कश्यप बन्धु का वास्तविक नाम ताराचंद बठ था। वे गीरु (नूरपोरा)/कश्मीर में ठाकुर बठ के घर 24 मार्च, 1899 को पैदा हुए। यह वह समय था जब कश्मीर पर महाराजा प्रतापसिंह की हुकूमत का आखिरी दौर चल रहा था। ताराचंद कश्यप बन्धु कैसे कहलाए? यह घटना जितनी ऐतिहासिक है उतनी ही महत्त्वपूर्ण भी। ताराचंद का प्रांरभिक जीवन अत्यन्त गरीबी में बीता। 1919 में बड़ी मुश्किल से आर्थिक विषमताओं के बावजूद उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली और नौकरी की तलाश शुरू की। इस बीच वे ‘बुलबल’ उपनाम से कविता भी करने लगे। अपने दिल का दर्द, ग़़म और गुस्सा तथा सामाजिक बदलाव की भावनाओं को वे कविता में कहने लगे। काफी प्रयत्नों के बाद उन्हें राजस्व विभाग में एक छोटी-मोटी नौकरी भी मिल गई जो उन्हें रास न आई। कश्मीर छोड़कर वे लाहौर चले गये और लाहौर को उन्होंने अपना कर्मस्थल बनाया। लाहौर उन दिनों आर्य समाज, ब्रह्मसमाज तथा अन्य राजनीतिक एवं धार्मिक आंदोलनों का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। ताराचंद को आर्यसमाज की विचारधारा ने बेहद प्रभावित किया और उन्होंने लाहौर में स्थित विरजानंद आश्रम में प्रवेश ले लिया। प्रवेश के दिन से ही उन्होंने मांस न खाने की शपथ ले ली और जीवन भर शाकाहारी बने रहे। उन दिनों विरजानंद आश्रम के प्राचार्य विश्वबन्धु जी हुआ करते थे। वे ताराचंद की योग्यता, लगन, परिश्रम एंव मानवप्रेम की भावनाओं को देख बहुत प्रभवित हुए और उन्हीं ने ताराचंद ‘बुलबुल’ को ‘कश्यप बन्धु’ नाम दिया और कश्मीरी समाज की सेवा करने की प्रेरणा दी। कश्मीरी के प्रसिद्ध विद्वान् एवं कवि अर्जुन देव मजबूर की कश्यप बन्धु जी से खासी निकटता रही है। अपने एक लेख में श्री मजबूर ने कश्यप बन्धु के व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध में बड़ी ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी हैं। वे लिखते हैं - कश्मीरी समाज में व्याप्त बुरे रीति-रिवाजों के खिलाफ़ कश्यप बन्धु ने सोशल रिर्फाम की ज़़बरदस्त तहरीक़ शुरू की। विधवा-विवाह पर रोक, सामाजिक रीति-रिवाजों खास तौर पर विवाह आदि अवसरों पर फिज़ूलखर्ची आदि के विरुद्ध कश्यप बन्धु ने ‘मार्तंड’ और ‘केसरी’ अखबारों में लेख लिखकर इन सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई। चुनांचे उस ज़माने में सोशल रिफार्म के हक़ में लिखे गए कश्मीरी गीत (वनवुन) आज तक कश्मीरी महिलाओं को याद हैं। कुछ पंक्तयाँ देखिएः-
“त्रावि जू़ज, पूच़ नेरि वोडननिए
छु मुबारक दोति माहरेनिये...
छ़अनी सूठ बूठ, पकी बअन्य बअन्ये
छू मुबारक दोति महारेनिये....”
(पुराना पहनावा छोड दे, उघडे सिर चलना
अब तू सीख ले,
धोती (साडी) वाली दुल्हिन री, तुझे हो मुबारिक!
सूट-बूट पहन ले तू अब
पुराना परिधान त्याग दे,
आगे बढ़ना सीख तू
धोती (साड़ी) वाली दुल्हिन री,तुझे हो मुबारक!)
कश्यप बन्धु के इस सुधारवादी आंदोलन का तत्कालीन जनता ने ख़ूब स्वागत किया। विधवाओं की शादियाँ हुईं। कश्मीरी पंडित लड़कियाँ घर की चार-दीवारियों से निकलकर स्कूल-कालेज जाने लगीं, सामाजिक रीतियों एवं प्रथाओं पर अपव्यय करने की प्रवृत्ति पर रोक लग गई आदि। ‘सोशल रिफार्म’ के नारे घर-घर गूंजने लगे और इस तरह कश्मीरी समाज बदलवा की ओर अग्रसर हुआ।
समय के साथ-साथ कश्यप बन्धु के बहुमुखी व्यक्तित्व ने एक नई करवट ली। अर्जुनदेव मजबूर अपने लेख में लिखते हैं ‘‘बीसवीं शती का तीसरा दशक कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में विशेष महत्व रखता है। कश्मीर में एक तरफ मुस्लिम कांग्रेस की बुनियाद पड़ी और दूसरी तरफ यहाँ के कश्मीरी पंडितों ने सरकारी नौकरियों में भेदभाव तथा अन्य सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध लड़ने का बीड़ा उठाया। कश्यप बन्धु कश्मीर के हालात पर नज़र रखे हुए थे। चुनांचे प्रेमनाथ बज़ाज, शिवनारायण फोतेदार, जियालाल किलम, दामोदर भठ (हांजूरा) आदि कश्मीरी पंडित नेताओं ने कश्यप बन्धु को लाहौर से श्रीनगर आने का अनुरोध किया। कश्मीर आने से पूर्व कश्यप बन्धु की शादी एडवोकेट विष्णुदत्त की बेटी बिमला से लाहौर में ही आर्यसमाजी ढंग से बिल्कुल सादे तरीके से हो गई थी। कश्यप बन्धु के श्रीनगर लौटने पर ‘युवक सभा’ का गठन हुआ और सभा की गतिविधियों में कश्मीरी -पंडित नौजवानों से बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू किया। शीतलनाथ, श्रीनगर इस सभा की गतिविधियों का केन्द्र बना। यह स्थान पहले जोगीबाग कहलाता था क्योंकि यहाँ पर बाहर से आने वाले जोगी, संन्यासी आदि ठहरते थे। अमरनाथ-यात्रा पर रवाना होने वाली ‘छड़ी मुबारिक’ भी पहले इसी जगह से रवाना होती थी।--- 1931 में कश्यप बन्धु कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक आकाश में पूरी चमक-दमक के साथ भास्वरित हो गए। पहली फरवरी, 1931 को ‘मार्तड’ शीर्षक से एक अख़़बार प्रकाशित हुआ जो युवकसभा का मुखपत्र था और इसके प्रथम संपादक होने का श्रेय कश्यप बन्धु को मिला।यह अख़बार पूरे उत्तरी भारत में बड़़ा ही लोकप्रिय हुआ। 1931 से लेकर 1969 तक यह अखबार बराबर प्रकाशित होता रहा। कश्यप बन्धु के सतत प्रयासों से इस अखबार ने कश्मीर के पत्रकारिता के इतिहास में नया कीर्तिमान स्थापित किया। कश्यप बन्धु के संपादकत्व में जो कश्मीरी लेखक ‘मार्तंड’ में बराबर छपते रहे, उनमें प्रमुख हैं- प्रेमनाथ परदेसी, मास्टर जिन्दा कौल, दीनानाथ नादिम, हज़रत महजूर कश्मीरी, अर्जुनदेव मजबूर, श्यामलाल वली, तीर्थ कश्मीरी, प्रो0 नंदलाल कौल तालिब, दीनानाथ अलमस्त कश्मीरी आदि।
अत्याचार के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने वाले कश्यप बन्धु कई बार जेल गए। पूर्व में कहा जा चुका है कि सांडर्स हत्या केस के सिलसिले में वे लाहौर में गिरफ्तार हुए और बाद में छोड़़ दिए गए। इसी प्रकार रोटी एजिटेशन के सिलसिले में 1933-34 में जेल भेज दिए गय और बाद में छोड़ दिए गए। 1932 में कश्यप बन्धु शेख साहब से, जो उन दिनों जम्मू व कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेस के अध्यक्ष थे, मिले। इस मुलाक़ात का उद्देश्य हिन्दुओं और मुस्लमानों का एक संयुक्त मंच तैयार करना था ताकि सभी समस्याओं का हल निकालने के लिए एक ज़ोरदार आंदोलन चलाया जाए तथा एक उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार का गठन करने हेतु प्रक्रिया शुरू की जाए। अगस्त 1938 में ‘नेशनल डिमांड’ (कौमी मांग) का प्रवर्तन हुआ।....। युवक सभा के स्टेज पर बन्धु जी ने जब यह कहा कि हरिसिंह को अपनी फ़ौज जमा करने में एक दिन लगेगा तो मुझे अपनी फ़ौज इकट्ठा करने में घंटा-भर ही लगेगा, तो अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अर्जुनदेव मजबूर के शब्दों में- ‘‘नेशनल डिमाण्ड’ ने फौरन एक ज़ोरदार तहरीक का रूप अखि़्तयार कर लिया। मैं खु़द उन दिनों श्रीनगर में ज़ेर-तालीम था। मुजाहिद मंजिल से लेकर अमीरा कदल तक जाने वाले जुलूस को मैं ने अपनी आँखों से देखा। इसमें सभी फि़रकों के लोग शामिल हुए थे और सभी का एक ही नारा था- ‘जि़म्मादाराना हकूमत जिन्दाबाद!’ लोग झूम-झूम कर बिस्मिल का यह शेर गाते जा रहे थे- ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है-‘-। इस तहरीक के सिलसिले में शेख़ साहब, मौलाना मसूदी, मिर्जा अफ़ज़ल बेग, बख़्शी गुलाम मुहम्मद, कश्यप बन्धु, जियालाल किलम, प्रेमनाथ बज़ाज़, शम्भुनाथ पेंशन और सरदार बुद्धसिंह को हिरासत में लिया गया--- सन् 1946 में ‘कुइट कश्मीर’ का नारा बुलंद हुआ और यह नारा एक ज़बर्दस्त तहरीक की वजह बना। कई रहन्नुमा गिरफ़्तार हए...। कश्यप बन्धु ने भी कई तकरीरें की़ और उन्हें गिरफ़्तार करके कठुआ की जेल में नज़रबन्द किया गया। 1947 में गाँधी जी और दूसरे कौमी लीडरों के दबाव की वजह से शेख साहब और बन्धु जी के अलावा दूसरे रहन्नुमाओं को भी रिहा कर दिया गया। कश्यप बन्धु 1931 से लेकर 1961 तक आठ साल तक कैद में रहे। शेख साहब के साथ वे भद्रवाह, रियासी और उधमपुर की जेलों में नज़रबंद रहे।
1947 में जब शेख मुहम्मद अब्दुल्ला प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो कश्यप बन्धु को ‘देहात सुधार’ का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया। 9 अगस्त, 1953 में बन्धु जी शेख साहब के साथ गिरफ्तार कर लिये गये। बाद में बख़्शी साहब ने उन्हें अपने ग्रुप के साथ मिलाना चाहा किन्तु उन्होंने उनकी सारी पेशकशें ठुकरा दीं। 1964 में सादिक साहब की सरकार में वे सोनावारी ब्लाक के प्रोजेक्टर आफिसर बनाए गए। 1974 में जब शेख साहब दुबारा सत्ता में आए और कश्यप बन्धु को हाथ बंटाने को कहा तो बन्धु जी ने कहा कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। जीवन के आखिरी दिन कश्यप बन्धु ने अपने घर (गीरु) में ही बिताए जहां वे अक्सर किताबों का अध्ययन करते या फिर कुछ लिखते रहते। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि जो भी उन्हें पत्र लिखता, उसका वे जवाब ज़रूर देते। श्रीनगर अब वे बहुत कम जाते। उनसे मिलने उनके मित्र और आम जन उनके घर पर ही आते। शेख़ साहब, उनकी बेगम, डा० फारूक अब्दुल्ला, गुलाम मोहम्मद शाह, मिर्ज़ा अफ़जल बेग आदि उनसे मिलने उनके घर कई बार गए। कश्यप बन्धु सबसे बडी आत्मीयता से मिलते। महापुरुष जब इस दुनिया को अलविदा कहने वाले होते हैं तो प्रकृति भी उनके अभाव की पीड़़ा को भाँप जाती है। 18 दिसम्बर, 1985 को कश्यप बन्धु रोज़ की तरह अपने लिखने-पढ़ने के कार्य में व्यस्त थे। तभी एक व्यक्ति ने आकर सूचना दी कि गायें आज घास नहीं खा रहीं हैं, जाने उन्हें क्या हो गया हे ? इस पर बन्धु जी ने जवाब दिया- वे आज घास नहीं खाएंगी। सम्भवतः कहना वे यह छह रहे थे कि आज उनका मालिक आखि़री सफ़र पर रवाना होने वाले है और इसी रोज़ शाम के करीब आठ बजे कश्यप बन्धु की आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। कश्यप बन्धु कश्मीर की सांझी संस्कृति के अग्रदूत, प्रगतिशील विचारों के पक्षधर तथा कश्मीरी पंडित-समुदाय के ऐसे जननायक थे जिनके जीवन की एक-एक घटना अपने आप में एक इतिहास है, एक दस्तावेज़़ है।
--डा० शिबन कृष्ण रैणा--
पूर्व सदस्य,हिंदी सलाहकार समिति,विधि एवं न्याय मंत्रालय,भारत सरकार।
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