सवाल ये है कि क्या किसी को राजनीतिक दल यूं ही इतना सम्मानित किया करते हैं?
लता के आदर्श राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रेरणा पुरुष विनायक दामोदर सावरकर थे। वे सावरकर की प्रशंसा का कोई भी मौका नहीं छोड़ती थीं। वे हर वर्ष सावरकर जयंती पर ट्वीट कर उन्हें अपने पिता समान और भारत माता का सच्चा सपूत बताया करती थीं। सावरकर की ही भांति लता की निजी आस्था न तो स्त्री की आजादी में थी, न ही उन्हें भारत की धर्मनिरपेक्षता से लगाव था। हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अशरफ़ अज़ीज़ के लेख “द फिमेल वोआइस ऑफ हिंदुस्तानी फिल्म सांग्स” में लता के अवदान की विस्तृत चर्चा है। इस सुचिंतत लेख में अशरफ़ अज़ीज़ की भी स्थापना है कि “लता मंगेशकर की आवाज ने औरतों को आज्ञाकारी और घरेलू बनाने में भरपूर मदद की।” वे भारत की धर्मनिरपेक्षता पर आघात करने वाली सबसे बड़ी घटना, बाबरी मस्जिद के विध्वंस से प्रसन्न थीं। 5 अगस्त, 2020 को जब कोविड महामारी के दौरान भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री ने तोड़ी गई मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर की आधारशिला रखी तो लता जी ने ट्वीट किया था कि "कई राजाओं का, कई पीढ़ियों का और समस्त विश्व के राम भक्तों का सदियों से अधूरा सपना आज साकार हो रहा है"।
राज्य-सत्ता की दमनकारी नीतियों के विरोध में जनता का विरोध भी उन्हें उचित नहीं लगता था।
2021 में जानीमानी अंतरराष्ट्रीय पॉप गायिका रिहाना ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन के पक्ष में ट्वीट किया तो लता मंगेशकर ने ट्वीट कर रिहाना को लताड़ लगाई । उस समय लता मंगेशकर के साथ-साथ कुछ अन्य सेलिब्रिटीज सचिन तेंदुलकर, अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी ने भी रिहाना को लताड़ने वाले ट्वीट किए। लेकिन एक मजेदार बात यह सामने आई कि इन ट्वीटों के सिर्फ़ भाव ही नहीं बल्कि कई शब्द भी समान थे। बाद में मालूम चला कि लता मंगेशकर समेत इन सभी लोगों ने भाजपा के आईटी सेल द्वारा उपलब्ध करवाई सामग्री ट्विटर पर पोस्ट की थी। दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा लता की लोकप्रियता का उपयोग किस तरह किया करते थे, इसका पता 2019 में प्रसारित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ की रिकार्डिंग को सुनने से भी लगता है। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने श्रोताओं को लता मंगेशकर से फोन पर हुई ‘निजी’ बातचीत की रिकार्डिंग सुनाई। प्रधानमंत्री के अनुसार, यह रिकार्डिंग उस समय की है, जब उन्होंने लता मंगेशकर को उनके 90वें जन्म दिन की बधाई देने के लिए औचक फोन किया। कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए मोदी कहते हैं कि लता जी से उनकी “यह बातचीत वैसी ही थी, जैसे बहुत दुलारमय छोटा भाई अपनी बड़ी बहन से बात करता है।” वे कहते हैं कि “मैं इस तरह के व्यक्तिगत संवाद के बारे में कभी बताता नहीं, लेकिन आज चाहता हूं कि आप भी लता दीदी की बातें सुनें।” रिकार्डिंग की शुरुआत में मोदी कहते हैं कि “लता दीदी प्रणाम, मैं नरेंद्र मोदी बोल रहा हूं. मैंने फोन इसलिए किया, क्योंकि इस बार आपके जन्मदिन पर मैं हवाई जहाज में ट्रैव्लिंग कर रहा हूं. तो मैंने सोचा जाने से पहले मैं आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई... अग्रिम बधाई दे दूं..आपको प्रणाम करने के लिए मैंने अमेरिका जाने से पहले आपको फोन किया है।’’
