- चर्चित वामपन्थी नेता सुनील मुखर्जी की संस्मरणों की पुस्तिका 'पार्टी जीवन की कुछ यादें' का हुआ लोकार्पण
- केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान दका आयोजन
पटना, 30 मार्च। प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता सुनील मुखर्जी की स्मृति में जनशक्ति परिसर में आयोजन किया गया । तीसवीं पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित इस स्मृति आयोजन में सुनील मुखर्जी द्वारा संस्मरणों पर लिखी पुस्तिका "पार्टी जीवन की कुछ यादें " का लोकार्पण किया चर्चित कम्युनिस्ट नेता जब्बार आलम एवं उपस्थिति गणमान्य लोगों द्वारा किया गया। इस मौके पर बड़ी संख्या में शहर के बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ विभिन्न वामपन्थी दलों के नेतागण मौजूद थे। सर्वप्रथम सुनील मुखर्जी की तस्वीर पर माल्यापर्ण किया गया। चर्चित इतिहासकार ओ.पी जायसवाल ने अपने संबोधन में कहा " उनकी तुलना महान नेताओं से होती थी। जब मैंने सुनील मुखर्जी को देखा तो लगा चाणक्य को देख रहा हूँ। उनका इंटेलीजेंस, उनका शार्पनेस ठीक वैसी ही थी जैसी बरसात में बिजली कड़कती है। कूटनीति का उतना व्यावहारिक ज्ञान बहुत कम लोगों को था। जब मैं 1954 में गांव से पटना आआया तो पी गुप्ता, सुनील मुखर्जी, जगन्नाथ सरकार आदि से भेंट हुई। तब पार्टी खुल कर बाहर आ रही थी। लँगरटोली के एक मकान में बहुत सारे लोग रहते थे। 1969 में डॉ ए. के सेन उम्मीदवार थे , जस्टिस अली अहमद को सब्जी बाग की जिम्मेवारी दी गई। सब्जी बाग के लोगों ने कहा कि सुनील मुखर्जी को क्यों नहीं लाते हैं। अंदर गली में हमलोगों ने कार्यक्रम किया। पुराने नेतागण हमेशा जनता के बीच रहना पसंद करते थे। 1970 में लैंड ग्रॉबिंग का ऐतिहासिक आन्दोलन हुआ था। यह वह समय था जब कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या 37-38 तक चली गई थी। बुर्जुआ पार्टियां बिना संघर्ष किये, जोड़-तोड़ कर, काफी कुछ हासिल कर लेती है लेकिन वामपन्थी दलों के पास संघर्ष के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है।" भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के केंद्रीय समिति के सदस्य अरुण मिश्रा ने स्मृति आयोजन को संबोधित करते हुए कहा " आने वाली पीढ़ियों को इस बात में शायद ही यकीन होगा कि इस किस्म के नेतागण कैसी-कैसी कठिनाइयों को पार करते हुए आगे बढ़े। आज जो चुनौतियां हैं उसे सम्भालने के लिए उनकी विरासत से सबक लेने की जरूरत है। आज शासक वर्ग की तमाम नीतियां आम लोगों को विभाजित करने की है। आज की चुनौती का मुकाबले करने के लिए उनसे यह सबक लेने की जरूरत है किंकैसे उनलोगों ने अच्छी ज़िंदगी को छोड़कर कुर्बानी का रास्ता चुना, जेल की सलाखों में रहे, यातना सहीं। आज का शासक वर्ग पुराने से भी ज्यादा खूंख्वार है। "
