कैथी लिपि का मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बृहत रूप से प्रयोग किया जाता था। विशेषकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं। इसे कयथी या कायस्थी, के नाम से भी जाना जाता है। पूर्ववर्ती उत्तर-पश्चिम प्रांत, मिथिला, बंगाल, उड़ीसा और अवध में इसका प्रयोग खासकर न्यायिक, प्रशासनिक एवं निजी आँकड़ों के संग्रहण में किया जाता था। उल्लेखनीय है कि कैथी एक पुरानी लिपि है, जिसका प्रयोग 16वीं सदी में धड़ल्ले से होता था। मुगल सल्तनत के दौरान इसका प्रयोग काफी व्यापक था। 1880 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इसे प्राचीन बिहार के न्यायलयों में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया था। इसे खगड़िया जिले के न्यायालय में वैधानिक लिपि का दर्ज़ा दिया गया था। यही कारण है कि कैथी लिपि को कभी -कभी बिहार लिपि भी कहा जाता है। अभी भी बिहार समेत देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में इस लिपि में लिखे हजारों अभिलेख हैं। समस्या तब होती है जब इन अभिलेखों से संबंधित कानूनी अडचनें आती हैं। अब इस लिपि के जानकार अब बहुत कम बचे हैं। जो हैं, वे भी काफी उम्र वाले हैं। ऐसे में निकट भविष्य में इस लिपि को जानने वाला शायद कोई न बचेगा और तक इस लिपि में लिखे भू-अभिलेखों का अनुवाद आज की प्रचलित लिपियों में करना कितना कठिन होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी के अंशुमन पांडेय ने कैथी लिपि को इनकोड करने का प्रस्ताव 13 दिसंबर 2007 को दिया था। प्रस्ताव में उन्होंने बताया था कि गवर्नमेंट गजेटियर्स में भी उल्लेख है कि वर्ष 1960 तक कैथी में बिहार के कुछ जिलों में काम किया जाता था। पृथक झारखण्ड प्रदेश बनने के बाद यहाँ के आदिवासी -सदान किसी नेता ने कैथी लिपि के बारे में कभी सोचने की कोशिश नहीं की, वैसे भी आदिवासी तो इसे बाहरियों अर्थात दिक्क करने वाले दिक्कुओं की भाषा मानते है, लेकिन दुखद यह है कि सदान नेता गण भी इसकी आवश्यकता कभी महसूस नहीं कर सके। इनमें से कई तो कैथी की जन्म स्थली के ही पुराने वाशिंदे रहे हैं, लेकिन इन्हें भी कैथी की सुध कभी नहीं आई। बिहार विधानपरिषद में कुछ वर्ष पूर्व डॉ ज्योति के गैर सरकारी संकल्प के जवाब में प्रभारी मंत्री ने सदन को यह आश्वासन दिया था कि कैथी लिपि को संरक्षित करने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए योजना तैयार होगी, लेकिन दुखद यह है कि बिहार में भी इस पर आज तक कुछ न हो सका। भोजपुरी को भी पहले ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न कैथी नामक एक ऐतिहासिक लिपि में लिखा जाता था। देवनागरी लिपि से मिलती -जुलती इस लिपि को कयथी या कायस्थी के नाम से भी जाना जाता है। सोलहवीं सदी में इसका बहुत अधिक उपयोग किया जाता था। मुग़लों के शासन काल के दौरान भी इसका काफी उपयोग किया जाता था। अंग्रेजों ने इस लिपि का आधिकारिक रूप से बिहार के न्यायालयों में उपयोग किया। अंग्रेजों के समय से इसका उपयोग धीरे धीरे कम होने लगा था। बाद में इस लिपि के स्थान में देवनागरी लिपि का उपयोग होने लगा। कैथी लिपि को वर्ष 2009 में मानक 5.2 में शामिल किया गया। कैथी का यूनिकोड में स्थान U+11080 से U+110CF है। इस सीमा में कुछ खाली स्थान भी है जिनके कोड बिन्दु निर्धारित नहीं किए गए हैं। वर्तमान में कई लोग इस लिपि को पढ़ नहीं पाते हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या तब होती है जब किसी पुराने अभिलेख को पढ़ना पड़ता है, क्योंकि अभी भी कई सारे पुराने भू-अभिलेख कैथी लिपि में लिखे गए हैं और किसी भी प्रकार के कानूनी कार्यों में इसे पढ़ने की आवश्यकता पड़ जाती है। लेकिन इस लिपि को अधिक लोग नहीं जानते इसलिए इन कार्यों में बाधा उत्पन्न हो जाती है। भाषा के जानकारों के अनुसार यही स्थिति सभी जगह है, और अन्य कई भाषाओं की है। ऐसे में कैथी लिपि सहित इस जैसी अन्य लिपि के संरक्षण की बहुत जरूरत है।
करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला
पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)
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