भारत हमेशा टीकों के सबसे बड़े उत्पादक के रूप में जाना जाता रहा है। वैक्सीन (टीके) को विकसित करने के लिए देश को क्या करना पड़ा?
यह एक बहुत ही उल्लेखनीय यात्रा रही है जहां हमने सभी शोधकर्ताओं को शिक्षाविदों, उद्योग और स्टार्ट-अप को एक साथ आते देखा। हमने शिक्षाविदों और उद्योग के बीच सीमाओं को तोड़ते हुए ज्ञान, विचारों, बुनियादी ढांचे को साझा किया और इसका नतीजा अब सबके सामने है। हमने स्वदेशी रूप से कोवैक्सीन को विकसित किया जोकि कोविशील्ड के साथ हमारे टीकाकरण अभियान के संचालन में शामिल रही। हमें दुनिया के पहले डीएनए वैक्सीन के आपातकालीन उपयोग की अनुमति पहले ही मिल चुकी है और जल्द ही हमें बायोलॉजिकल-ई से एक वैक्सीन प्राप्त होने जा रही है। इसके अलावा, एक एमआरएनए वैक्सीन क्लीनिकल ट्रायल के दूसरे चरण में है। हमें भरोसा है कि हम अपने बुनियादी ढांचे और वैज्ञानिक कौशल के साथ हम कोविड-19 के अलावा कई अन्य वैक्सीन भी विकसित कर सकते हैं।
चूंकि कोविड-19 टीके काफी कम समय में विकसित किए गए हैं और उनके आपातकालीन उपयोग की अनुमति (ईयूए) दी जा रही है, आप इनकी सुरक्षा और प्रभावकारिता को लेकर कैसे आश्वस्त है?
असल में हमने परीक्षण में कोई कमी नहीं की है और इन टीकों के दूसरे व तीसरे चरण के परीक्षणों से काफी मात्रा में सुरक्षा डेटा मिला है। वायरस के विभिन्न वैरियंट्स पर वैक्सीन की प्रभावकारिता की जानकारी के लिए टीकाकरण के बाद भी कतिपय अध्ययन जारी है। हमारे पास ऐसा भी डेटा है जिनसे संक्रमण के प्रकार, दोबारा संक्रमण के मामलों आदि के बारे में पता चलता है। इससे हमें विश्वास है कि टीके प्रभावी होने के साथ-साथ सुरक्षित भी हैं। डीबीटी के ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट (टीएसएचटीआई) सहित देश भर के विभिन्न संस्थानों ने टीकों के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने के लिए दीर्घकालिक अध्ययन किए हैं।
देश को टीकों के विकास के चरणों के दौरान किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा और उन चुनौतियों पर कैसे सफलता प्राप्त की?
वैक्सीन का विकास एक जटिल प्रक्रिया है। वैज्ञानिक और तकनीकी मोर्चे पर हमें जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है उनसे हर वैज्ञानिक शोधकर्ता को जूझना पड़ता है। हम एक ही समय में पांच से छह टीके विकसित करने के लिए सोच रहे थे। इसलिए, आरंभ में, हमारे लिए मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त अनुसंधान की सुविधाएं मुहैया कराना एक चुनौती थी। दरअसल, भारत उन देशों में शामिल था जिन्होंने सबसे पहले फरवरी 2020 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की बैठक में अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम जैसे अन्य विकसित देशों के साथ इस बीमारी से लड़ने के लिए अपना रोडमैप तैयार किया था। हमने टीकों को अपनी सबसे बड़ी ताकत के रूप में पहचाना। सरकार ने नए वैक्सीन विकास प्लेटफार्मों के लिए इस उच्च जोखिम वाले इनोवेशन की फंडिंग का समर्थन किया। इस तरह उद्योग को एम-आरएनए और डीएनए टीकों पर काम करने का विश्वास हासिल हुआ। इसके साथ-साथ हमने कमियों की पहचान की। हमें परीक्षण के लिए ज्यादा से ज्यादा पशु सुविधा केंद्रों, प्रतिरक्षा परीक्षण प्रयोगशालाओं, नैदानिक परीक्षण केंद्रों की जरूरत थी और हमने शीघ्र इनकी व्यवस्था की। आज, हमारे पास 54 नैदानिक परीक्षण स्थल और 4 पशु परीक्षण सुविधा केंद्र हैं। हमारे शोधकर्ताओं को अब विदेशी संसाधनों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। अब हमारे पास देश में ही सभी जरूरी संसाधन उपलब्ध हैं। इस प्रकार, यह रणनीतिक रूप से तैयार किया गया एक नियोजित प्रयास रहा है।
अनुसंधान में इतना बड़ा निवेश देश को किस प्रकार मदद पहुंचाएगा?
सरकार ने पहली बार किसी उत्पाद पर इतना शीघ्र ध्यान केंद्रित करते हुए एक मिशन में निवेश किया है। आत्मनिर्भर भारत के तहत शुरू किया गया मिशन कोविड सुरक्षा 900 करोड़ रुपये का था जिससे हमें इतने कम समय में कई टीके विकसित करने में मदद मिली। मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम यह उपलब्धि इसलिए हासिल करने में सक्षम हुए क्योंकि हम विगत कुछ वर्षों से बुनियादी विज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र में निवेश कर रहे हैं। साथ ही, हमने जो क्षमता बनाई है वह हमें तपेदिक, डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया समेत कई और वैक्सीन विकसित करने की दिशा में प्रोत्साहित करेगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोरोना का एक समग्र टीका कोविड-19 के सभी वैरियंट्स के खिलाफ सुरक्षा प्रदान कर सकता है।
-डॉ. रेणु स्वरूप
सचिव, जैव प्रौद्योगिकी विभाग
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