दरअसल इस योजना के विस्तार के तहत स्कूलों में ऐसा समावेशी वातावरण तैयार करने पर ज़ोर दिया गया है, जो विविध पृष्ठभूमियों, बहुभाषी ज़रूरतों और बच्चों की विभिन्न अकादमिक क्षमताओं का ख्याल रखता हो। इसके साथ साथ बालिकाओं की मदद, सीखने की प्रक्रियाओं की निगरानी और शिक्षकों की क्षमता के विकास और उनके प्रशिक्षण पर विशेष ज़ोर देना है। माना जा रहा है कि यह योजना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में कारगर सिद्ध होगा बल्कि भविष्य में छात्रों को रोजगारोन्मुख भी तैयार करने में महत्वपूर्ण होगा। भविष्य की योजना को लेकर तैयार किए गए इस पॉलिसी से कितना फायदा होगा, यह भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है। लेकिन वर्त्तमान परिस्थिति अर्थात कोरोना काल में देखा जाये तो ऐसा लगता है कि शिक्षा की नीति को एक बार और दिशा देने की ज़रूरत है। विश्व में फैली महामारी कोविड-19 के कारण एक तरफ जहां लोगों का सामान्य जनजीवन प्रभावित हुआ है वहीं दूसरी ओर शिक्षण व्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। विशेषकर देश के ग्रामीण और दूर दराज़ क्षेत्रों की बात की जाए तो यह प्रतिकूल प्रभाव और भी गहरा नज़र आता है। बच्चे न केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित होकर रह गए हैं बल्कि बिना पढ़े औसत अंकों के आधार पर उन्हें अगली कक्षा में प्रवेश देने की प्रक्रिया के कारण उनकी बौद्धिक क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
छात्रों को अगली कक्षा में प्रोन्नत करने से पहले परीक्षा आयोजित की जाती है। जिसके माध्यम से उनकी बौद्धिक क्षमता का मूल्यांकन किया जाता रहा है। लेकिन इस कोरोना काल के कारण राज्य में कक्षा एक से बारह तक अध्ययन कर रहे समस्त विद्यार्थियों को बिना परीक्षा के ही अगली कक्षा में प्रमोट कर दिया गया है। वहीं बोर्ड का परिणाम भी ऐसे ही जारी किया गया जिसमें कोई भी बच्चा फेल नहीं हुआ, अर्थात सभी विद्यार्थियों को अच्छे अंकों के साथ पास किया गया जिससे राज्य के कई स्कूलों का पिछले कई वर्षों का रिकॉर्ड भी टूट गया। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान द्वारा 10वीं व 12वीं कक्षा का परिणाम घोषित किया गया। बोर्ड के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि जिसमे बोर्ड का नतीजा 99 प्रतिशत रहा। यह परिणाम अपने आप में एक ऐतिहासिक परिणाम है और सभी छात्र-छात्राओं, गुरुजनों, माता-पिता द्वारा एक दूसरे को बधाई दी जा रही है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या यह बधाई वास्तविक है या कोरोना की देन है? जिस प्रकार ऑफलाइन अध्ययन बंद होने के बाद ऑनलाइन अध्ययन द्वारा छात्रों ने जो अंक हासिल किए हैं, क्या उसे वाकई में छात्रों की मेहनत का परिणाम कहा जाना चाहिए? ऑनलाइन कक्षाओं का हाल किसी से छुपा हुआ नहीं है। अधिकतर ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थिति 10 से 15 प्रतिशत रहती है। इसके बावजूद छात्र-छात्राओं द्वारा 99 प्रतिशत अंक हासिल करना कैसी उपलब्धि है? इस समय हमें यह मंथन करना है कि छात्रों के अंक प्राप्त करने से हमें खुश होना है या छात्रों को जो ज्ञान प्राप्त हुआ है वह अधिक ख़ुशी की बात है?
वर्तमान में शिक्षा एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर आ चुकी है जिसके लिए हम सबको चिंतन करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार छात्रों को गुणवत्तापूर्ण अध्ययन उपलब्ध कराई जाये, जिससे उनका पूर्ण रूप से बौद्धिक विकास हो, न कि केवल पास और फेल तक सीमित रह जाये? बिना पढ़े और बिना परीक्षा दिए अंक प्राप्त करने पर हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं जबकि यह एक छलावा मात्र है। इससे विद्यार्थी अगली कक्षा में प्रवेश तो पा रहे हैं और उनका साल भी बर्बाद नहीं हो रहा है, लेकिन इससे कहीं न कहीं शिक्षा के प्रति उनकी गंभीरता को ख़त्म कर रहा है। हालांकि एक भी बच्चा का फेल नहीं होना अच्छी बात है, लेकिन शैक्षणिक उत्थान की दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह रिकॉर्ड एक चिंता का विषय बन जाता है। हमें यह सोचना चाहिए कि यह अंक सिर्फ काल्पनिक है, स्कूलों द्वारा फीस प्राप्त करने एवं सरकार द्वारा कोरोना से निपटने का एकमात्र साधन है। ज़रुरत है कोरोना के इस दौर में भी एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था तैयार करने की, जिसमें विद्यार्थियों में सीखने की क्षमता को बढ़ाया जा सके। यदि डिजिटल तकनीक के माध्यम से हम ऑनलाइन शिक्षा उपलब्ध करा सकते हैं तो इसी ऑनलाइन माध्यम से ही बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने की किसी योजना को मूर्त रूप क्यों नहीं दे सकते हैं? एक ऐसी योजना जिससे जैसलमेर के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे भी शिक्षा में समान और समावेशी भागीदारी निभा सकें? जिससे इस क्षेत्र भी अन्य ज़िलों की तरह ही शैक्षणिक पिछड़ापन को कम किया जा सके।
मनोहर लाल
जैसलमेर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
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