कोविड महामारी के दौरान भी, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारों ने एकजुट हो कर महामारी प्रबंधन नहीं किया। अमीर देशों ने अपनी आबादी से अनेक गुना अधिक वैक्सीन टीके होड़ किए, कम्पनियों ने मुनाफ़ाख़ोरी की, दवाओं और आवश्यक वस्तुओं की जमाख़ोरी हुई, क़ीमतें आसमान छू रही थीं, महामारी के कारण अनावश्यक लोग संक्रमित हुए, मृत हुए। हाल ही में ओमिक्रोन कोरोना वाइरस वाली लहर में 90% से अधिक लोग जिनको अस्पताल में भर्ती होना पड़ा वह लोग थे जिनको टीके की एक भी खुराक नहीं लगी थी। दुनिया की कुल आबादी 7 अरब से अधिक है और 12 अरब टीके लग चुके हैं पर ग़रीब देशों के 2 अरब से अधिक लोगों को एक भी खुराक आज तक नहीं नसीब हुई है जब कि अमीर देशों में टीके की चौथी खुराक भी लग रही है। जब ओमिक्रोन लहर में अधिकांश अस्पताल-वेंटिलेटर की ज़रूरत और मृत्यु तक उन्हीं लोगों में हुई जिन्हें टीका नहीं लगा था तो इन मृत्यु के लिए ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए - यदि सबको टीके लगे होते तो अस्पताल-वेंटिलेटर की ज़रूरत और मृत्यु का ख़तरा अत्यंत कम रहता। जिन लोगों ने वैक्सीन की होड़ की, और टीके ख़राब हो कर फेकें गए पर जरूरतमंद से साझा नहीं किए, उनको ज़िम्मेदार ठहराना ज़रूरी है कि नहीं? यदि महामारी और अन्य आपदा से बचना है और उनके प्रबंधन में सुधार करना है तो सबसे पहले व्याप्त सामाजिक अन्याय और ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करना होगा। सामाजिक अन्याय और ग़ैर-बराबरी वाली व्यवस्था के चलते हम मात्र जाँच-दवा से स्वास्थ्य आपदा से बच ही नहीं सकते। यह भी समझना ज़रूरी है कि सामाजिक अन्याय और ग़ैर-बराबरी वाली व्यवस्था से 99% आबादी को नुक़सान होता है और उनके मौलिक मानवाधिकार का पतन होता है तो वहीं 1% अमीर लोग इसी विकृत व्यवस्था के कारण, और अधिक सम्पत्ति और धन पर क़ब्ज़ा करते हैं। इसीलिए कोविड महामारी में भी इनकी सम्पत्ति बढ़ी, धन बढ़ा, जबकि अधिकांश दुनिया ने आर्थिक तंगी झेली, महामारी की वीभत्सता झेली, और तालाबंदी आदि के कारण उत्पन्न मानवीय आपदा की मार भी झेली।
इसीलिए सैंकड़ों लोगों ने एक खुले पत्र के माध्यम से सरकारों से अपील की है कि वैश्विक संधि प्रक्रिया को मुनाफ़ाख़ोरों के हस्तक्षेप से बचाना ज़रूरी है। जन-हित सर्वोपरि रहे न कि व्यापार। धनाढ्य देशों और लोगों ने ही कोविड वैक्सीन टीके बराबरी से साझा होने नहीं दिए। बल्कि जब दुनिया महामारी से जूझ रही थी तो उन्होंने सरकारों पर दबाव बना कर, स्वास्थ्य के निजीकरण को ही बढ़ावा दिया है। इसका एक और उदाहरण है जब दुनिया कि सबसे बड़ी तम्बाकू कम्पनी जो एक दवा कम्पनी की भी मालिक है, उसने महामारी का फ़ायदा उठा कर सरकारों और संयुक्त राष्ट्र पर फिर दबाव डालना शुरू किया। वैश्विक तम्बाकू नियंत्रण संधि में तम्बाकू कम्पनी के हस्तक्षेप पर क़ानूनी प्रतिबंध लगा हुआ है क्योंकि जो कम्पनी वैश्विक तम्बाकू महामारी के लिए ज़िम्मेदार है वह कैसे तम्बाकू नियंत्रण नीति में भाग ले सकती है? यही कम्पनी तो तम्बाकू महामारी की जड़ है। इसीलिए महामारी के दौरान इस तम्बाकू कम्पनी ने, अपनी ही दवा कम्पनी की आड़ में फिर से हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। यदि प्रभावकारी वैश्विक संधि बनानी है जिससे कि महामारी प्रबंधन कुशलता से हो और आपदा जैसी स्थिति उत्पन्न ही न हो, तो इस पूरी प्रक्रिया में, मानवाधिकार उल्लंघन करने वाले और मुनाफ़ाख़ोरी में लिप्त कम्पनी और व्यक्तियों के हस्तक्षेप पर रोक लगाना ज़रूरी है। पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व ने ज़ोर दिया है कि इस संधि प्रक्रिया में सभी की 