सीपीआई(एमएल) के अरविंद सिन्हा ने अपने संबोधन में कहा " सुनील मुखर्जी की पुस्तिका पढ़ने से पता चलता है कि यादें महज यादें नहीं बल्कि चिंगारी हैं। सुनील मुखर्जी बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे, जो पांच लोग थे उनमें महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन थे। वे 'युगांतर' के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी में आये थे। जब तक शोषण-दमन की व्यवस्था रहेगी लोग त्याग करने के लिए आगे आते रहेंगे। आगे भी ऐसे लोग रहते रहेंगे। इतिहास का च्रक रुकने वाला नहीं। चिंतन के स्तर पर यह सोचने की बात है कि हम पराभव की स्थिति में क्यों हैं पहलक़दमी कैसे हमारे हाथ मे आये। इसके लिए हमें वैचारिक स्तर पर और सक्रिय रहने की आवश्यकता है।" एस. यू.सी.आई ( कम्युनिस्ट) के राज्य सचिव अरुण कुमार सिंह ने कहा " बचपन में सुनील मुखर्जी हमारे घर आते थे। उन्होंने मुझसे 'मनुष्य महाबली कैसे बना' पुस्तक पढ़ने के लिए कहा था। उनका आचरण सहज, सरल था। पुराने कम्युनिस्टों को देखता था वे बहुत सहज हुआ करते थे। सुनील मुखर्जी जैसे लोग उस दौर में बौद्धिक जगत के लोग आकृष्ट हुए थे । पूरी दुनिया में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति आकर्षण का दूर था। एक जमाने में जिनकी किताब पढ़कर हम कम्युनिस्ट बने जैसे ल्यु शाओ ची जिनकी किताब 'अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बने' पढ़कर बहुत लोग कम्युनिस्ट बने वे बाद में गैर-कम्युनिस्ट कैसे बने यह बात विचारणीय है। दुनिया में वाम आन्दोलन की जो समस्या है वह अकस्मात नहीं घटी है। चर्चित चिकित्सक डॉ. सत्यजीत ने कहा " सुनील मुखर्जी के व्यक्तित्व की प्रशंसा विरोधी दल के लोग भी किया करते थे । विचारधारा के अलावे भी लोगों से वे आमलोगों से घुल-मिलकर रहा करते थे। चिकित्सा के क्षेत्र में कई व्यावहारिक सुझाव उन्होंने दिए।" बंगला कवि व अंग्रेज़ी पाक्षिक 'बिहार हेराल्ड' के सम्पादक बिद्युतपाल ने कहा " हमें सुनील मुखर्जी जैसे लोगों के जीवन का आर्काइव बनाने की जरूरत है। विकीपीडिया में ऐसे लोगों के बारे में अपनी बात रजिस्टर करने की जरूरत है। दस्तावेजी करण के मामले में हम बिहार के लोग काफी पीछे हैं। इस मामले में अपना देश भी पीछे है। श्रुति से स्मृति तक पहुँचने में ही दो हजार साल लग गए। हर नेता की एक डायरी हुआ करती है जिसमें वह संगठन का पूरा खाका रखा करता है। हमलोगों को अपने संघर्षों को आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेज कर रखने की जरूरत है"
सीपीआइ के विधानपार्षद केदारनाथ पाण्डे कहा" साहित्य में संस्मरण भी एक विधा है। वामदलों को छोड़ दें तो बाकी दलों में विचारशून्यता है। सभी शीर्ष दलों का यही हाल। हमारे लोगों के लिए भी रौशनी की जरूरत है। पूँजीवादी मीडिया, सोशल मीडिया इतना हावी है कि कोई एक बिंदु पर ठहर ही नहीं पाता। सुनील मुखर्जी के अंदर वैचारिक ताकत थी। इस संस्मरण में विचारों की लहर उठेगी। मैं अजय भवन में जाकर खबर भिजवाता था सुनील दा से मिलने के लिये। सुनील मुखर्जी से मिलने बड़े-बड़े लोग मिलने जाया करते थे। शिक्षक आंदोलन के एक-एक चीज को लेकर बात करते थे। जनता में वामपंथी रुझान पैदा करने के लिए अंकुरण करने के जरूरत है। यह काम सुनील मुखर्जी बखूबी किया करते थे।" भाकपा विधायक रामरतन सिंह ने कहा " सुनील मुखर्जी को देख कार्यकर्ताओं में जोश आ जाया करता था। हम जब छोटे थे तो वे बेगूसराय आया करते थे। सुनील मुखर्जी, जगन्नाथ सरकार, चंद्रशेखर सिंह जैसे लोग मीटिंग संचालित करते थे तो नौजवानों में जोश आ जाय करता था।" भाकपा के अन्य विधायक सूर्यकांत पासवान की अनुसार " हमारे नेताओं में जो त्याग , बलिदान की भावना थी उसे