विधान परिषद के स्थानीय कोटे की 24 सीटों के लिए हुए चुनाव का परिणाम राजद और भाजपा दोनों के लिए चेतावनी छोड़ गया है। भाजपा पिछले चुनाव में जीते 11 में से 6 सीटों पर चुनाव हार चुकी है, जबकि इस चुनाव में उसे 4 सीटों का नुकसान हुआ है। इस बार भाजपा सिर्फ 7 सीट जीत पायी है। इसी तरह राजद अपने आधार वोट को बांधने में विफल रहा है। राजद खेमे के 10 यादव उम्मीदवारों में से 9 चुनाव हार गये हैं। उधर राजद के 5 भूमिहार उम्मीदवारों में से 3 चुनाव जीत गये हैं। यह अंतर्विरोध राजद के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता है। एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि स्थानीय निकाय कोटे में पार्टी की भूमिका काफी सीमित होती है, जबकि उम्मीदवार का व्यक्तिगत संपर्क, पैसा से वोट खरीदने की ताकत और उनकी जाति की भूमिका निर्णायक होती है। यही वजह है कि जाति की संख्या, धनबल और अपनी दंबगता के लिए ‘बदनाम’ रही जातियों के उम्मीदवार ही चुनाव जीत पाये हैं। 24 सीटों में से 23 सीटों पर चार जातियों का कब्जा है, जबकि एक सीट पर ब्राह्मण ने जीत दर्ज की है। इसमें उनकी अपनी आर्थिक ताकत बड़ा फैक्टर था। इस चुनाव में पार्टी के पदाधिकारी और पार्टी के नाम पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका ‘राजनीतिक एजेंट’ होने तक सीमित थी। वे वोट की कीमत कम करवाने में मध्यस्थता की भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। इसके बावजूद संसदीय लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। जो लोग विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए हैं, वे संविधान के तहत निर्धारित प्रक्रिया से सदन तक पहुंचे हैं। इस प्रक्रिया का सम्मान किया जाना चाहिए। वे चुनाव आयोग के तय मानदंड और पार्टी अनुशासन के तहत किसी न किसी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुने गये हैं या निर्दलीय निर्वाचित हुए हैं। निर्वाचित सदस्य 75 सदस्यीय विधान परिषद के सदस्य बन गये हैं। अब चुनाव प्रक्रिया या राजनीतिक पवित्रता को लेकर बहस करने की कोई गुंजाईश नहीं रह गयी है। अब पार्टी के रूप में उनकी पहचान और पार्टी सदस्य के रूप में उनकी जिम्मेवारियों पर बसह की जानी चाहिए।
- विधान परिषद चुनाव : जाति बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया
विधान परिषद के चुनाव में सबसे अधिक फायदा राजद को हुआ है। पिछले कार्यकाल में ‘भागते भूत की लंगोटी भली’ के समान एकमात्र एमएमलसी सुबोध राय वैशाली में चुनाव हार गये। लेकिन राजद ने चार नयी सीटों पर अपना कब्जा जमाया है, जबकि मुंगेर सीट पर उम्मीदवार बदल कर पार्टी ने कब्जा बरकरार रखा है। पिछली बार राजद के निर्वाचित सदस्य संजय प्रसाद इस बार जदयू के उम्मीदवार थे। राजद ने भूमिहार के मुकाबले के लिए एक दूसरे भूमिहार अजय सिंह को उतारा और सीट जीत ली। राजद ने सहरसा में भाजपा के मंत्री नीरज बबलू की पत्नी नूतन सिंह को पराजित किया। सीवान सीट भी राजद ने भाजपा से छीन ली। पश्चिम चंपारण की सीट भी राजद की झोली में आ गयी। राजद ने पटना और गया सीट पर भी पहली बार कब्जा जमाया है। राजद की यह जीत इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उसके छह में से तीन एमएलसी से भूमिहार जाति के निर्वाचित हुए हैं, जबकि राजद के 10 यादव उम्मीदवारों में से 9 चुनाव हार गये हैं। चुनाव में राजद के 9 यादव उम्मीदवारों की हार को लेकर नयी बहस शुरू हो गयी है। इसका सीधा सा जवाब है कि आधार वोट यादवों ने राजद का साथ छोड़ दिया है। इसका भविष्य के चुनाव पर भी असर पड़ सकता है। लेकिन ऐसा है नहीं। इस परिणाम का मतलब है कि राजद यादव और मुसलमानों के अलावा अन्य जाति के वोटरों को जोड़ने में विफल रहा है। इसके साथ यह भी कहा जा सकता है कि आधार वोटरों ने भी पैसे लेकर दूसरी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दे दिया। लेकिन राजद के टिकट पर 3 भूमिहार समेत 5 गैरयादव उम्मीदवारों का जीतना यह बताता है कि राजद के आधार वोटों ने पूरी दृढ़ता के साथ पार्टी के पक्ष में मतदान किया और उम्मीदवार की जाति की वजह से अन्य जाति के वोट भी राजद को मिले। इसका फायदा राजद उम्मीदवारों को हुआ। यदि हम मधुबनी और नवादा के चुनाव परिणाम को देंखे तो स्पष्ट होता है कि राजद के आधार वोटों ने राजद के गैरयादव उम्मीदवारों को छोड़कर निर्दलीय यादव उम्मीदवारों के प्रति भरोसा जताया। वोटों के ट्रेंड का जो अंतर्विरोध है, इसकी वजह पार्टी की नीति और सिद्धांत कम और उम्मीदवारों के साथ उसकी आर्थिक ताकत बड़ा फैक्टर है। यह प्रवृत्ति हर निर्वाचन क्षेत्र में दिखती है।
