गंगे तव दर्शनात मुक्तिः! यानी गंगा मां के दर्शन से मुक्ति मिलती है। विष्णुपदी मां गंगा के धरती पर आने का पर्व है गंगा दशहरा। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं। इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है। इस दिन ऊं नमः शिवाय नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा, मंत्रों द्वारा गंगा का पूजन करने से जीव को मृत्युलोक में बार-बार भटकना नहीं पड़ता। निष्कपट भाव से गंगा मां के दर्शन करने मात्र से जीव को कष्ट से मुक्ति मिल जाती है
शिव की सर्वाधिक प्रिया थी गंगा
ब्रह्मा के कमंडल में रहनेवाली गंगा भगवान शिव की जटाओं में गईं। भगवान शिव ने गंगा के कोप और वेग को शांत करने के लिए गंगा को बहुत समय तक जटाओं में ही छुपाए रखा। गंगा का कोप शांत हुआ। शिव के प्रति गंगा के मन में तो प्रेम पहले था ही, शिव को भी गंगा का संसर्ग सुखकर लगने लगा। ब्रह्म पुराण में कहा गया है- यस्मिन्काले सुरेशस्य उमापत्न्यभवत्प्रिया। तस्मन्नेवाभवद्गंगा प्रिया शंभोर्महामते ।।अर्थात जिस काल में सुरेश की उमा प्रिया पत्नी हुई थीं, उसी काल में शम्भु की प्रिया गंगा देवी हुई थीं। शिव की सर्वाधिक प्रिया गंगा हो गई थीं। सर्वाब्यो ध्यधिकप्रीतिर्ग....तामेव चिंतयानोसौ...। अर्थात सबसे अधिक प्रीतिवाली गंगा हो गई थी, भगवान शिव भी सदा उसी गंगा का चिंतन किया करते थे। चूंकि शिव ने गंगा को जटाओं में छुपा रखा था, इसलिए पार्वती को इसका आभास हुआ।गंगा ने पति रूप में चाहा था शिव को
गंगा शिवप्रिया के रूप में पुराणों में प्रसिद्ध है तथा पार्वती शिवपत्नी के रूप में। दोनों देवियों के बीच अत्यंत रोचक संबंध है। कहीं-कहीं तो भगवान शिव को उमागंगा पतीश्वर भी कहा गया है। गंगा राजा हिमवान की ज्येष्ठ पुत्री थीं। पार्वती भी गंगा की ही भांति हिमवान और मैना की पुत्री थीं। दोनों सहोदरा थीं। पार्वती को छोड़कर हिमवान की सारी कन्याएं नदी रूप में थीं। गंगा का वर्णन शरीर और नदी दोनों रूपों में है। गंगा और पार्वती के संबंधों को मुख्यतः तीन धरातलों-सती के मृत शरीर के विखंडित, अंतिम और सभी 51 वें पिंड की रक्षिका के रूप में, सहोदरा रूप में सपत्नी या शिवप्रिया रूप में। जब सती के शरीर के विभिन्न टुकड़े भिन्न-भिन्न स्थलों पर गिर कर शक्तिपीठ का रूप ग्रहण कर चुके थे, तो सती का अंतिम और 51 वां पिंड तारकासुर नष्ट कर रहा था। मार्कंडेय ऋषि ने राजा हिमवान और गंगा के सहयोग से तारकासुर से युद्ध कर उस पिंड की रक्षा की। उसी समय भगवान शिव का पदार्पण हुआ। शिव को देखते ही गंगा के मन में उनके प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। गंगा ने शिव से पत्नी रूप में स्वीकारने की प्रार्थना की। शिव सती के वियोग में थे। उन्होंने कहा- मैं सती के अतिरिक्त किसी के बारे में सोच भी नहीं सकता। शिव ने गंगा को वरदान दिया कि जबतक ब्रह्मांड रहेगा, तबतक तुम पावन बनकर लोगों को पापमुक्त करती रहोगी। बाद में असुरों से स्वर्गलोक की रक्षा के लिए ब्रह्मा जी की याचना पर हिमवान ने त्रिभुवन के हित की इच्छा से गंगा को धर्मपूर्वक उनको दे दिया। गंगा ने भी प्रतिज्ञा की कि जबतक शिव स्वयं नहीं बुलाएंगे, मैं पृथ्वी पर नहीं आऊंगी। ईश्वरीय योजना के अनुरूप सती का पार्वती के रूप में हिमवान के घर जन्म हुआ। रिश्ते से गंगा पार्वती की ज्येष्ठ बहन हो गईं। पार्वती और गंगा के संबंधों का सर्वाधिक रोचक स्थल तब सामने आता है, जब भगीरथ के प्रयास से गंगा पृथ्वीलोक पर आने को तैयार होती हैं। स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आने की बात से गंगा कुपित थीं। अपने तीव्र वेग से पृथ्वी का नाश कर देना चाहती थीं। भगवान शिव ने भूलोक की रक्षा के लिए गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लिया।
जटा में देख कुपित थीं पार्वती
एक दिन गंगा जटाओं से समुद्गत हो गईं और शिव जटाओं में छुपाने लगे, तो पार्वती की नजर पड़ गई। पार्वती से यह सहन हुआ। उन्होंने कहा-जिसे आप छुपा रहे हैं, उसे प्रकट कर प्रेम कीजिए। शिव तैयार नहीं हुए। पार्वती ईर्ष्या से कुपित थीं। उन्होंने अपनी परेशानी गणेश को बताई। गणेश ने जया ब्रह्मा के सहयोग से गौतम ऋषि को गोहत्या के पाप में फंसाया। फिर ब्रह्मा ने पापमुक्ति के लिए शिव को प्रसन्न कर गंगा को विमुक्त करने के लिए तैयार किया। गौतम ऋषि ने सोचा कि ठीक ही है, गंगा पृथ्वी पर आएंगी, जो सबके लिए श्रेयस्कर होगा। मेरा भी पाप नहीं रहेगा। यद्यपि यह पौराणिक प्रसंग है, पर इसे लोककल्याण के लिए ईश्वरीय योजना के रूप में स्वीकारना श्रेयस्कर होगा।
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