कश्मीर की हस्तकला इस प्रदेश के प्राकृतिक सौन्दर्य की भांति ही सुविख्यात है। कश्मीरी नमदे, गलीचे, कालीन, अखरोट की लकड़ी का कम, पेपरमेशी, कटवर्क आदि कश्मीरी हस्तकला के अनुपम नमूने हैं। इनमें कश्मीरी शालें अपनी सुन्दरता, रंगाकर्षण, कढ़ाई आदि के लिये विशेष महत्त्व रखती हैं। कश्मीर शालों का इतिहास काफ़ी पुराना है। ‘शाल’ मूलतः फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है: कोई भी आवरण-वस्त्र। व्यापक अर्थ में शाल से अभिप्राय कन्धों पर ओढ़े जाने वाले ऊनी वस्त्र-विशेष से है। यह ऊन बड़ी ही मुलायम और गर्म होती है। कश्मीर में शालकला के विकास की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। महाभारत में वर्णित है कि जब भगवान श्रीकृष्ण पांडवों का अभिमत लेकर कौरवों के यहां गये तो धृतराष्ट्र ने भगवान को अन्य मूल्यवान वस्तुओं के अतिरिक्त कई शालें, जो एक पर्वतीय प्रदेश में बनी हों, भेंट स्वरुप देना चाही थीं। संभवतः संकेत कश्मीर प्रदेश की ओर था। कश्मीर में शाल-कला की प्राचीनता को स्पष्ट करने वाली एक ऐतिहासिक घटना भी मिलती है। कहा जाता है कि कश्मीर के शासक सुलतान नाजुकशाह के राजत्वकाल में कश्मीर के मिर्जा हैदर का बावर्ची नक्शबेग जब कश्मीर आया तो उसने अपनी योग्यता से कश्मीर के राजनीतिक क्षेत्रों में विशेष ख्याति अर्जित की और बाद में कश्मीर का महामंत्री भी नियुक्त हुआ। बाद में जब वह अपने मालिक हैदरशाह के लिए वह एक भेंट लेकर गया तो इस अनुपम भैंट को देखकर हैदरशाह अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसके यह पूछने पर कि यह क्या चीज है, नक्जबेग ने उत्तर दिया: “हुजूर, इसे शाल कहते है, मैं इसे आपके लिये कश्मीर से बनवाकर लाया हूं। ”
कश्मीर के शाल-उद्योग की परम्परा कश्मीर के प्रसिद्ध सुलतान जैनउलाबद्दीन के राज्य काल से मिलती है। कहा जाता है कि जब तैमूर ने १३६०ई। में भारत पर आक्रमण किया तो उस समय कश्मीर पर सुलतान सिकंदर का राज्य था। सुलतान सिकंदर ने तैमूर को बहुमूल्य वस्तुएँ अर्पित कीं। सुलतान सिकंदर कहीं विश्वासघात न करे, इस आशंका से तैमूर उन बहुमूल्य वस्तुओं के साथ सुलतान के पुत्र जैन-उलाबद्दीन को भी अपने साथ समरकंद ले गया।वहां पर जैन-उलाबद्दीन को नगर में विचरण करने की पूरी स्वतंत्रता दे दी गयी किंतु शहर की परिधियों को वह लाँघ नहीं सकता था-ऐसा बंधन उस पर डाला गया। तैमूर एक कलाप्रेमी शासक था। वह प्रत्येक बार अपने साथ विजित देशों से उच्चकोटि के कलाकारों को समरकंद ले आता और इस तरह से समरकन्द हस्तकला का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया था। जैनउलाबद्दीन को अपने प्रवास-काल के दौरान इन कलाकारों से संपर्क स्थपित करने तथा उनसे कुछ सीखने का सुअवसर मिल गया। तैमूर की मृत्यु के बाद जैन उलाबद्दीन को आजाद कर दिया गया किंतु जैनउलाबद्दीन कुछ समय के लिए समरकंद में और रुका। उसने कई कलाकारों को फुसलाकर उन्हें अपने साथ कश्मीर चलने के लिये राजी कर लिया। अपने उद्देश्य में जैन-उलाबद्दीन सफल हो गया तथा वह अपने साथ कई उच्चकोटि के कलाकारों को समरकंद से कश्मीर लेता आया। इन सभी कलाकारों को राजकीय प्रश्रय मिला तथा इन्हें सभी प्रकार की सुविधाएं देकर कश्मीर में बसाया गया। १८२० ई। में जब जैन- उलाबद्दीन कश्मीर का सुलतान बना तो उसने अरब तथा पर्शिया से भी कुछ कुशल तथा सिद्धहस्त कलाकारों/शाल-बुनकरों को विशेष प्रलोभन देकर कश्मीर बुलवाया। इसी तरह टर्की से भी उच्चकोटि के जुलाहों को मंगवाया तथा इन सभी को आर्थिक तथा अन्य प्रकार की सुविधाएं देकर कश्मीर में बसा दिया गया। जैन-उलाबद्दीन के शासनकाल में कश्मीर का शाल-उद्योग खूब पनपा। कश्मीरी शालें दूर-दूर देशों में जाने लगीं और वहां इनकी लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गयी।
