बबितियां की कहानी दादी ( प्रेमलता मिश्र 'प्रेम' ) की कहानी है जिन्हे एक ही चिंता है की बिन मां बाप की उसकी पोती "बबितिया" (जो मैट्रिक पास कर चुकी है) की विवाह कब हो ...जिसके लिए दादी कई लोगों से गुजारिश करती रहती है। बबितिया अपने सीमित संसाधनों के बीच खुश है लेकिन वो पढ़ना चाहती है और कुछ बनना चाहती है जिसमे सहायक बनाता हां निशांत ( अनिल मिश्र ) नामक कवि जो घर से सुखी संपन्न है और कविता लिखने में मगन रहता है। बबितिया के ख्वाबों को पंख तब लगता जब उसके चाचा उसे एक एंड्रॉयड मोबाइल गिफ्ट करते हैं और उसी समय उसे एक युवक बलान ( हीरो ) जो पटना में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियर रहता है और निशांत का संबंधी भी है, से मुलाकात होती है जो उसे मोबाइल से पढ़ाई करने के लिए प्रेरित करता है और साथ ही बबितिया को विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में फार्म भरने से लेकर परीक्षा देने तक में मदद करता है। फिर बबितिया कैसे अपने सीमित संसाधनों के बीच गांव वालो की ताना आलोचना सुनते हुए संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ती है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है। सुनील कुमार झा का निर्देशन बहुत ही अच्छा है। फिल्म कहीं पर भी खींचती, बोझ बनती या बहुत सीरियस होती नजर नहीं आती। फिल्म की शुरुआत हास्य के बीच बहुत ही रूमानी और साहित्यिक अंदाज में होता है जो शायद निर्देशक के खुद भी साहित्यकार होने के कारण भी लग रहा है। हर पंद्रह बीस मिनट में कोई न कोई हंसी ठहाके वाला सीन ज़रूर मिलता जो बिल्कुल है फिल्म के संवाद में किसी खास मानक का ध्यान नहीं रखा गया है और उसे सर्वहारा वर्ग का भी बोली कह सकते है। हालांकि ऐसा एक भी संवाद नही है की जिससे याद रखा जा सके।
- "बबितिया" मैथिली फिल्म दूसरे सप्ताह में प्रवेश कर गया । किसी भी की सफलता का आकलन इससे भी आंका जाता है कि फिल्म कितने सप्ताह चली ...
एक्टिंग में अपने हिसाब से सभी में अच्छा दिया है। सारी फिल्म प्रेमलता मिश्र के कंधों पर है और उन्होंने निराश होने का कोई मौका नहीं दी है। अपने इंप्रोवाईजेसन से वो यहां भी नहीं चुकी है साथ ही डायलॉग्स डेलिवरी शानदार है। साक्षी गांव के अल्हड़ कन्या के रूप में अच्छी लगी है संवाद कहने का अंदाज बिल्कुल अलग है हालांकि कहीं कही संवाद और फेस एक्सप्रेशन दोनो बिल्कुल अलग दिखती है जिस पर उसे मेहनत करने की जरूरत है। नायक और सहनायक के साथ उनकी केमेस्ट्री नेचुरल लगी है। साक्षी के छोटे छोटे मोंटाजेज यादगार बन पड़े है। स्टोरी उसी के द्वारा आगे भी बढ़ती है। नायक की ये पहली फिल्म है । एक इंजीनियर और मासूम प्रेमी के रूप में अद्भुत काम किया है। और दोनो के बीच गजब का बैलेंस भी बनाया हैं। एक एक्टर के रूप में बहुत सारी संभावनाएं है नायक में। फिल्म के अंत तक अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब हुआ है नायक अनिल मिश्र अपने काम को बखूबी अंजाम दिए है। और सब कलाकार अपने अपने जगह बखूबी मेहनत किए हैं। फिल्म का संगीत कर्णप्रिय है।पं उदय शंकर मिश्र जी संगीतकार धुन बहुत अच्छे बनाते है। किसी घराने के संगीतकारों की ये खासियत हमेशा से रही है। गीत के बोल अच्छे है अजीत आजाद की मेहनत दिखती है। गीत दर्शकों को गुनगुनाने के लिए ज़रूर मजबूर करेगा।
कुल मिलाकर "बबितिया " एक ऐसी फिल्म है जो मैथिलों के धी बेटी की सच सामने लाती है। गांव के लोग आज भी बेफजूल के आलोचनाओं से कितने ही लोगों की जिंदगी नर्क बना रखी है। जिसमे सभी उम्र के लोगों का योगदान हैं। मैथिली समारोह का सच जिस अंदाज से कहा गया है वो कबीले तारीफ हैं। कुल ढाई घंटे की ये फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए। इस तरह की और फिल्मे बननी भी चाहिए जिसे लोग पूरे परिवार के साथ बैठकर देख सके। बबितिया जैसी फिल्म एक उदाहरण मात्र है कि कैसे एक अकेली लड़की गांव में रहते हुए समाज से संघर्ष करती हुई अपने लक्ष्य को प्राप्त करती जिसका फायदा आनेवाली पीढ़ी तक प्राप्त करता है। पढ़ने की सीखने की कोई उम्र नहीं होती है और तना और आलोचना करने की भी कोई उम्र नहीं होती है। मैथिल समाज को दोनो के बीच का अंतर समझाना जरूरी है। बबितिया कैरेक्टर हमे ये भी सिखाती है कि गांव में रहकर पढ़ाई करना थोड़ी दिक्कत ज़रूर है लेकिन अपने बुद्धि विवेक के बल पर अपने लक्ष्य को हासिल करना असंभव नहीं है।
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