विक्की राय और पंकज गुप्ता जैसे युवा से बहुत लोग भली-भांति परिचित होंगे. विक्की राय जाने-माने फोटोग्राफर हैं और पंकज गुप्ता थिएटर डायरेक्टर और एक्टर हैं. बहुत लोगों ने उन्हें फिल्म 'ओए लकी, लकी ओए' में देखा होगा. जब वह कोरोना महामारी के दौरान जुटाई गई धनराशि से जरूरतमंदों की मदद करने में व्यस्त थे, इसी दौरान 12वीं कक्षा के छात्र गौरव स्कूली बच्चों को शेल्टर में कंप्यूटर का उपयोग करना सिखा रहे थे. जरूरतमंद लोगों के लिए सहायता प्रदान करने के एक उत्कृष्ट प्रणाली स्थापित करने से पहले, इन युवा उद्यमियों का बचपन कठिनाइयों से भरा रहा है. इनका अधिकतर जीवन रेलवे प्लेटफार्म पर बीता है. वही इनका स्थाई ठिकाना हुआ करता था. लेकिन आज वह खुद एक सफल इंसान और उद्यमी के रूप में समाज के बीच में खड़े हैं. उनका जीवन समाज को बता रहा है कि जो बच्चे सामाजिक ताने-बाने में किसी भी तरह हाशिए पर रहने वाले हैं, अगर सही अवसर और सही समय पर उनकी उचित मदद की जाए, तो वह समाज के लिए सकारात्मक परिणाम और नायक के रूप में सामने आ सकते हैं. ये नायक अपने जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए बताते हैं कि परिस्थिति ने उन्हें कैसे तोड़ा और किसने उन्हें क्या बनाया? गरीबी से परेशान और अपने बड़े भाई से झगड़ों से तंग आकर गौरव बचपन में मध्य प्रदेश के बीना नामक गांव से भाग गए थे. वह बताते हैं कि अगली शाम जब ट्रेन मथुरा में रुकी तो मैं उतर गया. स्टेशन पर बच्चों के एक समूह जिसमें कुछ बड़े और कुछ छोटे बच्चे थे, ने मुझे अकेला देखा और मुझसे दोस्ती की. उन्होंने मुझे खाना और पानी दिया और मैं उनके साथ स्टेशन पर काम करने लगा. हमने जो मुख्य काम किया, वह था ट्रेनों में चढ़ कर इस्तेमाल की गई प्लास्टिक की बोतलों को इकठ्ठा करना और फिर उतर जाना. चार-पांच महीने तक मथुरा रेलवे स्टेशन ही गौरव का घर था. इस दौरान हुए एक हादसे की चर्चा करते हुए गौरव कहते हैं कि "एक बार मैं एक ट्रेन में चढ़ रहा था, जो धीमी गति में थी, उस समय बारिश के कारण ट्रेन की सीढ़ियां फिसलन भरी थीं, इसलिए मैं फिसल कर प्लेटफार्म और चलती ट्रेन के बीच की जगह में गिर गया. उस समय मेरी ढीली कमीज मेरे शॉर्ट्स से लटक रही थी और मेरे शरीर के पीछे चार-पांच खाली पानी की बोतलें लटकी हुई थीं. जब मैं ट्रेन और प्लेटफार्म के बीच छोटी सी जगह में गिरा हुआ था, तो मुझे लगा कि यह मेरे जीवन का अंतिम क्षण हो सकता है. स्टेशन पर शोर के कारण अधिकतर लोग उसे गिरते नहीं देख सके, हालांकि इसी बीच रेलवे पुलिस के एक अधिकारी ने उसे बचाया और फिर उसके इलाज के लिए उसे चिकित्सा केंद्र लेकर गए. अपने दर्द को व्यक्त करते हुए गौरव कहते हैं, "मेरी आँखें घायल हो गईं और मेरी पीठ पर गहरे घाव हो गए थे. कुछ दिनों बाद रेलवे स्टेशन से मेरा एक दोस्त मुझे ड्रेसिंग के लिए एक निजी अस्पताल ले गया, लेकिन मेरे पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए उसने मुझे घर जाने की सलाह देना शुरू कर दिया.
