कृषि प्रणालियों को अनुकूलित करने के लिए एक आम प्रतिक्रिया जो अक्सर पानी को लेकर टकराव, बांध निर्माण और लवणीकरण की वजह से मिट्टी के दीर्घकालिक अपघटन का कारण बनती है। कोई भी उपाय जो जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण पर बहुत संकीर्ण तरीके से केन्द्रित है, उसे उसके सम्पूर्ण लाभों और जोखिमों के लिहाज से उन्नत बनाया जाना चाहिये। जैसे कि अक्षय ऊर्जा की कुछ किस्में खनन की गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं या उनमें बहुत बड़े क्षेत्रफल में जमीन का इस्तेमाल किया जाता है। यही बात प्रौद्योगिकी सम्बन्धी कुछ उन उपायों पर भी लागू होती है जो अनुकूलन पर बहुत संकीर्ण रूप से केन्द्रित होते हैं। जैसे कि बांधों और सी वॉल्स का निर्माण करना। हालांकि जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूलन सम्बन्धी महत्वपूर्ण विकल्प मौजूद हैं, मगर उनके बड़े पैमाने पर नकारात्मक पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव हो सकते हैं। जैसे, प्रवासी प्रजातियों के साथ हस्तक्षेप और पर्यावासों का अपघटन आदि। वैकल्पिक बैटरियां और लम्बे समय तक चलने वाले उत्पाद, खनिज संसाधनों के लिये दक्ष रीसाइक्लिंग प्रणालियां विकसित करके और पर्यावरणीय तथा सामाजिक सततता का मजबूती से ख्याल रखने वाली खनन गतिविधियों को विकसित करके इन प्रभावों को कम किया जा सकता है।
रिपोर्ट के लेखकों ने इस बात पर जोर दिया है कि जहां कुदरत जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में मदद करने वाले प्रभावशाली रास्ते मुहैया कराती है, वहीं यह समाधान सिर्फ तभी प्रभावशाली हो सकते हैं जब वे इंसान की गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाली सभी ग्रीन हाउस गैसों में कमी करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों पर आधारित हों। आईपीबीईएस की अध्यक्ष एना मारिया एर्नंदेज सलगार ने कहा "जमीन और महासागर पहले ही बहुत ज्यादा काम कर रहे हैं। वे मानव द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड के लगभग 50% हिस्से को सोख रहे हैं, मगर कुदरत सब कुछ नहीं कर सकती। हमारे पर्यावरण को स्थिर बनाने के लिए समाज के सभी वर्गों और अर्थव्यवस्था में रूपांतरणकारी बदलाव लाने होंगे। जैव विविधता को हो रहे नुकसान को रोकना होगा और हम जिस तरह का सतत भविष्य चाहते हैं, उसके निर्माण के लिए रास्ता तैयार करना होगा। इसके लिए हमें दोनों ही संकटों का अनुपूरक मार्गों के जरिए समाधान करने की भी जरूरत होगी।" आईपीसीसी के अध्यक्ष डॉक्टर होसिंग ली ने सह प्रायोजन वाली वर्कशॉप के महत्व का जिक्र करते हुए कहा "जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को होने वाले नुकसान मिलकर समाज के लिए खतरा पैदा करते हैं। यह दोनों अक्सर एक-दूसरे को बढ़ाते तथा तेज करते हैं। इस वर्कशॉप में जैव विविधता संरक्षण और जलवायु परिवर्तन शमन तथा अनुकूलन के बीच समझौताकारी तालमेल पर ध्यान केंद्रित करके लोगों और धरती को कैसे ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुंचाया जाए, इस बहस को आगे बढ़ाया है। इस कार्यशाला ने हमारे दो समुदायों के बीच सहयोग की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाने का मौका भी दिया है।" प्रोफेसर पोर्टनर ने कहा "सटीक तालमेल हासिल करना और यहां तक कि किसी भूदृश्य और समुद्री हिस्से के हर पैच में जलवायु और जैव विविधता संबंधी कदमों के तालमेल का प्रबंधन करना भी असंभव हो सकता है। लेकिन सीमापारीय सहयोग और संयुक्त विचार-विमर्शात्मक स्थानिक योजना के जरिए अपेक्षाकृत बड़े स्थानिक पैमाने पर क़दमों के मिश्रण को एकीकृत करते वक्त स्थायी परिणाम हासिल करना आसान होता जाता है। यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के समाधानों के बीच एकीकरण में सुधार के लिए प्रभावी शासन प्रणालियों और तंत्र की कमी को दूर करना भी जरूरी है।"
ब्रिटेन और नॉर्वे की सरकारों ने इस वर्चुअल वर्कशॉप की संयुक्त रुप से मेजबानी की। ब्रिटेन के पेसिफिक एंड एनवायरमेंट मिनिस्टर ऑफ स्टेट लॉर्ड जाक गोल्डस्मिथ ने कहा "प्रकृति और जलवायु के लिए यह निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है। कनमिंग में यूएन बायोडायवर्सिटी कॉन्फ्रेंस और ब्रिटेन में ग्लास्गो क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस के रूप में हमारे पास अवसरों के साथ-साथ जिम्मेदारी भी है कि दुनिया को जलवायु परिवर्तन के कारण हुए नुकसान की भरपाई के रास्ते पर लाया जाए। आईपीबीईएस और आईपीसीसी के विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई इस टीम की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हुआ है कि जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन का एक साथ समाधान करके हम भरपाई करने की सबसे बेहतरीन स्थिति में होंगे।" नॉर्वे के जलवायु एवं पर्यावरण मंत्री स्वाइनोंग रतवन ने कहा "वैश्विक जलवायु और जैव विविधता संबंधी संकट से निपटने की नीतियां, कोशिशें और कार्रवाई तभी कामयाब होगी, जब वे सर्वश्रेष्ठ जानकारी और प्रमाणों पर आधारित हों। यही वजह है कि नॉर्वे विशेषज्ञों की वर्कशॉप रिपोर्ट का स्वागत करता है। यह जाहिर है कि हम इन खतरों को अलग-थलग रहकर दूर नहीं कर सकते। या तो हम दोनों का समाधान निकाल पाएंगे या फिर किसी का भी नहीं।" आईपीबीईएस की एग्जीक्यूटिव सेक्रेटरी डॉक्टर ऐनी लैवीगेवरी ने सभी लेखकों और विशेषज्ञ समीक्षकों के काम के लिए उनका आभार प्रकट करते हुए हाल में वर्कशॉप की साइंटिफिक स्टीयरिंग कमेटी के सह अध्यक्ष प्रोफेसर रॉबर्ट स्कोल्स के दुखद निधन और आईपीसीसी तथा आईपीबीईएस के प्रति उनके अनेक योगदानों को को भी याद किया। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आईपीबीईएस या आईपीसीसी ने इस वर्कशॉप रिपोर्ट की समीक्षा नहीं की है और इन दोनों संगठनों द्वारा इस वर्कशॉप को कोस्पॉन्सर करने का मतलब यह नहीं है कि वे वर्कशॉप में किए गए अनुमोदन और उसके निष्कर्षों पर अपनी मुहर लगा रहे हैं।
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