असमय बारिश के कारण किसानों की खेतीबारी भी पिछड़ गई है। अभी तक लोगों ने धान की रोपनी भी नहीं शुरू की, तबतक बाढ़ ने दस्तक दे दिया। परिणामतः खरीफ फसल धान, मक्का आदि की बुआई भी नहीं हो पाई है। वहीं यह बाढ़ सबसे ज्यादा उन किसानों के लिए शामत बनकर आई है, जो पशुपालन पर भी निर्भर होते हैं। ऐसे में उनके पशुओं के चारे की ज़बरदस्त किल्लत हो गई है। चारों तरफ पानी के भर जाने के बाद घास, दाना-साना आदि के लिए किसानों को ऊंचे स्थान पर मवेशियों को ले जाने की मजबूरी हो गई है। साथ ही पशुओं में वर्षा जनित रोग भी दस्तक देने लगे हैं। दोहरे परेशानी के बीच किसान मवेशियों के पालन-पोषण को लेकर काफी चिंतित हैं।
मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंडान्तर्गत दर्जनों पंचायत के हजारों ग्रामीणों की जीविका का आधार पशुपालन है। लेकिन इस बाढ़ की विभीषिका के बाद फतेहाबाद, ग्यासपुर, धरफरी, सोहांसा, सोहांसी, पंचरूखिया, दोबंधा, नयाटोला, पहाड़पुर, मोरहर और वासुदेवपुर से लेकर पूर्वी चम्पारण के नदी किनारे रहने वाले हजारों किसानों की जमीन के साथ-साथ पशुधन की रक्षा करना सबसे मुश्किल काम हो गया है। इस संबंध में सोहांसी गांव के किसान सिंगेश्वर शर्मा कहते हैं कि सैकड़ों की तदाद में मवेशियों को लेकर पशुपालक दूसरे गांव में चारे के लिए जाते हैं। ऐसे में पशुओं को लंबी दूरी तय करके कहीं घास मिल पाती है। यदि घास नहीं मिली तो उन बेज़ुबानों को भूखे रहने की नौबत आ जाती है। दूसरी ओर मानसूनी वर्षा के कारण मवेशियों में गलाघोटू बीमारी, लंगड़ा बुखार, स्माल पॉक्स, परजीवी रोग, खाज-खुजली आदि बिमारियों का भयंकर रूप से प्रकोप बढ़ जाता है। इस दौरान अधिकांश पशु उचित-देखभाल नहीं होने के कारण दम तोड़ देते हैं।
परंतु पिछले दो दशकों से जीना मुहाल हो गया है। गांव के धनी लोग अपनी-अपनी जमीन बेचकर शहर में घर बनाकर अपनी जीविका चला रहे हैं। हम जैसे निर्धन लोग गांव में रहने को मजबूर हैं। आखिर जाएं कहां? अब तो बाढ़ के साथ ही जीना और मरना लाग हुआ है। वहीं बकरी पालक विनय बैठा, कृष्णा सहनी और बसावन मियां कहते हैं कि पूरा इलाका जलमग्न है। घास नहीं मिल रही है। खुद का पेट भरना कठिन है। लेकिन बकरी पालन करने से नकद आमदनी होती है जिससे चूल्हा-चौका चलता है। ऐसे में अपने हिस्से से बकरियों को दाल-भात रोटी आदि खिलाकर किसी तरह उन्हें जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
लेकिन पशुओं के लिए इनकी सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। सोहांसी निवासी नीतू कुमारी कहती हैं कि गंगा मइया के जलप्रलय से सड़क, पुल-पुलिया सब ध्वस्त हो चुके हैं। अधिकांश लोग सगे-संबंधी और इष्ट-मित्रों के घर रह रहे हैं। नाव से राशन-पानी की व्यवस्था के साथ-साथ पशुओं के चारे के लिए भी लोग दूर-दूर तक जाकर किसी प्रकार से बंदोबस्त करने में जुटे हैं। यही करते-करते कुछ महीनों के बाद कार्तिक मास के समय तक जन-जीवन पुनः पटरी पर लौटता है। यह स्थिति प्रत्येक साल की है। बहुत लोगों ने उबकर गांव छोड़ने का भी निश्चय कर लिया है।
इस संबंध में वयोवृद्ध कांता सिंह कहते हैं कि सावन-भादो मास में बाढ़ की त्रासदी और बढ़ जाती है। पर्याप्त नाव की व्यवस्था बेहद जरूरी है। इसको लेकर स्थानीय प्रतिनिधियों को अगाह भी कराए गए हैं। इसके बावजूद व्यवस्था पूरी नहीं हो सकी है। केंद्र व राज्य सरकार की पशु बीमा योजना और चारा विकास योजना के बारे में किसानों को पता नहीं है। यदि किसानों को आर्थिक क्षति से बचाना है, तो स्थानीय जनप्रतिनिधियों एवं प्रखंड के अधिकारियों को नियमित टीकाकरण, पशु बीमा, चारा विकास योजना, एजोला की खेती, हाथ से चारा काटने वाली मशीन आदि का लाभ पीड़ित किसानों व पशुपालकों को देनी चाहिए। तभी सैकड़ों पशुपालकों की आर्थिक स्थिति मज़बूत की जा सकती है।
बहरहाल, हुक्मरानों की बाट जोहते किसान व पशुपालकों के पास कर्ज लेकर घर-गृहस्थी चलाने की मजबूरी कायम है। दूसरी ओर मवेशियों के चारा से लेकर रखरखाव और स्वास्थ्य की देखभाल भी आवश्यक है। जब मवेशी बचेंगे तभी आमदनी भी होगी। वरना, गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी आदि के पालने का काम छोड़ने को बाध्य होना पड़ेगा। जिसका सीधा प्रभाव महिलाओं और बच्चों के पोषण पर पड़ेगा, जिससे उनकी समुचित देखभाल नहीं हो पाएगी। समय रहते पशुपालकों के दुख-दर्द को समझने के लिए स्थानीय नेतृत्व के साथ-साथ अधिकारियों को भी आगे आना होगा। तभी बचेगी जिंदगी और बेजुबान पशुओं की जान।
मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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