दरअसल, जब कोरोना महामारी की दूसरी लहर से दस्तक दी, तो ग्रामीण इसके प्रति लापरवाह थे। उन्हें यह लग रहा था, कि यह शहर के लोगों पर हावी होगा। चूंकि वह प्रकृति के साथ मिलजुल कर रहते हैं, इसलिए यह बीमारी उन्हें नुकसान नहीं पहुंचायेगा। लेकिन इस दौरान पलायन पर जाने वाले लोग गांव वापस आये और साथ में यह बीमारी भी ले आये। फिर तो गांव में डर, भ्रम, बीमारी को छिपाने का जो दौर शुरू हुआ, उससे ग्रामीणों के जान-माल का बहुत नुकसान हुआ। वह इसे दैवीय प्रकोप मान कर पूजा-पाठ, टोने-टोटके इत्यादि पर ज्यादा भरोसा करने लगे। बीमारी को भगाने की जो असली वजह हो सकती है, उस पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। शहरों में लॉकडाउन लगा था और स्वास्थ्य कर्मियों की उन तक पहुंच नहीं थी। ग्रामीणों के साथ स्वास्थ्य कर्मियों का इससे पहले कोई जुड़ाव नहीं था, लिहाजा वह उनकी बातों पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे, उल्टे उनसे उलझ जाते थे। उन्हें देखकर दरवाजा बंद कर लेते थे। ऐसे में नीति आयोग को लगा, कि जो सदियों से ग्रामीणों को स्वावलंबन के लिए काम कर रहे हैं, ऐसे स्वयंसेवी संस्थाओं को जोड़ा जाये, ताकि कोई सकारात्मक परिणाम निकले। इसे ध्यान में रखते हुए नीति आयोग ने एनजीओ और स्वयंसेवी संगठनों को पत्र लिखा और संस्थाओं ने पत्र के अनुपालन में पढ़े-लिखे युवाओं को गांव जाकर वहां के लोगों को समझाने की चुनौती दी। युवा गांव जाकर ग्रामीणों को विश्वास में लेकर इस महामारी को खत्म करने में उनकी मदद करने लगे।
इसी तरह अन्नपूर्णा, नूतन, श्रुति, आमिर खान, बनारसी और प्रीति ने डोडखेड़ा ग्राम पंचायत के आस-पास लगभग दर्जन भर गांवों में मोर्चा संभाला और यहां के करीब एक हजार परिवारों को कोविड के खतरे से आगाह किया और उन्हें टीके के प्रति जागरूक किया। इन लोगों ने यहां लोगों के घरों की दीवारों पर उनकी अनुमति से नारे लिखे। जिसे आते-जाते ग्रामीण पढ़ें और इससे प्रभावित हों। इस संबंध में समाजसेवी रामबाबू कुशवाहा ने कहा, कि हम लोगों ने बैठकर नारे बनाये- "जन-जन की पुकार, टीका ही है कोरोना का सच्चा उपचार," "चलो चलकर टीका लगाये, देश के प्रति फर्ज निभाये" जैसे नारों से इन गांवों के दीवारों को पाट दिया। जब ग्रामीणों से टीके के प्रति भय और भ्रम के बारे में पूछा गया, तो कोलूखेड़ा गांव की प्रीति बाई ने बताया, कि हम लोगों ने सुना था, कि यह जो बीमारी है, यह दैवीय प्रकोप है और टीका लगाने से यह बीमारी खत्म नहीं होगा, बल्कि आदमी खत्म हो जायेगा। वह जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाएगा। अब लग रहा है, यह सब अफवाह था। अगर भईया लोग गांव नहीं आते, तो हम लोग घर में झाड़-फूंक से इसे ठीक करने की कोशिश करते रह जाते और न जाने कितनों की जान इस तरह चली जाती। प्रीति ने कहा, शुरू में गांव के लोग इन्हें देखकर दरवाजा बंद कर देते थे, लेकिन हमारे परिवार के बच्चों ने उनका स्वागत किया, इनसे बात की। जो कुछ भईया लोग कह रहे थे, उसे सुना और हम लोगों को समझाया। जब 18 से अधिक उम्र वालों को टीका लगाना शुरू हुआ, तो सबसे पहले घर के बच्चों ने ही टीका लगवाया। फिर जब हम लोगों ने देखा, कि बच्चे तो स्वस्थ हैं, इनकी तबीयत खराब नहीं हुई, फिर 15 दिन देखने के बाद हम लोगों में हिम्मत बढ़ी। इसमें जितनी भूमिका फाउंडेशन का है, उतना ही हमारे घर के बच्चों का भी है। अगर वह आगे नहीं आते, तो शायद हम लोग कभी भी इन बाहरी युवाओं से घुल-मिल नहीं पाते।
भोपाल, मप्र
(चरखा फीचर)
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