पारिवारिक हालात ठीक नहीं होने के कारण गौरव ने घर जाने की जगह दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ी. नई दिल्ली स्टेशन उतरते ही उसे लाजपत नगर में शेल्टर संचालित करने वाली टीम ने गौरव को अपने संरक्षण में ले लिया और उसे सुरक्षित शेल्टर होम पहुंचा दिया. जहां उन्होंने उसका अच्छी तरह से इलाज किया. गौरव कहते हैं कि "मुझे वे दिन बहुत अच्छे से याद हैं, उस समय मेरी कमीज मेरी पीठ के घावों से चिपकी रहती थी, काउंसलिंग के दौरान उन्होंने मुझसे मेरा पता पूछा, कुछ महीने बाद मेरी मां एक पड़ोसी के साथ आई और मुझे वापस गांव ले गई।” आर्थिक कठिनाइयों के कारण घर लौटने के बाद भी गौरव के लिए भोजन एक बड़ी समस्या थी. स्थिति से तंग आकर गौरव को फिर से घर से भागना पड़ा. वह मथुरा होते हुए दिल्ली पहुंचे. जहां उसे वॉलेट बनाने वाली एक फैक्ट्री में नौकरी मिल गई, लेकिन वहां काम करने से वह क्लॉस्ट्रोफोबिक इज्म का शिकार हो गए. इसलिए उन्हें भोजन की तलाश में दिल्ली रेलवे स्टेशन लौटना पड़ा. वहां जीआरपी के एक अधिकारी ने उन्हें सलाम बालक ट्रस्ट में रहने या घर लौटने का विकल्प दिया. गौरव वर्तमान में वेल्स इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस टेक्नोलॉजी एंड एडवांस्ड स्टडीज, चेन्नई में समुद्री विज्ञान की पढ़ाई कर रहे हैं. जीवन ने उन्हें 2010 में दूसरा मौका दिया, जब वह दिल्ली स्थित तीस हज़ारी में संचालित डीएमआरसी सलाम बालक शेल्टर होम फैसिलिटी में शामिल हुए, जहां उन्हें प्रताप नगर के एक अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल में दाखिल कराया गया. गौरव कहते हैं, "मेरी ज़िंदगी अच्छी थी। 2012 के आसपास, मुझे स्कूल में अच्छे अंक मिले, इसलिए मुझे लॉरेंस स्कूल सनावर में 5वीं कक्षा में दाखिला लिया. मुझे अच्छे अंक मिले और मैंने वहां बास्केटबॉल, क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, स्क्वैश, शूटिंग खेलना शुरू किया. गौरव को स्कूल क्रिकेट टीम में खेलने के लिए भी चुना गया था. वह एनडीए की परीक्षा देकर सेना में शामिल होना चाहते थे, लेकिन फिर उन्हें पता चला कि उन्होंने निर्धारित आयु सीमा को पार कर लिया है. इसके बाद उन्होंने मर्चेंट नेवी में करियर बनाने का फैसला किया. इसके लिए उन्होंने YouTube और अन्य ऑनलाइन शिक्षा माध्यम से पढ़ाई की. लेकिन कोरोना के कारण उनकी बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा रद्द कर दी गई. इस दौरान उन्हें वेल्स के निदेशक से मिलने का अवसर मिला, जिन्होंने उसकी योग्यता को देखते हुए ट्यूशन फीस में आंशिक छूट की पेशकश की. उनकी बाकी फीस सलाम बालक ट्रस्ट द्वारा वहन किया जा रहा है.
