दुनिया को 92% एचआईवी दवाएँ तो भारत से मिलती हैं
अमीर देशों की महँगी दवाएँ नहीं बल्कि भारत में निर्मित जेनेरिक एचआईवी दवाएँ हैं जो दुनिया के 92% ऐसे एचआईवी के साथ जीवित लोगों तक पहुँचती हैं जिनको एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ मिल पा रही हैं। यह तथ्य डॉ ईश्वर गिलाडा जो इंटरनेशनल एड्स सुसाइटी के अध्यक्षीय मंडल के निर्वाचित सदस्य हैं, और वरिष्ठ संक्रामक रोग विशेषज्ञ, उन्होंने कनाडा में हो रही 24वें इंटरनेशनल एड्स कॉन्फ़्रेन्स में कहा। अमीर देशों में दवाओं की क़ीमत से तुलना में, भारत में निर्मित इन जेनेरिक एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कीमित 1% से भी कम है। डॉ ईश्वर गिलाडा ने उदाहरण दिया कि अमीर देशों में एचआईवी की सर्वोत्तम एक-साथ-तीन-दवाओं-वाली खुराक की क़ीमत अमरीकी डॉलर 10,452 प्रति रोगी प्रति वर्ष है, पर इसी जेनेरिक दवा की क़ीमत मात्र अमरीकी डॉलर 69 है जो अमीर देशों में इसी दवा की क़ीमत का सिर्फ़ 0.7% है। इसी तरह से हेपटाइटिस-सी वाइरस से संक्रमित लोगों के उपचार हेतु जिस तीन महीने के इलाज की क़ीमत अमरीकी डॉलर 84,000 थी (लगभग 1000 डॉलर प्रति दिन), अब भारत में यही जेनेरिक दवा अमरीकी डॉलर 215 की हो गयी है जो अंतर्राष्ट्रीय क़ीमत का सिर्फ़ 0.3% है। स्पष्ट बात है कि यदि जरूरतमंद लोगों तक दवाएँ पहुँचानी है तो अमीर देशों पर नहीं बल्कि विकासशील देशों की क्षमता पर अधिक निर्भर रहना होगा और स्थानीय क्षमता का ही विकास करना होगा। इंटरनेशनल एड्स सुसाइटी की नव-निर्वाचित अध्यक्ष डॉ बीटरिज़ ग्रीन्सतेन ने डॉ गिलाडा की बात दोहराते हुए कहा कि दुनिया में जेनेरिक दवाओं को विकसित, निर्मित, और आयात करने की क्षमता रखने वालों देशों में भारत देश सबसे प्रमुख है, जिसके कारण दुनिया में एचआईवी के साथ जीवित लोगों तक जीवनरक्षक दवाएँ पहुँच पायीं हैं। डॉ बीटरिज़ ने ज़ोर देते हुए कहा कि वैश्विक दक्षिण के देशों को एकजुट हो कर कुशल समन्वयन के साथ अपनी क्षमता विकास के लिए और एड्स उन्मूलन की ओर प्रगति करने के लिए, कार्यशील रहना होगा। डॉ बीटरिज़ ने कहा कि “यह सही है कि पहले की तुलना में अब बहुत बड़ी संख्या में लोगों को जीवनरक्षक एचआईवी दवाएँ मिल रही हैं परंतु यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है कि इन कार्यक्रमों की गुणवत्ता और वहनीयता बरकरार रहे। यदि विकासशील देशों पर नज़र डालें तो आज भी असमानता के कारणवश लोगों पर एचआईवी से संक्रमित होने का ख़तरा बढ़ता है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जहां केंद्र में मुनाफ़ा नहीं हो बल्कि जन-स्वास्थ्य रहे, तभी जरूरतमंदों तक आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँच पाएँगी।
जो “हमें ज्ञान है” और जो “हम कर रहे हैं” उसमें अंतर क्यों?
अमरीका की वरिष्ठ एचआईवी विशेषज्ञ और एचआईवी वैक्सीन शोध की वैज्ञानिक निदेशक डॉ एन डुर ने चिंता व्यक्त की क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के एचआईवी कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार यदि अभी नहीं चेते तो 2030 तक एड्स उन्मूलन के लक्ष्य को हम पूरा नहीं कर सकते। 2021 में हर 2-3 मिनट में एक बालिका या नवयुवती एचआईवी संक्रमित हुई और हर मिनट एक व्यक्ति की एड्स से मृत्यु। डॉ डुर ने बताया कि इम्प्लमेंटेशन विज्ञान पर भारत को वैश्विक पहल लेनी चाहिए। जो हमें वैज्ञानिक रूप से ज्ञात है कि अपेक्षित परिणाम के लिए “क्या करना है” और ज़मीनी स्तर पर जो “हो रहा है” उसमें अंतर क्यों है? इम्प्लमेंटेशन विज्ञान से भारत न सिर्फ़ अपने कार्यक्रम की कार्यसाधकता सुधार सकेगा बल्कि अन्य देशों को भी मार्गनिर्देशन देगा कि जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों को अधिक प्रभावकारी कैसे बनाएँ। बेंगलुरु स्थित आशा फ़ाउंडेशन की संस्थापिका और देश की प्रख्यात एचआईवी विशेषज्ञ डॉ ग्लोरी ऐलेग्ज़ैंडर, कनाडा में हो रही एड्स-2022 के आयोजक मंडल में हैं। डॉ ग्लोरी, एड्स सुसाइटी ओफ़ इंडिया की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। डॉ ग्लोरी ने कहा कि 2010 की तुलना में भारत में नए एचआईवी से संक्रमित लोगों की संख्या में 37% गिरावट आयी है और एड्स मृत्यु में भी 66% गिरावट आयी है। पर ज़िन समुदाय को एचआईवी से संक्रमित होने का ख़तरा अधिक है, उनमें एचआईवी दर आम-जनता के मुक़ाबले अनेक गुना बना हुआ है जो अत्यंत चिंता का विषय है। डॉ गिलाडा का कहना सही है कि मुद्दा अमीर देश बनाम ग़रीब देश का नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि सभी सरकारों को कैसे एकजुट करें कि जन स्वास्थ्य और सतत विकास, जिसमें एड्स उन्मूलन शामिल हैं, वही प्राथमिकता बने, उसी की दिशा में भरसक प्रयास हों और सबके लिए स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा का स्वप्न साकार हो सके।
बॉबी रमाकांत - सीएनएस
(सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
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