मोदी इस कार्यक्रम में यह जताते हैं कि यह दो व्यक्तियों के बीच सच्चे हृदय से हुई बातचीत है, जिसमें लता सरकार की उपलब्धियों के पुल बांधती हैं। लेकिन उस रिकार्डिंग में ही मालूम चल जाता है कि यह सुनियोजित बातचीत थी, जिसे लता की लोकप्रियता का फायदा उठाने के लिए प्रधानमंत्री की प्रचार टीम ने आयोजित किया था। दरअसल, उसमें लता का यह कहा हुआ भी रिकार्ड है कि “आपका फोन आएगा, यही सुनकर मैं बहुत ये हो गई थी”। लता के मुंह से अनायास निकला यह वाक्य बता देता है कि पूरी बातचीत बनावटी है। लेकिन तमाम मीडिया-संस्थानों ने इससे संबंधित खबर को उस प्रकार से ही प्रसारित किया जैसा कि प्रधानमंत्री की प्रचार टीम चाहती थी। हर जगह इस खबर की धूम रही कि प्रधानमंत्री ने लता मंगेशकर को जन्मदिन की बधाई दी। खबरों में कहा गया कि स्वर कोकिला लता मंगेशकर उनके प्रधानमंत्री बनने को देश के लिए सौभाग्य की बात मानती हैं। उम्र में नरेंद्र मोदी लता मंगेशकर से 31 वर्ष छोटे हैं। इस रिकार्डिंग में लता उनसे आशीर्वाद मांगती हैं। वे कहती हैं कि जन्मदिन पर अगर “आपका आशीर्वाद मिले तो मेरा सौभाग्य होगा।” प्रधानमंत्री उनकी बात काट कर कहते हैं कि मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति में मीडिया-मैनेजमेंट का जो दौर चल रहा है, उसमें उपरोक्त लता-मोदी प्रहसन कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन जब एक कलाकार के रूप में लता के व्यवहार और एक कलाकार की गरिमा से संबंधित सरोकारों का आकलन करना हो तो इन छोटी लगने वाली बातों को ध्यान में रखना होगा क्योंकि इनके निहितार्थ छोटे नहीं हैं। लता जी के निधन के बाद मैंने अपने फेसबुक वॉल पर उनके सामाजिक सरोकारों के सवालों को उठाया था। उस पोस्ट को पढ़ने के बाद एक ट्रेड टोली ने मेरी पोस्ट पर गाली-गलौज करने का आह्वान किया। जड़मति लंपट युवाओं की इस टोली के आह्वान के बाद लगभग 700 लोगों ने मेरे फेसबुक वॉल पर आकर गालियां दीं, जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जारी है। मेरी उस पोस्ट को शेयर करने वाले मित्रों को, जिनमें हिमांशु कुमार जैसे प्रसिद्ध कार्यकर्ता भी शामिल थे, को भी गालियां दी गईं। लेकिन ये ट्रोल-सेना क्या लता को उन सवालों से बचा पाएगी, जो सांभा जी भगत जैसे लोकप्रिय मराठी गायक वर्षों से उठाते रहे हैं?
सांभा जी बताते हैं कि किस प्रकार लता मंगेशकर ने डॉ. आंबेडकर से संबंधित गीत गाने से मना कर दिया था। सांभा जी ने इस संबंध में 2015 में रांची स्थित आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले युवा वकीलों के संगठन ‘उलगुलान’ द्वारा आयोजित एक संगीत कार्यक्रम में जो कहा, उसे यहां उन्हीं के शब्दों में पूरा उद्धृत कर देना प्रासंगिक होगा, ताकि हम उस दर्द की तासीर को ठीक से महसूस कर सकें। सांभा जी भगत ने उपरोक्त कार्यक्रम में कहा कि : “लता बाई, आशा बाई, उषा बाई - तीनों मिलकर गाते हैं।… उनके आगे भी गणपति होते हैं, पीछे भी गणपति होते हैं। लेकिन इस पूरे दृश्य में हम लोग किधर खड़े हैं? लता बाई की आवाज बहुत अच्छी है।…एक बार हमारे लोग गए थे लता बाई के पास में कि हमारे जो बाबा साहब आंबेडकर हैं, उनका एक गाना गाओ आप। लेकिन लता बाई ने इंकार कर दिया। मैं कहता हूं कि यह बहुत महत्वपूर्ण है कि किसको नकारा जाता है। लता बाई ने क्यों इंकार किया? क्योंकि डॉ. आम्बेडकर अछूत हैं। उन्होंने बाकी सब गाया है। हम लोग उनको बोले कि पैसे का प्राब्लम है तो पैसे देते हैं न! लेकिन उन्होंने नहीं गाया।…उनकी बहुत सुंदर आवाज है। ऐसी सुंदर आवाज अगर हमारे बाबा साहब के नाम का स्पर्श होने से अपवित्र होती है तो ऐसी आवाज हमारे लिए कचरा है। कोई जरूरत नहीं है उसकी। हमारी हजारों लता बाई और आशा बाई को उन्होंने गांव-गांव में खत्म किया है। वे उन लोगों को अपना भाई बताती हैं कि जिन्होंने हजारों लोगों का कत्लेआम किया है। एक कलाकार को अपना पक्ष जरूर चुनना चाहिए। अगर कत्लेआम करने वाले उनके भाई हैं तो वे हमारी बहन नहीं हो सकतीं।”(जोर हमारा) लता किस प्रकार का गायन खुशी से करती थीं, इसे देखना हो तो उस वीडियो को देखना चाहिए, जिसमें वे सावरकर के गीत “हे हिंदू शक्ति संभूत दिप्ततम तेजा” को पूरे मनोयोग से गा रही हैं। शिवा जी का सांप्रदायिकीकरण करने वाले इस गीत की पंक्तियां इस प्रकार है :
“हे हिंदू शक्ति संभूत दिप्ततम तेजा
हे हिंदू तपस्या पूत ईश्वरी ओजा
हे हिंदू श्री सौभाग्य भूतिच्या साजा
हे हिंदू नृसिंहा प्रभो शिवाजीराजा
करि हिंदू राष्ट्र हें तूतें”
इस मराठी गीत को वीडियो में संगीत उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर ने दिया था।
लता और उनके परिवार का जिक्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी ने हाल ही में प्रकाशित हुई अपने भाषणों की पुस्तक ‘विकास के पथ’ में भी किया है। गडकरी बताते हैं कि लता “दीदी “कट्टर राष्ट्रवादी हैं।… स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के प्रति उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा है।” गडकरी ने किताब में बताया है कि “जिस समय मुंबई के वरली-बांद्रा पुल का भूमि पूजन कार्यक्रम था, उस समय मैंने लता दीदी और उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर के सामने इच्छा रखी कि सावरकर द्वारा रचित गीत या तो स्वयं उनके द्वारा अथवा उनके परिवार के द्वारा गाया जाना चाहिए।…इस कार्यक्रम में हृदयनाथ मंगेशकर आए और इस परिवार की वीर सावरकर के प्रति जो श्रद्धा है उसी के अनुरूप उन्होंने वीर सावरकर रचित चार गानों को बड़ी सुंदरता से पेश किया।”” (जोर हमारा) बहरहाल, इन प्रसंगों और उद्धरणों को बताने के पीछे मेरा मकसद यह है कि लता के निधन के बाद मैंने फेसबुक पर छोटी-सी पोस्ट में जो लिखा था, उसे और स्पष्ट कर दूं। लता के संगीत पर, उनकी हर-दिल-आवाज पर बहुत सारे लोग बात करेंगे। लेकिन यह तो उनकी आवाज के प्रशंसक भी जानते हैं कि उनकी आवाज में कुछ प्राकृतिक जादू था। जन्मजात थी उनकी आवाज। उस मूल आवाज में लता जी का अपना तो कुछ था नहीं। ऐसे में यह ज्यादा आवश्यक है कि हम देखें कि जो लता का अपना था, वह क्या था?
सवाल यह नहीं है कि उन्होंने आंबेडकर के गानों काे क्यों नहीं गाया। इन थोथे प्रतीकों का खूब दुरूपयोग होता है। कोई उनके आंबेडकर पर कहे औपचारिक शब्दों को सामने रख सकता है तो कोई उनकी नेहरू अथवा किसी कम्युनिस्ट, बहुजन नेता के साथ की तस्वीरों को। इसलिए मेरा सवाल यह है कि लता मंगेशकर के सामाजिक सरोकार क्या थे, वे धार्मिक पोंगापंथ के पक्ष में थीं या वैज्ञानिक-चेतना के प्रसार के पक्ष में? स्त्रियों को प्रेम करने की आजादी, दलित-पिछड़ों द्वारा सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए संघर्ष आदि के प्रति उनके विचार क्या थे? और, यह जो कुछ उनका अपना था, उसके आधार पर उन्हें इतिहास में किस प्रकार याद किया जाएगा? वे किस ओर खड़ीं हैं? जैसा कि मैंने फेसबुक पर भी लिखा था, लता जी की वैचारिक बुनावट प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी थी। मुझे नहीं पता कि उन्होंने अपने अपने प्रतिगामी समाजिक सरोकारों का उस प्रकार सचेत चुनाव किया था या नहीं, जिस प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े उच्च वर्णीय लोग करते हैं। लेकिन, उपरोक्त प्रसंगों से इतना तो स्पष्ट है कि दुनिया कैसी होनी चाहिए, कौन-सी ताकतें दुनिया के सुर को बिगाड़ती हैं और कौन इसे संवारने के लिए संघर्षरत हैं, इस बारे में उनका कोई विचार ही नहीं था। किसी विचारहीन कलाकार का इतिहास में स्थान नहीं बना पाना कठिन है, चाहे वह अपने जीवन-काल में कितना भी महान क्यों न लगता रहा हो। लता के गीत भले ही कुछ अरसे तक जीवित रहें, लेकिन शायद एक कलाकार के रूप वे इतिहास के कूड़ेदान में वैसे ही जाएंगी, जैसे कोई टूटा हुआ सितार जाता है, चाहे उसने अपने अच्छे दिनों में कितने भी सुंदर राग क्यों न निकाले हों। उनकी दिलकश आवाज का जादू देश के करोड़ों लोगों की तरह मुझे भी प्रभावित करता है। मैं भी चाहूंगा कि किसी को भी मिली ऐसी प्रकृति प्रदत्त नियामत का सम्मान हो, लेकिन यह भी अवश्य देखा जाना चाहिए कि उसने जाने-अनजाने इस नियामत को किन ताकतों के पक्ष में बरता तथा उन ताकतों ने उसका किस प्रकार का सामाजिक-राजनीतिक उपयोग किया।
--प्रमोद रंजन--
[प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली और ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया के अध्ययन व विश्लेषण में रही है। हिंदी व अंग्रेजी की कई पत्रिकाओं के संपादक रहे रंजन की प्रमुख पुस्तकें ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष (सं) व शिमला-डायरी हैं।संपर्क : janvikalp@gmail.com ]
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