'भागीदारी' हो जो मुनाफ़ाख़ोरी करने वालों के लिए खुला निमंत्रण है। कोरपोरेट अकाउंटबिलिटी की शोध निदेशक अश्का नाइक ने कहा कि वैश्विक संधि प्रक्रिया में हम लोग, दोराहे पर हैं। क्या सरकारें, मानवाधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता देंगी और मुनाफ़ाख़ोरी और उद्योग की वकालत करने वालों पर अंकुश लगाएँगी, या फिर महामारी और आपदा में मुनाफ़ाख़ोरी करने वालों को खुली छूट दी जाएगी? विश्व स्वास्थ्य संगठन की सबसे पहली संधि थी: वैश्विक तम्बाकू नियंत्रण संधि (फ़्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन टुबैको कंट्रोल)। इस संधि के आरम्भ से ही तम्बाकू उद्योग का हस्तक्षेप इतना अधिक रहा था कि सरकारों ने वैश्विक तम्बाकू नियंत्रण संधि के आर्टिकल 5.3 की गाइडलाइन पारित की जिससे कि तम्बाकू उद्योग को संधि प्रक्रिया से बाहर निकाला जाए और संधि और तम्बाकू नियंत्रण में उद्योग के हस्तक्षेप को बर्दाश्त न किया जाए। इसी वैश्विक तम्बाकू नियंत्रण संधि के आर्टिकल 19 के अनुसार, तम्बाकू उद्योग को उसके द्वारा किए गए मानव जीवन के सर्वनाश और पर्यावरण आदि के नुक़सान के लिए क़ानूनी और आर्थिक रूप से ज़िम्मेदार ठहराना ज़रूरी है। वैश्विक तम्बाकू नियंत्रण संधि में जनसमूह आदि सभी की खुली भागेदारी रहती है परंतु तम्बाकू उद्योग और उसके अनेक बहुरूपिये वाले समूह को बाहर का रास्ता दिखाया गया है।
वैश्विक महामारी प्रबंधन के लिए संधि प्रक्रिया शुरू से ही संदिग्ध रही है। जन-सुनवाई कब होगी, और उसका समय एवं प्रक्रिया क्या रहेगी जैसी महत्वपूर्व बात सिर्फ़ चंद दिन पहले ही बताए गए हैं। जिन लोगों को विस्तार से मौखिक बोलने का मौक़ा दिया जा रहा है उन्हें २ मिनट प्रति व्यक्ति का समय दिया गया है, और लिखित सुझाव आदि २५० शब्द से अधिक नहीं हो सकते। जेनीवा ग्लोबल हेल्थ हब की सह-अध्यक्ष नीकोलेटा डेंटिको ने कहा कि जन-सुनवाई का स्वागत है पर यह सिर्फ़ नाम-मात्र की जन-सुनवाई नहीं होनी चाहिए। पूरी प्रक्रिया में सामाजिक और जन संगठनों की भागेदारी होनी ज़रूरी है। हमें बेहतर दुनिया के लिए क्या करना चाहिए - ऐसी एक लम्बी सूची बनाने के बजाए हम लोग यह सुनिश्चित करें कि विभिन्न देशों को क्या करना होगा जिससे कि भविष्य में आपदा स्थिति पैदा न हो और महामारी प्रबंधन बेहतर हो सके। यह प्रक्रिया चंद हफ़्तों में कैसे पूरी होगी? जन समूह के खुले पत्र में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा है कि महामारी प्रबंधन और आपदा से बचने की बात तो हो रही है पर अनेक सामाजिक अन्याय और पर्यावरण से जुड़े कारण जिसकी वजह से आपात-स्थिति पैदा होती है उनकी बात नहीं हो रही है। उदाहरण के तौर पर, खाद्य असुरक्षा, पशुपालन, ऐसी जीवनशैली जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन होता हो, आदि। सबके लिए समान स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित किए बिना सतत विकास सम्भव ही नहीं। इटली की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री गिलिया ग्रिलो ने कहा कि जब तक सबके लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा की बात नहीं होगी तब तक महामारी प्रबंधन कैसे सुधरेगा और भविष्य में हम कैसे महामारियों से बचेंगे? सितम्बर २०२२ तक, महामारी के बेहतर प्रबंधन और आपदा स्थिति से बचाव हेतु इस वैश्विक संधि का मसौदा आने की सम्भावना है।
बॉबी रमाकांत - सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
(विश्व स्वास्थ्य संगठन महानिदेशक से पुरस्कृत बॉबी रमाकांत, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से जुड़े हैं।
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