विक्की गौरव से कई साल बड़े हैं. उनकी कहानी पश्चिम बंगाल के पुरुलिया से शुरू होती है. उन्होंने 11 साल की उम्र में अपनी दादी द्वारा बुरी तरह पीटे जाने के बाद पुरुलिया को छोड़ दिया था. विक्की को उम्मीद थी कि वह एक दिन बड़ा अभिनेता बनेगा." इसी उम्मीद में वह दिल्ली पहुंच गए. हालांकि यहां उनका ठिकाना केवल दिल्ली रेलवे स्टेशन ही था. जहां उनका सबसे कठिन दिन था. पांच-छह महीने तक उन्होंने प्लेटफॉर्म पर खाली बोतलें इकट्ठी कर उसमें ठंडे पानी भर कर जनरल कोच में बेचने का काम किया. रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहते हुए उन्हें कई बार अन्य दबंग बच्चों ने धमकाया और रेजर ब्लेड से उन्हें घायल भी किया. इस तरह की घटनाओं ने विक्की को स्टेशन छोड़ कर जाने पर मजबूर कर दिया और वह स्टेशन के पास एक होटल में बर्तन धोने का काम करने लगे. वर्तमान में विक्की के जाने-माने फोटोग्राफर बनने का सफर भी सलाम बालक ट्रस्ट के सहयोग से ही पूरा हुआ है. इस दौरान उसे कई सलाहकार मिले हैं जिन्होंने उसके कौशल को सुधारने में मदद की. दिल्ली के त्रिवेंद्रम कला संगम में प्रशिक्षण के दौरान उनके कौशल को निखारा गया और उन्हें फोटोग्राफर अन्य मन्न के तहत प्रशिक्षुता करने का अवसर प्राप्त हुआ. ब्रिटिश उच्चायुक्त ने उनकी पहली एकल प्रदर्शनी में उनकी आर्थिक सहायता की. धीरे धीरे उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलने लगी. उन्हें 2008 में अमेरिका स्थित मेबैक फाउंडेशन द्वारा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के पुनर्निर्माण पर एक दस्तावेज तैयार करने के लिए चुना गया था. विक्की को 2014 में एमआईटी मीडिया फेलोशिप और 2016 में फोर्ब्स एशिया 30 के लिए अंडर -30 सूची के लिए भी चुना गया था. इसी प्रकार झारखंड के मोहम्मद शमीम ग्यारह साल की उम्र में अपने घर मधुपुर से भाग कर नई दिल्ली चले आए. शमीम याद करते हैं, ''मेरे पिता चाहते थे कि मैं एक मदरसे में पढ़ूं, जिसके लिए मुझे अपने परिवार से दूर रहना पड़ा. एक बार जब मुझे घर से स्कूल वापस ले जाया जा रहा था, तो मैं भाग गया और दिल्ली जाने के लिए ट्रेन में चढ़ गया. मुझे इतना पता था कि मेरे गांव के कई लोग दिल्ली में काम करते हैं." शमीम को इस बात का आभास नहीं था कि दिल्ली एक बड़ा शहर है. उसने सोचा कि गांव के लोग उसे दिल्ली पहुंचकर उसी तरह ढूंढ लेंगे जैसे गांव में एक साधारण खोज पर वे उसे ढूंढते हैं. शमीम के अनुसार दिल्ली पहुंचकर उसके पास खाने के लिए कुछ नहीं है इसलिए पानी पर तीन दिन बिताने पड़े. शमीम कहते हैं, ''मैंने देखा कि एक आदमी स्टेशन के आसपास बहुत से लोगों से पूछ रहा था, 'क्या आप काम करेंगे?' मैंने कहा - हाँ! उसने पूछा "बेटा, तुम क्या कर सकते हो?" उसके बाद शमीम इस आदमी के साथ मेरठ गया और तीन साल तक उसके खेतों में काम किया. शमीम के मुताबिक वे अच्छे लोग थे. काम के बदले पैसा नहीं देते थे परंतु उसका अच्छे से ख्याल रखते थे. हालांकि खेतों में काम मुश्किल था. शमीम वहां से लौटना चाहता था लेकिन ट्रेन के टिकट चेकर ने उसे बिना टिकट पकड़ लिया और थप्पड़ मार कर उतार दिया.