भाजपा को इस चुनाव में सीधे-सीधे 4 सीटों का नुकसान हुआ है। इसकी वजह पार्टी के अंदर और सहयोगी दल जदयू की भितरघात रही है। राजद के चार सवर्ण उम्मीदवारों के जीतने का आशय यह भी है कि भाजपा का सवर्ण आधार उम्मीदवार के हिसाब से दूसरी पार्टी में भी शिफ्ट कर रहा है। भाजपा सारण, सीवान, सहरसा, बेगूसराय और पूर्वी चंपारण में चुनाव हार गयी है। इन क्षेत्रों में पार्टी को आंतरिक भितरघात से जुझना पड़ा। जदयू के भी छह उम्मीदवार हार गये। उसे भी आंतरिक भितरघात और आधार वोटों के छीटकने की मार झेलनी पड़ी है। खगडि़या में कांग्रेस उम्मीदवार राजीव कुमार की जीत की बड़ी वजह भूमिहारों के कांग्रेस उम्मीदवार की ओर पलट जाना रही है। पटना में निर्दलीय कर्णवीर सिंह यादव ने राजद के कार्तिक सिंह को बड़ी चुनौती दी और कम वोटों के अंतर से राजद की जीत हुई। इस चुनाव ने हर पार्टी को संकेत दिया है कि परंपरागत वोट करवट बदलने लगा है। बेहतर और भरोसेमंद विकल्प मिलने पर खेमा बदलने से परहेज नहीं है। चुनाव परिणाम ने यह भी बताया है कि यादवों के लिए किसी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में जीतने से ज्यादा आसान निर्दलीय चुनाव जीतना है। मधुबनी और नवादा में यादवों ने निर्दलीय जीत दर्ज की, जबकि पटना में राजद के भूमिहार उम्मीदवार को पानी पिला दिया। इस चुनाव में एनडीए के सात उम्मीदवार तीसरे स्थान पर पहुंच गये। इस चुनाव में सवर्ण वोटरों की संख्या कम होती है। इस कारण चुनाव परिणाम को प्रभावित करने में उन वोटों की भूमिका भी सीमित होती है, लेकिन सवर्ण जातियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में होते हैं। इसकी वजह है कि लोकल बॉडी चुनाव में पैसा डुबाने का जोखिम उठाने वाला उम्मीदवार चाहिए। उस मामले में राजपूत और भूमिहार भारी पड़ते हैं। इस श्रेणी में यादव और बनिया नये खिलाड़ी के रूप में सामने आये हैं और अब वे पैसा डुबाने का जोखिम उठाने लगे है। इस कारण चुनाव में दोनों गठबंधनों ने इन्हीं चार जातियों से 75 फीसदी से अधिक उम्मीदवार उतारे थे। स्वाभाविक है कि इन्हीं उम्मीदवारों में से ही जीतना था। इस संबंध में राजद के एक वरिष्ठ नेता ने कहा था कि इस चुनाव में अन्य जातियों के उम्मीदवार ही नहीं मिलते हैं।
विधान परिषद का चुनाव तीन एम यानी मनी, मशल्स और मैनेजमेंट का चुनाव है। तन, मन और धन से मजबूत आदमी ही चुनाव लड़ पायेगा और जीत पायेगा। हारने वाला भी उसी मुकाबले का चाहिए। इस चुनाव में हारने वाला और जीतने वाला दोनों के अलावा बड़ी वोट संख्या के साथ तीसरे स्थान पर रहने वाला उम्मीदवारों ने भी बड़ी राशि खर्च की है। इस चुनाव में उम्मीदवार द्वारा खर्च की गयी राशि और वोटरों तक एक-एक वोट की पहुंची कीमत का कोई वास्तविक आकलन संभव नहीं है। लेने वाला, देने वाला और दिलाने वाला तीनों अपने-अपने स्तर पर झूठ बोल रहे होते हैं। उनके दावों को वास्तविक नहीं मानना चाहिए। व्यक्ति, जगह और माहौल देखकर कीमत और भाषा बदल जाती है। निर्वाचित सभी सदस्य अब वोटरों को महान और लोकतंत्र की जीत बता रहे हैं। लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। जब पार्टियां टिकट देने के बदले उम्मीदवारों से मोटी रकम वसूलती हैं तो वोटर अपना मत फ्री में क्यों दान कर दे। जब पार्टियां टिकट बेचती हैं तो वोटर अपना मत बेच रहा है। यदि पार्टी चलाने के लिए नेताओं को पैसा चाहिए तो क्या पैसा खर्च कर जनप्रतिनिधि निर्वाचित हुआ वोटर मुंह में माटी लगायेगा। हालांकि यह बहुत ही विश्वसनीय परंपरा विकसित हो रही है कि पैसे के कारोबार का तीनों पक्ष उम्मीदवार, वोटर और दलाल तीनों लेन-देन में पारदर्शिता के साथ गोपनीयता बरतते हैं। बिहार जैसी राजनीतिक संस्कृति वाले प्रदेश में मुखिया से मुख्यमंत्री तक सभी जानते हैं कि ‘गरिमापूर्ण भ्रष्टाचार’ सत्ता गलियारे का आवश्यक फैक्टर है। इसके बिना राजनीति नहीं हो सकती है। भ्रष्टाचार के पैसे से बने मंच से ही लोग ईमानदारी पर भाषण देते हैं। इसलिए राजनीति की नयी संस्कृति को लेकर कोई विद्रोह या बगावत का भाव नहीं है। आम आदमी के रूप में इस प्रवृत्ति को आप खतरनाक कह सकते हैं, लेकिन सत्ता की रेस में शामिल हर व्यक्ति ‘गरिमापूर्ण भ्रष्टाचार’ को अनिवार्य मानता है।
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