द ताशकेंट फाइल्स’ के बाद अब ’द कश्मीर फाइल्स’ में कश्मीर नरसंहार के पीड़ितों की सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्म चौंकाने वाली, दिलचस्प और क्रूर ईमानदार फिल्म हैं। इस फिल्म में उस समय कश्मीर में फैले आतंक, भ्रम और भयानक दहशत की झलक दिखती है। या यूं कहे फिल्म में कश्मीर नरसंहार की क्रूर ईमानदार कहानी को बड़े पर्दे पर बड़े ही सुसजिज्त तरीके से दर्शाया गया है। 1990 में, कश्मीरी पंडितों को प्रताड़ित किया गया, उनकी मातृभूमि से बाहर निकाला गया और उनकी हत्या कर दी गई। फिल्म उस काले इतिहास को जनता के सामने दिखाने का प्रयास किया गया है। फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाया हुआ है। फिल्म ने चौथे दिन छप्परफाड़ कमाई करते हुए 35 करोड़ के पार पहुंचा दिया है। मतलब साफ है फिल्म डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री ने बॉक्स ऑफिस पर झंडे गाड़ दिए हैं। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर जो कमाल किया है उसे देखकर कोई भी दांतों तले उंगली दबा ले। फिल्म की कहानी के साथ ही अनुपम खेर की एकिं्टग को भी लोगों ने खूब सराहा है। फिल्म में कश्मीर में उस भयावह समय को दर्शाया है जब लाखों कश्मीरी हिंदुओं को रातों रात पलायन करना पड़ा था
इतिहास के पन्नों में ऐसी कई दर्दनाक घटनाएं दर्ज हैं, जिसने इंसानियत और समाज दोनों को न सिर्फ शर्मसार किया, बल्िक ऐसा जख्म दिया जिसके निशान आज भी मिलते हैं। कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदू पंडितों का पलायन, उनकी दुर्दशा ऐसी ही एक सच्ची त्रासदी है। ’द कश्मीर फाइल्स’ एक ऐसी फिल्म है, जो आपको भावनात्मक रूप से जगाती है। यह 1990 के दशक की कश्मीर पंडितों के विस्थापन और जिहादियों की ओर से उन पर हुए अत्याचारों को दिखाती है कि किस तरह इस शांतप्रिय समुदाय ने कैसे कैसे अत्याचार झेले हैं। पर देश का अधकिांश हिस्सा इससे अनजान है। अफसोस है कि इस सच तो को जानने के लिए हमें 32 साल और एक फिल्म की जरूरत पड़ी। कश्मीरी पंडितों पर आतंकियों के जुल्म को दिखाती है। इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा पंडितों को उनके घरों से भागने के लिए मजबूर किए जाने की कहानी कहती है। विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित, द कश्मीर फाइल्स को तेज नारायण अग्रवाल, अभिषेक अग्रवाल, पल्लवी जोशी और विवेक अग्निहोत्री द्वारा स्टूडियो, आईएएमबुद्ध और अभिषेक अग्रवाल आर्ट्स बैनर के तहत नियंत्रित किया गया है। फिल्म के कलाकारों में पुष्करनाथ के रूप में अनुपम खेर, ब्रह्मा दत्त के रूप में मिथुन चक्रवर्ती, कृष्ण पंडित के रूप में दर्शन कुमार, राधिका मेनन के रूप में पल्लवी जोशी, श्रद्धा पंडित के रूप में भाषा सुंबली और फारूक मलिक उर्फ बिट्टा के रूप में चिन्मय मंडलेकर शामिल हैं।
बता दें वर्ष 1989 में कश्मीर घाटी से रातोंरात 4.5 लाख कश्मीरी हिंदुओं को अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा था. जिहादी आतंकियों की ओर से उन्हें दो विकल्प दिए गए थे. पहला विकल्प वे कश्मीर छोड़कर भाग जाएं. दूसरा, इस्लाम धर्म कबूल कर लें. कश्मीरी हिंदुओं को धमकी दी गई थी कि दोनों में से कोई भी विकल्प न चुनने वालों को मार डाला जाएगा। कश्मीरी पंडितों पर आधारित फिल्म की कहानी दर्शकों का दिल छू रही है। ज्यादातर दर्शक फिल्म देखने के बाद बेहद भावुक हो रहे हैं। फिल्म में बहुत ही भयावह और मार्मिक दृश्यों को दिखाया है, इसलिए वह तारीफ के काबिल हैं। फिल्म में उन्होंने 90 के दशक में कश्मीर में हुए कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं के नरसंहार और पलायन की कहानी को दर्शाया है। इस फिल्म में अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती जैसे धुरंधर कलाकार तो हैं ही, लेकिन साथ ही फिल्म में पल्लवी जोशी और दर्शन कुमार जैसे मंझे हुए कलाकारों के द्वारा बताया गया है कि किस तरह उन्हीं के घर से उन्हें निकाल दिया गया। विधु विनोद चोपड़ा ने ’शिकारा’ में एक लव स्टोरी के जरिए कश्मीरी लोगों की पीड़ा को दर्शाने की कोशिश की थी, लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने ’द कश्मीर फाइल्स’ के जरिए एक रोंगटे खड़े करने वाली अलग कहानी को दर्शाने की कोशिश की है। फिल्म की कहानी कश्मीर के एक टीचर पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) की जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती है। कृष्णा (दर्शन कुमार) दिल्ली से कश्मीर आता है, अपने दादा पुष्कर नाथ पंडित की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए। कृष्णा अपने दादा के जिगरी दोस्त ब्रह्मा दत्त (मिथुन चक्रवर्ती) के यहां ठहरता है। उस दौरान पुष्कर के अन्य दोस्त भी कृष्णा से मिलने आते हैं। इसके बाद फिल्म फ्लैशबैक में जाती है। फ्लैशबैक में दिखाया जाता है कि 1990 से पहले कश्मीर कैसा था। इसके बाद 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों को मिलने वाली धमकियों और जबरन कश्मीर और अपना घर छोड़कर जाने वाली उनकी पीड़ादायक कहानी को दर्शाया जाता है। कृष्णा को नहीं पता होता कि उस दौरान उसका परिवार किस मुश्किल वक्त से गुजरा होता है। इसके बाद 90 के दशक की घटनाएं की परतें उसके सामने खुलती हैं और दर्शाया जाता है कि उस दौरान कश्मीरी पंडित किस पीड़ा से गुजरे थे। पूरी कहानी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। बता दें, साल 2020 में विधु विनोद चोपड़ा द्वारा ‘शिकारा’ नामक फिल्म का निर्देशन किया गया था। यह फिल्म भी कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं के हत्याकांड व पलायन पर आधारित थी। विधु विनोद चोपड़ा ने एक लव स्टोरी के जरिए कश्मीरी लोगों की पीड़ा को दर्शाने की कोशिश की थी, लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ के जरिए एक रोंगटे खड़े करने वाली अलग कहानी को दर्शाने की कोशिश की। उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं की कहानी को गहरे और बहुत ही कठोर तरीके से इस फिल्म के जरिए सुनाने की कोशिश की है। वह हमें एक पूरी तरह से एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जो आपके रोंगटे खड़े कर देंगे। फिल्म आपको पूरे समय अपनी सीट से बांधे रखेगी। फिल्म की कहानी अच्छी है और विवेक अग्निहोत्री अपने कार्य में पूरी तरह से सफल नजर आते हैं।
सराहनीय है अनुपम खेर का किरदार
कलाकारों की एकिं्टग ने इस फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया है। वैसे तो अनुपम खेर ने कई बार अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीता है, लेकिन इस फिल्म में अनुपम खेर ने पुष्कर नाथ पंडित के किरदार को ऐसे निभाया कि दर्शक आश्चर्यचकित रह जाते है। उन्होंने एक बार फिर से ये साबित किया कि वह फिल्म इंडस्ट्री के सबसे शानदार वर्सेटाइल एक्टर हैं। वहीं, मिथुन चक्रवर्ती ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। एक स्टूडेंट लीडर के तौर पर दर्शन कुमार ने बहुत ही प्रभावी अभिनय का प्रदर्शन किया। वहीं, पल्लवी जोशी की बात करें तो ‘द ताशकंद फाइल्स’ के लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का