विषय जरा चौंकाने वाला है। आप सोचेंगे कि बोलने की कला तो मान सकता हूं, लेकिन सुनने की भी क्या कोई कला हो सकती है ? बिल्कुल सुनना भी एक टेक्निक है। मैं आगे यह कहने जा रहा हूं कि सुनना भी एक कला है। सामान्यतः बोलना तो आसान है, सुनना कठिन है। कोई सुनना ही नहीं चाहता। परिवार में, पड़ोस में, मित्रों में, परिचितों में, कार्यालयों में, कोई किसी की सुनना नहीं चाहता। हर कोई कहता है, मेरी सुनो। हर कोई बोलना चाहता है। तो पहले बोलना। हम अपनी बात कैसे कहें कि सुनने वाले की समझ में आ जाए। मैं सन् 1985 के लगभग कोर्ट से फ्री होने के बाद दतिया कॉलेज में ईवनिंग लॉ क्लासेज के दो पीरियड कानून के विद्यार्थियों को पढ़ाने जाता था। पहले दिन ही मैं कहता था कि बकालत में सफलता प्राप्त करने का एक मात्र सूत्र है - Knowledge & Way of Expression. "ज्ञान का अर्जन करना और अभिव्यक्ति की कला", जिसमें होगी, वह सफल बकील बनेगा। बोलना एक कला है, यह स्कूलों में सिखाया जाना चाहिए। नेताओं को यह कला अच्छी तरह आती है। केवल संवाद होना ही पर्याप्त नहीं है, महात्वपूर्ण यह है कि बात सुनी व समझी कितनी गई ? इस विषय पर मुझ लेखक की नव-प्रकाशित पुस्तक "आनंद की राह" में पृष्ठ क्रमांक 154 पर चेप्टर 28 - "संवादहीनता और विवाद : कारण एवं निवारण" मे वर्णित किया है। सिर्फ बोलना ही संवाद नहीं है। संवाद क्या है ? मन में उठे भाव को भाषा के माध्यम से बोलना संवाद है लेकिन यह तभी पूर्ण होगा जब सुनने वाले का मानसिक धरातल एक समान हो। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि लोगों के मध्य अधूरा संवाद हो पाता है। अधिकतर विवाद संवादहीनता के कारण ही हैं। अब मैं यह कहता हूं कि सुनना भी एक कला है। लोग सुनना नहीं चाहते। बोलना ही चाहते। इसी कारण परिवार, पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार, अफसर, जनता आदि परिचितों में विवाद होते रहते हैं। देखिए सुनना भी एक कला कैसे है ? सुनने के लिए हमें खाली होना पड़ेगा। बोलने वाला जो कुछ विषय से सम्बन्धित कह रहा है, उस विषय के संदर्भ में यदि हमने पहले से ही कुछ सोच रखा है अथवा मन बना रखा है अथवा हम पहले से ही विषय के बारे में कुछ जानते हैं अथवा बोलने वाले के बारे में पहले से ही कोई मानसिकता बना रखी है, तो यह सुनना नहीं कहा जाएगा, सुनने का नाटक भर होगा। ऐसी स्थिति में इसे संवादहीनता ही माना जावेगा।
अत: विषय को सुनने के पहले हमें पूर्वाग्रहों, पूर्वमान्यताओं को त्यागना होगा, विषय के बारे में खाली होना पड़ेगा। मन को ग्रहणशीलता में होना होगा। बोलने वाले की मानसिकता में उतरना होगा। इस बात को ऐसे समझें कि यदि पूर्व से लिखी हुई एक स्लेट पर, पुनः उसी इबारत पर लिखा जाए, तो कुछ भी समझ नहीं आएगा। गिलगोंचा, कीचड़ बन जाएगा। विषय सुनना एक आयाम है और उसे समझना दूसरा आयाम है। सिर्फ सुनना ही पर्याप्त नहीं है, समझना भी आवश्यक है। बोलने वाले के मानसिक पटल पर उभरते भाव में समाहित होना है। तब माना जाएगा कि बात कही गई, सुनी गई व समझी गई। उदाहरणार्थ, दालभात में सभी सब्जियों को, नमकीन, मीठा आदि सब मिला दो, तो किसी भी सब्जी का, उसका अपना स्वाद नहीं मिल पाएगा। इसी प्रकार किसी विषय विशेष के संदर्भ में यदि पूर्व से ही मान्यताएं निर्मित कर रखीं हैं, तो सुनने व समझने के समय बोलने वाले के विषय का स्वाद चखा नहीं जा सकता। सुनने वाला यदि जीत-हार के तर्क मे फंस चुका है, तब बोलना व सुनना निरर्थक है। सामान्यतः आम व्यक्ति के अन्दर जो कुछ भरा है, वह वही, सुनना चाहता है। इसे स्वयं का ही परावर्तन कहेंगे, इसे सुनना नहीं माना जाएगा। जब पूर्वाग्रह से प्रेरित होंगे, तो बोलने वाले की सत्यता को समझ नहीं पाएंगे। हां, बोलने वाला यदि असत्य बोल रहा है, निरर्थक बोल रहा है, हठधर्मी है, बार-बार पुनरावृत्ति कर रहा है, तो सुनने व समझने के पश्चात उसकी बात निष्कासित कर देना चाहिए।
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नोट:- लेखक एक पूर्व शासकीय एवं वरिष्ठ अभिभाषक व राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आध्यात्मिक विषयों के चिन्तक व समालोचक हैं। तिवारी जी की दो पुस्तकें, ’’मृत्यु कैसे होते है ? फिर क्या होता है ?’’ तथा ’’आनंद की राह’’ प्रभात प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हो चुकीं हैं।
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