नयी दिल्ली, 29 मई, इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित 13 उपन्यासों की ‘लांग लिस्ट’ में मार्च में जब गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास ‘’रेत समाधि’’ की अनूदित रचना ‘‘टूंब ऑफ सैंड’’ को शामिल किया गया तो साहित्य जगत के बाहर हिंदी की इस लेखिका को जानने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी। अब साहित्य जगत के प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से नवाजे जाने के बाद गीतांजलि देश और दुनिया में चर्चा का केंद्र बन गई हैं। उनकी इस उपलब्धि को 1913 में रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि को मिली ख्याति से जोड़ा जा रहा है और कहा जा रहा है कि 110 साल बाद एक और गीतांजलि देश का गौरव बनी है। यह थोड़ा अतिशयोक्ति लग सकता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी के लिए यह उत्सव का क्षण है और श्री ने दुनिया में न केवल हिंदी का परचम फहराया है, बल्कि कई प्रतिमान गढ़े हैं। बुकर पुरस्कार के लिए शुरुआती नामांकन के दौरान हिंदी की इस उपलब्धि के मीडिया की सुर्खियों में आने के समय श्री खुद भी इन खबरों को अधिक महत्व नहीं दे रही थीं। एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने इसे स्वीकारते हुए कहा, “बुकर का मैंने न कभी ख्वाब देखा और न ही मुझे इसके बारे में सारी चीजें पता थी, जब ‘लांग लिस्ट’ की बात आई तो कुछ दिनों तक मुझे यह भी मालूम नहीं था कि इसकी वकत क्या है। पास और दूर से लोगों के संदेश आने लगे और लोग इसकी बात करने लगे तो मुझे समझ आया कि ये कोई छोटी चीज नहीं है।‘’ हालांकि साथ ही उन्होंने कहा कि ‘शॉर्ट लिस्ट’ किए जाने तक वह इस संबंध में सबकुछ जान चुकी थी।
खुद को पूर्वी उत्तर प्रदेश की लड़की मानने वाली श्री का बनारस और गाजीपुर से गहरा नाता है। उनकी माता का पैतृक गांव जमुई (बनारस) है तो पिता का गोडउर (गाजीपुर)। श्री के पिता अनिरुद्ध पांडेय भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और उनकी मैनपुरी में तैनाती के दौरान 12 जून 1957 को गीतांजलि का जन्म हुआ। चूंकि पिता आईएएस थे तो उत्तर प्रदेश के छोटे-बड़े शहरों में उनकी तैनाती रही और इन्हीं शहरों में श्री पली-बढ़ी और प्रारंभिक शिक्षा ली। बाद में उन्होंने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से स्नातक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया। उन्होंने महाराज सयाजी राव विवि, वडोदरा से प्रेमचंद और उत्तर भारत के औपनिवेशिक शिक्षित वर्ग विषय पर शोध किया। कुछ दिनों तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्यापन के बाद उन्होंने सूरत के सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च की और वहीं रहते हुए उन्होंने साहित्य सृजन की शुरूआत की। श्री को साहित्य की सोहबत परिवार से मिली है। उनकी मां साहित्य अनुरागी रही हैं। एक साक्षात्कार में श्री ने कहा, ‘’मां अब 95 वर्ष की हैं, शरीर से कमजोर हैं, लेकिन खूब पढ़ती हैं। कृष्णा सोबती का ‘जिंदगीनामा’ वह तीन बार पढ़ चुकी हैं। मेरी रचनाओं को पढ़ती हैं, प्रतिक्रिया देती हैं। मेरा उपन्यास ‘खाली जगह’ उन्हें पसंद नहीं आया, लेकिन ‘माई’ और ‘रेत समाधि’ उन्हें खूब भाया।’’ श्री की कहानी बेलपत्र 1987 में हंस में प्रकाशित हुई थी। श्री की रचनाओं में, 'अनुगूंज’, 'वैराग्य’, 'मार्च, माँ और साकूरा' एव 'यहाँ हाथी रहते थे' कहानी संग्रह शामिल हैं। रेत समाधि से पहले श्री के चार उपन्यास, 'माई’, 'हमारा शहर उस बरस’, 'तिरोहित’ और 'खाली जगह' प्रकाशित हो चुके हैं। गीतांजलि श्री हिंदी की पहली लेखिका हैं, जिन्हें प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिला और उनकी इस उपलब्धि से न केवल हिंदी व हिंदी साहित्य के लिए नए अवसरों के द्वार खुलेंगे, साथ ही वैश्वक साहित्य भी और समृद्ध होगा। पुरस्कार ग्रहण करने के बाद श्री ने कहा, ‘‘मेरे इस उपन्यास के अलावा हिंदी और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं में बहुद समृद्ध साहित्य मौजूद है। इन भाषाओं के कुछ बेहतरीन लेखकों के बारे में जानकर वैश्विक साहित्य और समृद्ध हो जाएगा। इस प्रकार के मेलजोल से जीवन के आयाम बढ़ेंगे।’’ एक साक्षात्कार में श्री ने कहा, ‘’यह हिंदी में लिखा गया उपन्यास है। उस भाषा का जिसमें अनेक लेखक हैं, जो अगर अनूदित होकर दुनिया के सामने आएं तो और पुरस्कारों के हकदार साबित होंगे।‘’
हिंदी साहित्यकार भी मानते हैं कि श्री की उपलब्धि हिंदी को वैश्विक स्तर पर नया मुकाम दिलाने में अहम भूमिका निभाएगी। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हिंदी उपन्यासकार अल्का सरावगी ने कहा, ‘‘गीतांजलि श्री की कृति के अनुवाद को बुकर पुरस्कार मिलने से हिंदी लेखन के लिए अवसर के नये द्वार खुल गये हैं।’’ ‘रेत समाधि’ की पहली समीक्षा लिखने का दावा करने वाले प्रख्यात हिंदी लेखक प्रयाग शुक्ल (82) ने कहा कि हिंदी साहित्य वैश्विक स्तर पर अपना वाजिब दर्जा पाने की ओर बढ़ रहा है। उन्होंने कहा, ‘‘आप देखेंगे कि हिंदी साहित्य का अनुवाद पहले की तुलना में 20 गुना तेजी से बढ़ेगा। ’’ गीतांजलि श्री द्वारा ‘‘रेत समाधि’’ शीर्षक से लिखे गए इस मूल हिंदी उपन्यास का डेजी रॉकवैल ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। डेजी रॉकवेल एक पेंटर एवं लेखिका हैं और अमेरिका में रहती हैं। उन्होंने हिंदी और उर्दू की कई साहित्यिक कृतियों का अनुवाद किया है। यह उपन्यास उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है और 80 वर्षीय एक बुजुर्ग महिला की कहानी बयां करता है। यह महिला पाकिस्तान जाती है और विभाजन के वक्त की अपनी पीड़ाओं का हल तलाशने की कोशिश करती है। वह इस बात का मूल्यांकन करती है कि एक मां, बेटी, महिला और नारीवादी होने के क्या मायने हैं। श्री ने बेहद मार्मिक और संवेदनशील भाषा में इस महिला की मन:स्थिति को तराशा है और डेजी ने इसके अंग्रेजी अनुवाद में भी इसकी मूल आत्मा को बरकरार रखते हुए इसे सुंदर शब्दों में ढाला है। बुकर से पहले भी श्री को कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। हिंदी अकादमी ने उन्हें 2000-2001 का साहित्यकार सम्मान दिया। श्री को वर्ष 1994 में उनके कहानी संग्रह अनुगूँज के लिए यूके कथा सम्मान से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उन्हें इंदु शर्मा कथा सम्मान, द्विजदेव सम्मान भी मिला है। वहीं श्री जापान फाउंडेशन, चार्ल्स वॉलेस ट्रस्ट, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें