भारत के 1857 के पहले स्वतंत्रता आन्दोलन बाद से, अंग्रेज बुरी तरह भयभीत हो गए थे। उनके शासन के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों की किसी भी पुनरावृत्ति की संभावना ने उन्हें बहुत डरा दिया था। 20वीं सदी की शुरुआत में लाला हरदयाल, लाला लाजपत राय और अजीत सिंह जैसे नेताओं को निर्वासित कर दिया गया था, लेकिन इससे भी अंग्रेजों का भय कम नहीं हुआ। कुछ राजनीतिक नेताओं के अपेक्षाकृत नरम रवैये के आधार पर उन्होंने सोचा कि अत्यधिक प्रताड़ना के उपाय से वे राष्ट्रीय भावनाके उदय को आसानी से दबा सकते हैं, ताकि उनका शासन निरंतर जारी रहे। भारतीयों में राष्ट्रीय भावना के जागृत होने से अंग्रेजपूरी तरह बेखबर रहे।प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान ब्रिटेन तथा इसके सहयोगी देशों के पक्ष में भारतीय जनता और भारतीयसैनिकों की बहादुरी के प्रति भी अंग्रेज पूरी तरह कृतघ्न बने रहे। एक छोटा-सा बहाना, यहां तक कि हड़ताल जैसा एक शांतिपूर्ण विरोध भी उनकी बर्बर कार्रवाई के लिए पर्याप्त था। अंग्रेजों की भयावह साजिश की झलक पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट-गवर्नर माइकल ओ'डायर के कार्यों में दिखाई पड़ती है, जिसने लोगों के अधिकारों को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पढ़े-लिखे वर्ग का अपमान किया गया, सैकड़ों को सलाखों के पीछे डाला गया और प्रेस का गला घोंट दिया गया। अप्रैल,1919 के शुरू होने के साथ ही घटनाओं की शुरुआत हुई। लाहौर और अमृतसर में शांतिपूर्ण हड़तालों को बलपूर्वक तोड़ा गया और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गईं। अधिकांश प्रमुख स्थानीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और निर्वासित कर दिया गया। लाहौर और अमृतसर के साथ-साथ कसूर और गुजरांवाला जैसी जगहों पर भी अत्याचार हुए। अंग्रेजों ने शांतिपूर्ण लोगों को भड़काने का कोई मौका नहीं गंवाया। स्थिति तब तनावपूर्ण हो गई जब अमृतसर में हुई फायरिंग के परिणामस्वरूप पांच यूरोपीय लोगों की मौत हो गयी और कुछ भारतीय छात्रों को पढ़ाने जाते समय शेरवुड नाम की एक महिला को गली में पीटा गया। ऐसा लगता है कि इससे ब्रिटिश सम्मान बुरी तरह आहत हुआ, क्योंकि इसके बाद गांवों में भी पुलिस द्वारा निर्दोष लोगों को क्रूर तरीके से पीटा गया और खुह कोरियन वाली गली (कोड़े मारे जाने वाली सड़क) में रेंगने के आदेश दिए गए।
घटना से ठीक एक दिन पहले ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर को जालंधर से अमृतसर स्थानांतरित किया गया था। आने के बाद उन्होंने सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध लगा दिया।प्रतिबंध की बारे में आम लोगों को जानकारी नहीं मिल पायी। 13 अप्रैल को बैसाखी मनाने के लिए बड़ी संख्या में आस-पास के ग्रामीण इलाकों के किसान पहले ही अमृतसर में जमा हो गए थे। डायर दोपहर में अपने सैनिकों, जिनमें से कोई भी ब्रिटिश नहीं था, के साथ जलियांवाला बाग के मुख्य द्वार पर पहुंचाऔर बिना किसी चेतावनी के उसने गोली चलाने का आदेश दे दिया।मिनटों में 1650 राउंड फायरिंग की गई, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए और घायल हो गए, जो तितर-बितर होने की कोशिश कर रहे थे। सटीक संख्या का कभी पता नहीं चल पाया,क्योंकि आधिकारिक और अनौपचारिक आंकड़ों के बीच एक बड़ा अंतर था। घावों पर नमक छिड़कने के लिए डायर ने आने-जाने पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ कर्फ्यू लगा दिया, ताकि घायलों की देखभाल न हो सके और मृतकों को वहाँ से हटाया न जा सके। डायर द्वारा हत्याकांड की जांच के लिए नियुक्त हंटर कमेटी के सामने दिए गए जवाब न केवल अपराधी की मनःस्थिति को, बल्कि पूरे प्रशासनिक ढांचे के दृष्टिकोण को भी दर्शाते हैं। समिति को यह बताते हुए डायर को खुशी हुई कि उनके कार्य पूरी तरह से सचेत रहते हुए और पूर्व नियोजित रणनीति के परिणाम थे। अगर जगह की बनावट ने उसे रोका नहीं होता, तो वह अधिक लोगों को गोली मारने के लिए बख्तरबंद वाहनों को मशीनगनों के साथ ले जाता। तत्कालीन सरकार द्वारा डायर के खिलाफ की गई एकमात्र कार्रवाई थी - उसे अपने सक्रिय कर्तव्यों से मुक्त करना, जबकि माइकल ओ'डायर और चेम्सफोर्ड पूरी तरह से सभी अपराधों से मुक्त किये गए। अंग्रेजों की नजर में डायर एक नायक था।अंग्रेजों ने द्वारा उसकी बहाली के बहुत प्रयास किये जा रहे थे,लेकिन भारतीय पीड़ा बहुत अधिक थी। अंग्रेज भारतीयों की मनोदशा और दुखद घटना के दूरगामी परिणामों का आकलन करने में विफल रहे। युवा भारतीय, क्रूरता के इन कृत्यों का बदला लेने के लिए तैयार थे। महान क्रांतिकारी उधम सिंह ने 13 मार्च,1940 को लंदन में माइकल ओ'डायर की गोली मारकर हत्या कर दी। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा देशभक्त क्रांतिकारियों को जलियांवाला बाग और उसके बाद की घटनाओं के प्रत्यक्ष परिणाम के तौर पर देखा जा सकता है। हम अपनी स्वतंत्रता के लिए उनके सर्वोच्च बलिदान के प्रति ऋणी हैं। अमृतसर स्थित स्मारक हमेशा एक ऋणी राष्ट्र को, मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालेकी याद दिलाएगा।यह राष्ट्रीय गौरव का एक स्मारक है और स्वतंत्रता के लिए एक प्रेरणा स्रोत है।
अश्विनी अग्रवाल,
पूर्णकालिक सदस्य, राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण
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