उन्होंने कहा कि अगर आप वाकई क्लाइमेट एक्शन डेवलपमेंट को जमीन पर उतारना चाहते हैं तो साथ ही साथ यह भी देखना होगा कि वित्तीय संस्थाएं किस तरह अपना काम करती हैं। वे किस तरह से लिवरेज फाइनेंसिंग करती हैं। हालांकि इस दिशा में काम हो रहा है लेकिन अभी काफी काम करने की गुंजाइश बाकी है। हम जलवायु वित्त परिदृश्य की बात करते वक्त क्षमता की बात नहीं करते। दूसरी बात यह है कि हम किस तरह से हितधारकों के साथ संपर्क करते हैं। हितधारकों को यह नहीं पता कि जलवायु अनुकूलन के लिए वित्तपोषण किस तरह से काम करेगा। भारतीय विज्ञान संस्थान में पारिस्थितिकी विज्ञान केन्द्र के प्रोफेसर रमण सुकुमार ने जलवायु अनुकूलन के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में तेजी लाये जाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि भारत में बहुत बड़ी आबादी अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर करती है। आने वाले समय में स्थितियां तब और भी चुनौतीपूर्ण हो जाएंगी जब लोग वन उत्पादों का इस्तेमाल जारी रखेंगे। भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा आकलन के मुताबिक भारत का 21.7% हिस्सा जंगल का है लेकिन बड़ा सवाल यह है कि कैसे हम जलवायु अनुकूलन के लक्ष्य को हासिल करेंगे। इसकी क्या प्रक्रिया होगी। उन्होंने कहा कि हमें फौरन एक प्लानिंग मोड में आना होगा कि हम किस प्रकार से सतत वन लैंडस्केप बनायें। यह जलवायु अनुकूलन के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे वन भूदृश्य बेहद जटिल स्थल हैं। जब तक हम इन लैंडस्केप्स की अखंडता को बनाए रखने में कामयाब नहीं होते तब तक अनुकूलन नहीं होगा। आईपीसीसी की मुख्य लेखक डॉक्टर चांदनी सिंह ने ‘जलवायु परिवर्तन 2022- प्रभाव, अनुकूलन और जोखिमशीलता’ विषयक रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि यह वैज्ञानिक तथ्य बिल्कुल स्थापित हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन इंसानों के लिए खतरा होने के साथ-साथ हमारी धरती की सेहत के लिए भी गंभीर चुनौती है और वैश्विक स्तर पर एकजुट प्रयास में अब जरा भी देर हुई तो इंसान के रहने लायक भविष्य बचाए रखने के सारे दरवाजे बंद हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि मौसम संबंधी चरम स्थितियों के एक साथ होने की वजह से जोखिमों की गंभीरता भी बढ़ गई है। यह मौसमी परिघटनाएं अलग-अलग स्थानों और क्षेत्रों में हो रही हैं जिनकी वजह से इनसे निपट पाना और ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है।
डॉक्टर चांदनी ने कहा कि अनुकूलन के लिये उठाये जाने वाले कदमों में बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन यह प्रगति असमान होने के साथ-साथ क्षेत्र और जोखिम वैशेषिक है और हम पर्याप्त तेजी से अनुकूलन का कार्य नहीं कर पा रहे हैं। मौजूदा अनुकूलन और जरूरी अनुकूलन के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है और कम आमदनी वाली आबादियों के बीच यह अंतर सबसे ज्यादा हो गया है। भविष्य में इनमें और भी ज्यादा वृद्धि होने का अनुमान है। उन्होंने कहा कि हम क्षेत्रवार अनुकूलन के ढर्रे पर नहीं चल सकते। हमें जल सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा के मामले में अनुकूलन को ग्रामीण स्तर तक ले जाना होगा। इसमें आर्थिक, प्रौद्योगिकीय, संस्थागत, पर्यावरणीय और भू भौतिकी संबंधी बाधाएं खड़ी हैं। गलत अनुकूलन के भी अपने नुकसान हैं। सबसे ज्यादा नुकसान वाले समूह गलत अनुकूलन के सबसे बड़े भुक्तभोगी होते हैं। बढ़ते नुकसान को टालने के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के लिए तुरंत कार्यवाही किया जाना बहुत जरूरी है साथ ही साथ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी तेजी से कमी लानी होगी। यूएनडीपी में एनवॉयरमेंट, एनर्जी और रेजीलियंस विभाग के प्रमुख डॉक्टर आशीष चतुर्वेदी ने कहा कि जब जलवायु वित्त की बात आती है तो हम इस मामले में लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। मेरा मानना है कि हमें इस मामले में भारत या विकासशील देश वैशेषिक उत्तर की आवश्यकता है। इसके लिए हमें विकासशील देशों पर केंद्रित परिप्रेक्ष्य की जरूरत है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के आधार पर हम ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचे हैं जिन्हें जमीन पर उतारना मुमकिन है। उनमें से एक निष्कर्ष यह है कि सरकार के विभिन्न स्तरों पर बैठे नीति निर्धारकों तथा अधिकारियों को बताने के लिए कोई किस तरह से क्लाइमेट साइंस या क्लाइमेट इंफॉर्मेशन को इस्तेमाल कर सकता है। उन्होंने कहा कि अगर आपको ग्राम पंचायत स्तर पर योजना बनानी हो तो आप यह काम कैसे करेंगे। इसके लिए आपके पास कोई ना कोई ठोस आकलन होना जरूरी है। आप अगर क्लाइमेट इंफॉर्मेशन को अपने निर्णयों में समाहित नहीं करते हैं तो आखिर किस तरह से डेवलपमेंट फाइनेंस हासिल करेंगे। हम किस तरह से क्लाइमेट इंफॉर्मेशन के इस्तेमाल की मेन स्ट्रीमिंग कर रहे हैं। इसे सरकारी तंत्र में सुव्यवस्थित रूप से जगह देनी होगी। इसके अलावा हमें जोखिमशीलता के बेहद सरल आकलन की भी जरूरत है। हमें ऐसी वैज्ञानिक समझ विकसित करनी होगी जिससे जमीनी स्तर तक भी लोग उसे आसानी से समझ सकें।
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