श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है - “चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि माँ विद्धियकर्तारमव्ययम्॥ ४/१३॥” भगवान कह रहै हैं कि "गुंण और कर्म के अनुसार चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे द्वारा ही रचे गए हैं, परंतु इस व्यवस्था का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी (परमेश्वर) को अकर्ता ही जान।"
ध्यान दीजिए - भगवान यहां "गुंण व कर्म" के आधार पर ही वर्ण निर्धारित कर रहे हैं। "जन्म और जाति" नहीं कहा है। श्रीकृष्ण ने यहां किसी जाति में जन्म लेने का वर्गीकरण नहीं किया है, बल्कि शव्द "वर्ण" का उपयोग किया है। वह कह रहे हैं कि मनुष्य अपने-अपने वर्ण के अनुसार अपना-अपना कर्म करे। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने-अपने कर्म के अनुसार वर्ण निर्धारित कर लें। यहाँ श्रीकृष्ण ने जाति-भेद नहीं किया है, बल्कि वर्ण-भेद किया है। अर्थात् कर्म के अनुसार विभाजन किया है कि हमारे कर्म कैसे हैं ?
स्पष्ट है कि जो जैसा कर्म कर रहा है, उसी से मनुष्य का वर्ण निर्धारित होगा। अर्थात जाति के आधार पर कर्म निर्धारित नहीं होगा बल्कि कर्म के आधार पर वर्ण निर्धारित होगा। सामान्यतः देखने में यह आ रहा, जैसा कि अधिकतर राजनीतिक क्षेत्र में होता है कि लोग स्वयं अपने ही हाथों से स्वयं का टींका माहुर लगा कर अपने ही हाथों से स्वयं की आरती उतार रहे हैं। यद्यपि प्रत्येक को अपने गुणों, अपनी जाति की प्रशंसा करने का अधिकार है, परन्तु आवश्यक तो यह है कि ऐसे गुणों के धारणकर्त्ता भी तो वे स्वयं बने, और बेहतर होगा कि गुणों के कारण दूसरे अन्य उनकी प्रशंसा करैं। निष्कर्ष यह निकला कि ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ है, यह ईश्वर की कृपा है और ईश्वर ने उसे यह अवसर दिया है। इसके साथ ही यदि वह ब्राह्मणत्व के गुंण भी धारण किए हैं, तो सोने में सुहागा है। परन्तु ब्राह्मण परिवार में जन्म के बाद भी यदि अवगुणी रहै, तो जाति व जन्म, दोनों ही निरर्थक हो गए। इसी प्रकार यदि किसी अन्य जाति में जन्म हुआ हुआ है और गुंण ब्राह्मणों वाले हैं, तो मेरी दृष्टि में वह ब्राह्मण ही है, और अगला जन्म ब्राह्मण कुल में ही होने वाला है।
लेखक - राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक
दतिया, मध्य प्रदेश
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