आज आमलोगों में ले जाने की जरूरत है। " सीपीआई के वरिष्ठ नेता जब्बार आलम ने कहा- पूरे बिहार को सुनील मुखर्जी पर गर्व है। बिहार की जनता जानना चाहती है सुनील मुखर्जी को। हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाते थे सुनील मुखर्जी। वामपंथी आंदोलन को जन- जन तक पहुचाने वाले थे सुनील मुखर्जी। आज लोकतंत्र भी खतरे में है। इसको बचाने की भी जरूरत है। सेक्युलर शक्तियों को एक साथ करने की जरूरत है। पूंजीवाद कभी-कभी वामपंथ में विभेद पैदा करने की कोशिश करता है। " सीपीआई के पटना जिला सचिव रामलाल सिंह के अनुसार" सुनील मुखर्जी नेतृत्व के साथियों का कैसे उपयोग किया जाए, ललकारते हुए देखा, लोगों को सुरक्षा प्रदान करते हुए देखा। पटना से वे विधायक बने मुहल्ला के पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ हमेशा बैठक करते थे। लड़ाकू साथियों का भरोसा था उनपर।"
प्रगतिशील लेखक संघ के उपमहासचिव अनीश अंकुर ने कहा " सुनील मुखर्जी के संस्मरणों की किताब 'पार्टी जीवन की कुछ यादें'" में बताया है कि कैसे 1946-47 के दौरान भारत क्रान्तिकारी रास्ते की ओर बढ़ रहा था। इस पुस्तिका में सुनील मुखर्जी ने बताया कि कैसे टाटा फैक्ट्री में हजारा सिंह को ट्रक से कुचल कर मार डाला था। वे स्वामी सहजानंद सरस्वती, कार्यानंद शर्मा, मंजर रिजवी, अली अशरफ और केदारदास कई चर्चा होती है। पुस्तिका बताती है कि कैसे जमशेदपुर में लाल झंडा के उभार को रोकने के लिए दंगा कराया जाता है। अमेरिकी विद्वान उनसे पूछा करते थे की बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन क्यों आगे बढ़ा?दूसरे हिंदी क्षेत्र के मुकाबले।" कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो वसी अहमद ने बताया कि " सुनील मुखर्जी बहुत ही सहज तरीके से लोगों से जुड़ते थे। आंदोलनों में आगे रहते थे सुनील मुखर्जी । समन्वय बनाकर चलने में यकीन रखते थे सुनील मुखर्जी। पढ़ने-पढ़ाने का काम भी सुनील दा खूब करते थे। " धन्यवादज्ञापन करते हुए सीपीआइ नेता रामबाबू कुमार ने कहा " सुनील मुखर्जी की कद्र करने वाले हर दल में मिलेंगे। बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में किसी दूसरे नेता की हैसियत न थी कि वह सर्वमान्य नेता था । नए दौर में वर्गशक्तियों का संतुलन डगमगा रहा है ऐसे में नैराश्य का भाव है लेकिन जैसे सुनील मुखर्जी ने शून्य से शुरुआत कर आंदोलन को ऊंचाई तक आगे बढ़ाया उसी प्रकार हमें भी नए दौर में काम करना होगा।" लोकार्पण समारोह में आगत अतिथियों का स्वागत केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान के अजय कुमार ने जबकि संचालन संस्कृतिकर्मी जयप्रकाश ने किया। स्मृति आयोजन व लोकार्पण समारोह में बड़ी संख्या में पटना के नागरिक मौजूद थे । प्रमुख लोगों में थे अधिवक्ता मदन प्रसाद सिंह, रवींद्रनाथ राय, अक्षय कुमार, अनिल कुमार राय, विश्वजीत कुमार, कुमार बिंदेश्वर, अशोक गुप्ता, ग़ालिब खान, जफर इकबाल, यशु, सुमन्त शरण, राकेश कुमुद, किशोर, अमन कुमार, राहुल, अभिषेक, देवरत्न प्रसाद, जीतेन्द्र कुमार, कारू प्रसाद, डी.पी यादव, ग़ज़नफर नवाब, कपिल वर्मा, अमरनाथ, प्रियरंजन, सिद्धेश्वर , इंदुभूषण, विकास, हरदेव ठाकुर आदि।
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