मुगलों के शासन काल में भी कश्मीर के शाल-उद्योग ने पर्याप्त उन्नति की। मुग़ल बादशाह चूंकि स्वयं कला-प्रेमी थे, इसलिये उनहोंने इस उद्योग को विकसित करने में विशेष रुचि ली। विदेशों से अनेक कुशल जुलाहे बुलाये गये तथा इन्हें समुचित प्रोत्साहन देकर कश्मीर में बसाया गया। आईने-अकबरी में अलिखित है कि सम्राट अकबर को कश्मीर शालों से बेहद प्रेम था। उनके पास शालों का यथेष्ट भंडार हर समय मौजूद रहता। अबुल फजल के अनुसार कश्मीर की शाल-कला ने अकबर के समय पर्याप्त उन्नति की थी। ‘रिंग शाल’ जो कश्मीरी शाल का एक विशिष्ट नमूना है, इसी कल में निर्मित हुआ था। रिंगशाल की विशेषता यह है कि वह अंगूठी में से सुगमतापूर्वक निकल सकती है। अफगान शासनकाल में कश्मीरी शाल-उद्योग पर काफ़ी कर लगाये गये किन्तु फिर भी यह उद्योग बराबर उन्नति करता गया। कहा जाता है कि इस उद्योग पर सरकारी कर लगाने से सरकार को प्रतिवर्ष चार लाख रूपये की आय होती थी। इस काल में अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, रूस आदि देशों से कश्मीरी शालों की मांग विशेष रूप से बढ़ गयी थी। इसी काल में कश्मीरी शाल के विभिन्न कलापूर्ण नमूने यथा जामवार, शहतोष आदि विकसित हुए। १८२२ से लेकर १८३३ ई। तक कश्मीर में भयंकर अकाल पड़ा जिसके परिणामस्वरुप कश्मीर के शाल-उद्योग को भारी क्षति पहुँची। बहुत से जुलाहे घाटी छोड़कर जीविकोपार्जन के लिये पंजाब के विभिन्न नगरों यथा: लुधियाना, अम्बाला, अमृतसर, जालन्धर आदि में जाकर बस गये। डोगरा शासकों के राजत्वकाल में इस उद्योग को पुनः सद्गति प्राप्त हुई। महाराजा गुलाबसिंह के समय में वे सभी जुलाहे जो अकाल के समय कश्मीर छोड़कर चले गए थे, वापस कश्मीर लौट आये। उन्हें पुनः राजकीय प्रश्रय मिला तथा वे इस उद्योग की तन-मन से सेवा करने लगे। कहा जाता है कि महाराज गुलाबसिंह के शासनकाल में लगभग २६००० जुलाहे १२००० हथकरघों पर कार्य करते थे। आगे चलकर महाराजा प्रतापसिंह के समय में इन जुलाहों की संख्या ८१४६६ तक पहुँच गई थी। राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद इस समय कश्मीर का शाल-उद्योग उतरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। कश्मीरी शालें देश के अनेक प्रान्तों में जाती हैं तथा विदेशों में भी पर्याप्त मात्रा में बिकती हैं। सर्दियों में कश्मीर के शाल बेचने वाले अनेक कश्मीरी युवक देश के कई स्थानों में जाकर शाल बेचते हैं।
यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना अनुचित न होगा कि कश्मीरी शालों की एक नायाब और बहुमूल्य किस्म है पशमीना शाल। पश्मीना नाम भी फारसी शब्द “पश्म” से लिया गया है, जिसका अर्थ है रीतिबद्ध तरीके से ऊन की बुनाई। पशमीना बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ऊन हिमालय के अधिकतम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पायी जाने वाली कश्मीरी बकरी की एक विशेष नस्ल से प्राप्त होती है। जैसा कि कहा जा चुका है कश्मीर के 15 वीं शताब्दी के शासक जैन-उल-आबदीन को कश्मीर में ऊन उद्योग का संस्थापक कहा जाता है। पहले के समय में पशमीना शालें केवल राजाओं और रानियों द्वारा ही पहनी जाती थीं और इस प्रकार इन्हें शाही महत्व का प्रतीक माना जाता था। एक अच्छी पश्मीना शॉल की कताई, बुनाई और कढ़ाई के लिए खूब परिश्रम करना पड़ता है। अन्य शालों के मुकाबले में यह शाल महंगी भी बहुत होती है। कश्मीर की पश्मीना-शाल कश्मीर की शान है। मगर समय के साथ-साथ पशमीना शालों की ऊन में मिलावट भी होने लगी है। हालांकि ज्यादातर शाल-उद्योग वास्तविक पश्मीना-शाल का निर्माण ही कर रहे हैं, परन्तु कुछ उद्योग ऐसे हैं जो नकली उत्पाद बनाकर पश्मीना के नाम पर बेच रहे हैं। असली पश्मीना की विशेषता यह है कि असली पशमीना बेहद मुलायम और वजन में हल्का होता है। वास्तविक पश्मीना के ऊन के रेशों को जलाने पर बालों के जलने जैसे गंध आती है। असली पशमीना की बड़ी-सी शॉल को अंगूठी के अंदर से बाहर निकाला जा सकता है। अन्य शालों कि तुलना में पशमीना शालों की कीमत ज्यादा होती है। बेटियों की शादी में दहेज में पशमीना शाल या साड़ी को देना बड़े गर्व अथवा रुतबे की बात समझी जाती है।
(डा० शिबन कृष्ण रैणा)
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