लेकिन सच यह भी है कि-
० कुष्ठ रोग को हमारे देश से जड़ से खत्म किया जाना अभी बाकी है।
० आज भी दुनिया के कुल 57% नए प्रकरण हमारे देश में डायग्नोज़ किए जाते हैं।
० कुष्ठ से संबंधित डिसएबिलिटी के सबसे ज़्यादा मरीज़ हमारे देश में ही हैं, जो कि समय पर पहचान एवं उपचार शुरू ना होने का परिचायक है।
० उपचार नहीं किए गए मरीज़ ही स्वस्थ व्यक्तियों में संक्रमण का कारण बनते हैं। और,
० विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुष्ठ रोग को “नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिज़ीज़” (एन.टी.डी.) की सूची में शुमार किया हुआ है, क्योंकि यह ग्लोबल हैल्थ एजेंडा में शामिल नहीं है।
बहरहाल, हमारे देश में कुष्ठ रोगियों के उपचार एवं पुनर्वास पर काम करने वाली कई हस्तियां एवं संगठन हैं। इनमें से कुछ को पर्याप्त पहचान का मौका मिला होगा, कुछ को नहीं। 1926 में जन्मे डॉ. कोथापल्ले वेदांथा देसीकन ऐसी ही एक विलक्षण प्रतिभा हैं। डॉ. देसीकन का डॉक्टर बनकर कुष्ठ रोगियों के लिए काम करने का संकल्प और गांधीवादी विचारधारा का संगम उन्हे पचास के दशक में सेवाग्राम ले आया। गांधी मेमोरियल लेप्रोसी फाउंडेशन के माध्यम से डॉ. देसीकन ने अपनी टीम के साथ सेवाग्राम के 35 गांवों में, 3 क्लिनिक चलाकर और घर-घर दस्तक देकर 30,000 व्यक्तियों का परीक्षण किया और 550 कुष्ठ रोगियों को खोज निकाला। इस समय तक डेप्सान गोली इजाद हो चुकी थी और डॉ. देसीकन द्वारा अपनाई जा रही रणनीति सर्वे, एजुकेट एंड ट्रीटमेंट अर्थात् 'सेट', कुष्ठ रोगियों की पहचान और प्रबंधन में बहुत कामयाब हो चुकी थी। यह स्पष्ट था कि “सेट” वैज्ञानिक, व्यवहारिक और कुष्ठ नियंत्रण के लिए अत्यंत प्रभावी रणनीति थी। नतीजतन, भारत सरकार ने वर्ष 1955 में इसी रणनीति के तहत ‘नेशनल लेप्रोसी कंट्रोल प्रोग्राम’ की शुरुआत की। और बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस रणनीति का समर्थन किया। सन् 1983 में मल्टी ड्रग थैरेपी के प्रारंभ होने के साथ कुष्ठ रोग को जड़ से खत्म करने के उद्देश्य से ‘नेशनल लेप्रोसी इरेडिकेशन प्रोग्राम’ की शुरुआत हुई। आज इस कार्यक्रम के लक्ष्य निम्नानुसार हैं-
० सब नेशनल और डिस्ट्रिक्ट स्तर तक प्रिवलेंस दर को 1/10,000 आबादी से कम पर लाना
० राष्ट्रीय स्तर पर नए मरीज़ों में ग्रेड-2 डिसएबिलिटी प्रतिशत को शून्य तक लाना / राष्ट्रीय स्तर पर प्रति दस लाख की आबादी पर ग्रेड-2 डिसेबिलिटी को शून्य तक लाना।
० जन्म से 14 साल तक के बच्चों में डिसएबिलिटी को शून्य तक लाना और
० लांछन (स्टिगमा) और भेदभाव (डिस्क्रिमिनेशन) को पूरी तरह समाप्त करना।
जहां तक कार्यक्रम के लक्ष्यों का प्रश्न है, वे निर्विवाद हैं, महत्वाकांक्षी हैं। ज़रूरत सिर्फ़ यह जानने की है कि इसे किस अंदाज़ में अंजाम दिया जाए? और समाधान के रूप में हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी की सोच के अनुरूप देश भर में स्थापित किए जा रहे 'आयुष्मान भारत हैल्थ एंड वैलनेस सेंटर' और उनमें पदस्थ प्राइमरी हैल्थकेयर टीम एक बड़ी उम्मीद जगाते हैं और इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। समुदाय और स्वास्थ्य तंत्र के बीच समन्वय के लिए मज़बूत कड़ी के रूप में स्थापित "आशा" कार्यकर्ताओं ने प्राइमरी हैल्थ केयर टीम के सदस्य के रूप में घर-घर जाकर सर्वे कार्य प्रारंभ कर दिया है। कुष्ठ रोग के संभावित लक्षणों से संबंधित प्रश्न ‘कम्युनिटी बेस्ड असेसमेंट चेकलिस्ट’- सीबैक फॉर्म में शुमार किए जा चुके हैं। अब ज़रूरत हमारे प्रधानमंत्री जी की भारत में यूनिवर्सल हैल्थ केयर सुनिश्चित करने की सोच से निर्मित आयुष्मान भारत हैल्थ एंड वैलनेस सेंटर्स को कुष्ठ रोग के प्रबंधन की दृष्टि से मज़बूत किए जाने की है, ताकि आशा कार्यकर्ताओं द्वारा ज़मीनी स्तर पर किया जा रहा कार्य व्यर्थ ना जाए। टेली-मेडिसिन के अंतर्गत की गई पहल ‘ई-संजीवनी’ का विस्तार पहचाने गए कुष्ठ रोगियों के फॉलोअप करने एवं दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है। कुष्ठ रोग को जड़ से ख़त्म करने के लिए सेकेंडरी और टर्शिअरी हैल्थ केयर सिस्टम के साथ मज़बूत रेफरल लिंकेजिस भी स्थापित करनी होगी, ताकि डिसेबिलिटी को कम किया जा सके। और अन्ततोगत्वा कार्यक्रम के सफल परिणामों के लिए कुष्ठ रोगियों द्वारा इलाज का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए निरंतर पर्यवेक्षण भी ज़रूरी होगा। महात्मा गांधी को बहुत अफसोस था कि वो अपने जीवनकाल में कुष्ठ रोग को खत्म नहीं कर पाए। मुझे विश्वास है कि ऐसी ही हसरत डॉ. देसीकन को भी है। और सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल 3.3 भी “नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिज़ीसेस” को वर्ष 2030 तक खत्म करने की सोच रखता है। "टीम हैल्थ इंडिया" की काबिलियत और हमारे देश के पब्लिक हैल्थ प्रोग्राम की विश्वसनीयता को देखते हुए मेरा विश्वास है, एक राष्ट्र के रूप में हम इन अधूरे सपनों को ज़रूर पूरा कर पाएंगे।
- डॉ. मनोहर अगनानी -
अपर सचिव
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