- · पटना में हुई युवा कथाकार प्रवीण कुमार के पहले उपन्यास 'अमर देसवा' पर परिचर्चा
- · कोरोना काल में भारतीय जनजीवन की अकल्पनीय त्रासदियों को पेश करता है अमर देसवा उपन्यास।
पटना : चर्चित युवा उपन्यासकार प्रवीण कुमार ने कहा है कि राष्ट्र केवल चंद प्रतीकों तक सीमित नहीं हो सकता, वह देश की धूल- मिट्टी में भी उतना ही है जितना हिमालय और हिन्द महासागर में। राष्ट्र सिर्फ संपन्न और शक्तिशाली लोगों से तय नहीं किया जा सकता, वह समाज के सबसे साधारण आदमी का भी उतना ही है। अगर ऐसा नहीं है तो होना चाहिए। प्रवीण हाल में प्रकाशित अपने पहले उपन्यास 'अमर देसवा' के संदर्भ में बोल रहे थे। राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास को लेकर राजकमल प्रकाशन में शुक्रवार को आयोजित 'लेखक से मिलिए' कार्यक्रम में उन्होंने बताया कि ‘अमर देसवा’ कोरोना में आम आदमी की बेबसी, दर्द और अकेलेपन के बीच सुलगते आक्रोश को आकार देता है। साथ ही यह किताब एक उम्मीद भी देती है कि त्रासदी चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हो, मनुष्यता से भरी उम्मीद के सहारे ही हम नागरिक की अवधारणा को बचाए रख पाएंगे। उन्होंने इस कार्यक्रम में सुपरिचित संस्कृतिकर्मी-पत्रकार आज अनीश अंकुर ने बातचीत की। साथ ही श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिये। अपने पहले उपन्यास के बारे में अनीश के सवाल पर प्रवीण ने कहा, इस बातचीत में लेखक प्रवीण कुमार ने कहा, मैंने अपने इस उपन्यास में आम भारतीय जनजीवन की मौजूदा त्रासदी को और व्यवस्था की सवेदनहीनता को रेखांकित करने का प्रयास किया है। मैंने किसी विचारधारा के एंगल से नहीं, नागरिकता के एंगल से यह उपन्यास लिखा है। उन्होंने कहा, मैं हमेशा से मानता हूँ कि एक राष्ट्र केवल हिमालय से, हिंद महासागर से तय नहीं होता है। वह गाँव में, कस्बों में, गली मोहल्ले में, धूल में, पगडंडियों में उतना ही है जिसका नोटिस केंद्र नहीं ले रहा है।
प्रवीण ने कहा, मैंने अपने उपन्यास में यह दिखाया है कि किसी आपदा के समय अगर व्यवस्था संवेदनहीन हो जाए तो नागरिक कितने असहाय और असुरक्षित हो सकते हैं। यह राष्ट्र के भीतर नागरिकों की अवहेलना की कथा है। उपन्यास लिखने का ख्याल कैसे आया, आप तो अबतक कहानी लिखते रहे हैं। इस सवाल के जवाब में प्रवीण ने कहा, कोरोना महामारी ने पूरी मनुष्यता को झकझोर कर रख दिया है। मैंने कोरोना काल में जो कुछ अपने आस पास देखा, महसूस किया उस पर कहानी लिखने की सोची थी, एक बड़ी कहानी, लेकिन लिखने बैठा तो उपन्यास बन गया। अमर देसवा किन परिस्थितियों की चर्चा करता है? इसका जवाब देते हुए उपन्यासकार ने बताया, मैंने अस्पतालों में हर दस मिनट में चूड़ियों को टूटना सुना है, चीख-पुकार सुनी है। लाशें देखी हैं। यह एक भयानक अनुभव था मेरे लिए। कोरोना में हर आदमी वहीं समर्पण कर रहा है जिससे वह नफरत करता है। बहुत नजदीक से मैंने इस यथार्थ को भोगा है। इन सबके बीच व्यवस्था का चरमराना मेरे सामने था। इस देश में लोकतंत्र मसाले वाले घोड़े पर लादकर आया है। इस लोकतंत्र को संभालने की जिम्मेदारी जिस पर है उसने मुँह मोड़ लिया। राजकमल प्रकाशन समूह की तरफ से आयोजित इस बातचीत में प्रसिद्ध कथाकार अवधेश प्रीत, पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष तरुण कुमार, राजकमल प्रकाशन के वेदप्रकाश,सामाजिक कार्यकर्ता सुनील, पुष्पेंद्र शुक्ल, सैफ, भावना शेखर, बी ए विश्वकर्मा आदि अनेक साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और साहित्यप्रेमी शामिल हुए। गौरतलब है कि प्रवीण कुमार कहानी लेखन में नई कथा-भाषा और नई प्रविधियों के प्रयोग के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। बिहार के भोजपुर जिले में जन्मे और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर प्रवीण के दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी ‘छबीला रंगबाज़ का शहर’ और ‘वास्को डी गामा’ की साइकिल' कहानियाँ बहुत चर्चित हुई हैं। अमर देसवा उनका पहला उपन्यास है।
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