शमीम कहते हैं, ''मैं स्टेशन के बाहर एक चिनार के पेड़ के पास खड़ा था तभी एक आदमी मेरे पास आया और मुझसे पूछा 'पढ़ोगे?' मैंने कहा, 'हां.' शमीम कहते हैं कि उस समय उनके मन में हर तरह की आशंका थी. कहीं कोई उसका गलत इस्तेमाल तो नहीं करेगा? लेकिन उनकी आशंका के विपरीत उनका जीवन बदल गया. एसबीटी में उन्होंने कठपुतली मंचन का प्रशिक्षण प्राप्त किया. आज शमीम द्वारा बनाई गई कठपुतली इस साल गणतंत्र दिवस परेड में शामिल हुई थी. शमीम को सात साल की उम्र में ईशारा पपेट थिएटर से तीन साल का एचआईवी/एड्स रोकथाम प्रोजेक्ट मिला था. उनकी पहली नौकरी 3,250 रुपये के मासिक वेतन पर थी. वर्तमान में शमीम की खुद की संस्था है जिसके माध्यम से वह देश विदेश में कठपुतली शो दिखाते हैं. आज दिल्ली में उनका खुद का घर और परिवार है. पंकज के पिता गरीब थे और उत्तर प्रदेश के झींझक इलाके में ढाबा चलाते थे. गरीबी से जूझ रहे पंकज अपने पिता के ढाबे पर काम कर रहे थे, जब पहली बार उसकी मुलाकात सलाम बालक ट्रस्ट (एसबीटी) के सदस्यों से हुई. पंकज कहते हैं, ''उनके माध्यम से मैंने बिना प्रवेश के स्कूल जाना शुरू कर दिया और स्कूल की परीक्षा में टॉप किया. मैं परीक्षा देने में सक्षम था क्योंकि मेरे नाम से एक छात्र अनुपस्थित था.” हालांकि कुछ ही दिनों में पंकज ने ट्रस्ट छोड़ दिया और फिरोजाबाद चले गए, जहां उसके पिता ने एक नया व्यवसाय शुरू करने की कोशिश कर रहे थे. वहां पंकज एक चूड़ी फैक्ट्री में काम करने लगा और साथ ही गलियों में भेलपुड़ी भी बेचने लगा. हालांकि कुछ ही दिनों बाद पंकज को फिर से सलाम बालक ट्रस्ट वापस आना पड़ा क्योंकि उनके पिता की शराब की लत बढ़ गई जिससे घरेलू स्थिति खराब हो गई. आज पंकज 32 वर्ष के हो चुके हैं और एक मंझे हुए थिएटर कलाकार और प्रशिक्षक हैं. उन्होंने कई फिल्मों में अभिनय भी किया है. उन्होंने सलाम बालक ट्रस्ट में थिएटर की कक्षाएं लीं और गुरुग्राम में ब्रॉडवे-स्टाइल किंगडम ऑफ़ ड्रीम्स में कलाकार रह चुके हैं. एसबीटी ने उनके जीवन को बहुत बदल दिया और उन्होंने थिएटर और नाटक का प्रशिक्षण प्राप्त किया. उन्होंने 2015 से स्वतंत्र रूप से कई नाटकों का निर्देशन किया है. इनमें से 'यूनीक जर्नी' और 'स्ट्रीट ड्रीम्स' खासतौर पर काफी पॉपुलर हो चुके हैं.
मामूनी दास
दिल्ली
(चरखा फीचर)
लेखिका वर्क नो चाइल्ड बिज़नेस की फेलो हैं
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