नेशनल अवॉर्ड मिला था और एक बार फिर से उन्होंने साबित किया कि वह ‘द कश्मीर फाइल्स’ के लिए भी पुरस्कार की मजबूत दावेदार हैं। यहां पर चिन्मय की एकिं्टग की भी तारीफ करना चाहेंगे, जिन्होंने फारुक अहमद के तौर पर स्क्रीन पर एक अमिट छाप छोड़ी है। इनके अलावा बाकी कलाकारों ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। खास यह है कि यह फिल्म कमजोर दिल वाले लोगों के लिए नहीं है। अगर आपका दिल मजबूत है तो ही आप इस फिल्म को देखें, क्योंकि फिल्म में कई ऐसे सीन हैं, जिन्हें देखकर आप अपनी आंखें बंद कर सकते हैं।
जब अपनी जन्मभूमि को छोड़ना पड़े
फिल्म अच्छी है, इसे आपको एक बार जरूर देखना चाहिए कि किस तरह जिस मिट्टी पर आपने जन्म लिया। जिस आंगन में आपका बचपन खिला। जिन गलियों में आपने अपनी जवानी काटी। उस मिट्टी, उस आंगन और उन गलियों को हमेशा के लिए छोड़ना पड़े, अपने ही देश में रिफ्यूजी की तरह जिंदगी बसर करनी पड़े। इस दर्द का जिक्र करना जितना आसान है, उसे सहन करना उतना ही मुश्कलि। ’द कश्मीर फाइल्स’ उस त्रासदी का दंश झेल चुके ऐसे ही लोगों की सच्ची कहानियों पर आधारित है। वो जिन्हें शरणार्थी कहा गया। फिल्म एक तर्क देती है कि यह सिर्फ एक पलायन नहीं था, बल्कि एक बर्बर नरसंहार था, जिसे राजनीतिक कारणों से दबा दिया गया। ये लोग लगभग 30 साल से निर्वासन में रह रहे हैं, उनके घरों और दुकानों पर अब इतने वक्त में स्थानीय लोगों ने कब्जा कर लिया है। कश्मीरी पंडित आज भी न्याय की उम्मीद करते हैं और सबसे जरूरी बात यह कि उन्हें उनका सम्मान, उनकी पहचान मिलनी चाहिए। यह दिलचस्प है कि सिनेमाई पर्दे पर अभी तक इन विस्थापित परिवारों के दर्द को कुछ एक बार ही उकेरा गया है। आप चाहे किसी भी विचारधारा से हों, आस्था हो या पीड़ा, किसी की आवाज को दबाना एक बुरे सपने की तरह है।
कश्मीर, वो स्वर्ग है, जो कहीं खो गया
कश्मीर, वो स्वर्ग है, जो कहीं खो गया है। आतंकवाद, सीमा पर तनाव, मानवीय संकट, अलगाववादी आंदोलन और एक लड़ाई खुद के लिए। आज कश्मीर इसी में व्यस्त है। वो कश्मीर, जो कभी समृद्ध था, जहां एकसाथ कई संस्कृतियां थीं। लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र लगातार घटते-बढ़ते तनाव के बीच खुद को स्थिर करने के लिए जद्दोजहद में डूबा हुआ है। ’द कश्मीर फाइल्स’ वह जख्म से बैंड-ऐड हटाने जैसा है, जो काफी गहरा है। तीन घंटे से भी कम समय में इस फिल्म के बहाने सच्चाई तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। लेकिन पुरानी कहावत है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। विवेक अग्निहोत्री की यह फिल्म पलायन की त्रासदी की समीक्षा करती है। यह उस दौर के रिपोर्टों पर आधारित है। कश्मीरी पंडितों द्वारा कही जा रही खुद की कहनी पर आधारित है। धर्म के कारण उनके साथ जो क्रूरता हुई, फिल्म इस पर भी बात करती है। फिर चाहे वह टेलीकॉम इंजीनियर बीके गंजू की चावल के बैरल में हत्या हो या नदीमार्ग हत्याकांड, जहां 24 कश्मीरी पंडितों को सेना की वर्दी पहने आतंकवादियों ने मार दिया था। फिल्म इन सच्ची घटनाओं एक उम्रदराज राष्ट्रवादी, पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर), उनके चार सबसे अच्छे दोस्त और उनके पोते कृष्णा (दर्शन कुमार) की आंखों से देखते हैं। यह अपने अतीत से बेखबर कृष्णा के लिए भी सच की खोज की कहानी बनती है। पुराने जख्मों से पट्टी हटाना, समाधान नहीं है। लेकिन ईलाज भी तभी संभव है, जब चोट को स्वीकार कर लिया जाए।
जब तब चुप्पी साध ली इंदिरा
डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का एक पत्र साझा किया है। यह पत्र उन्होंने 8 जनवरी 1981 को न्यूयार्क में रहने वाले कश्मीरी पंडित डॉक्टर एन मित्रा को लिखा था। दरअसल डॉ मित्रा ने कश्मीर में रह रही अपनी भतीजी के अचानक लापता हो जाने पर तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखी थी, जिसके जवाब में इंदिरा गांधी ने उन्हें पत्र भेजा था। पत्र में उन्होंने डॉ मित्रा को लिखा, ’मैं आपकी चिंता समझती हूं. मैं भी दुखी हूं कि ना तुम जो कश्मीर में पैदा हुई, न मैं, जिसके पूर्वज कश्मीर से आते हैं, दोनों ही कश्मीर में एक छोटा टुकड़ा जमीन भी नही खरीद सकते. लेकिन फिलहाल, मामला मेरे हाथ में नहीं है. मैं इस मुद्दे को ठीक करने के लिए जो चीजें जरूरी हैं वो अभी कर नहीं सकती, क्योंकि भारतीय प्रेस और विदेशी प्रेस दोनों ही मेरी छवि एक दबंग सत्तावादी के रुप में दिखा रहे हैं.’ ’लद्दाख में कश्मीरी पंडितों और बौद्धों के साथ बहुत गलत व्यवहार किया जा रहा है और उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है.’ इस बाबात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि फिल्म बताती है कि हमारे हुक्मरानों ने कितने लंबे समय तक उनके दर्द और त्रासदी को दबाए रखा। जबकि उस वक्त के पीड़ितो के पास रोने के लिए कंधे नहीं थे और ना सुनने के लिए किसी के कान खुले थे.’ इस फिल्म के जरिए सच को बाहर लाया गया है कि कैसे सत्य को दबाने के लिए एक इकोसिस्टम काम करता है।
बर्बरती की सभी सीमाएं पार
विवेक अग्निहोत्री ने फिल्म में बर्बर घटनाओं को दिखाने में कहीं भी संकोच नहीं किया है। न ही उसपर कोई फिल्टर डाला है, ताकि उसके प्रभाव को कम किया जाए। ऐसे में हम पर्दे पर जो भी देखते हैं, वह बहुत ही गंभीर है और गहन भी। कहानी थोड़ी उलझी हुई जरूर है, क्योंकि इसमें सीधी सपाट बात न होकर, उसने कहा-इसने कहा वाली बात ज्यादा है। ऐसे में आप फिल्म के कैरेक्टर से जुड़ नहीं पाते हैं। फिल्म में कई मुद्दों को समेटने की कोशशि की गई है, इसमें जेएनयू की बात है, मीडिया की तुलना आतंकवादियों की रखैल से की गई है, विदेशी मीडिया पर सिलेक्टवि रिपोर्टिंग का आरोप लगाया गया है, भारतीय सेना, राजनीतिक युद्ध, अनुच्छेद 370 और पौराणिक कथाओं से लेकर कश्मीर के प्राचीन इतिहास तक, फिल्म में सबकुछ एकसाथ दिखाया गया है। यह जरूर है कि पुष्कर नाथ पंडित और उनकी कहानी आपकी आंखें नम करती हैं। अनुपम खेर ने एक बार फिर जबरदस्त ऐक्िटग की है। वह अपने परफॉर्मेंस से दिल दहला देते हैं। पर्दे पर उन्हें देखकर, उनके दर्द को समझते हुए आपका गला भी बैठ जाता है। वह अपने खोए हुए घर के लिए तरस रहे एक इंसान के रूप में बेहतरीन हैं। पल्लवी जोशी भी उतनी ही प्रभावशाली रही हैं। बतौर दर्शक, आपको यह कमी खलती है कि पल्लवी जोशी के किरदार में कुछ और भी होना चाहिए था। चिन्मय मंडलेकर और मिथुन चक्रवर्ती ने अपने-अपने रोल के साथ न्याय किया है। कश्मीरी पंडितों के पलायन और उस त्रासदी पर इससे पहले विधु विनोद चोपड़ा रोमांटिक ड्रामा ’शिकारा’ लेकर आए थे। तब उनकी खूब आलोचना हुई थी कि उन्होंने फिल्म में कश्मीरी पंडितों के दर्द पर ज्यादा फोकस नहीं किया। हालांकि, वह फिल्म आपको उनकी संस्कृति, दर्द और निराशा की स्थिति के बेहद करीब लेकर जाती है। लेकिन विवेक अग्निहोत्री ऐसा नहीं करते। वह उस दर्द को भी बेधड़क दिखाते हैं और उसमें राजनीति और उग्रवाद को सबसे आगे रखते हैं। अपने घर से बेघर होने दर्द फिल्म के बैकग्राउंड में घुमड़ता रहता है।
-सुरेश गांधी-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें