सच तो यह है कि इसदेश में लोकतंत्र का चीरहरण आम बात हो गई है।आजाद भारत में व्यंग्य की विसात पर फिर एक द्रौपदी खड़ी है। महाभारत काल की द्रौपदी सम्राट युधिष्ठिर की पत्नी थी। उसे भरी राजसभा में लांछित किया गया था। बलात नग्न करने का प्रयास किया गया था।इससे पूर्व उसे पांच पतियों को छोड़कर दुर्योधन की पत्नी बनने का प्रस्ताव दिया गया था। द्रौपदी को अपने पातिव्रत्य धर्म का स्वाभिमान प्रकट करना पड़ा था। उसने दुर्योधन को ललकारते हुए कहा था-पति प्रेम रूप जल में अपने को मीन समझती है कृष्णा।पति के आगे सुरपति को भी अति दीन समझती है कृष्णा।पतिव्रत पर तीनों लोकों की संपत्ति वारती है कृष्णा। तेरे इस नश्वर तुच्छ विभव पर लात मारती है कृष्णा। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से उसकी लाज तो बच गई थी लेकिन उन फिकरों का क्या जो उस पर कसे गए थे। शरीर के घाव तो फिर भी भर जाते हैं लेकिन मन पर लगे घाव तो उम्र भर सालते रहते हैं। मधुर वचन है औषधि कटुक वचन है तीर।श्रवण द्वार ह्वै संचरै साले सकल शरीर। सम्राट की पत्नी राज्य की प्रथम नागरिक होती है।प्रथम नागरिक का अपना सर्वोच्च सम्मान होता है। महाभारत युद्ध जन्य महाविनाश की पटकथा तो द्रौपदी के अपमान के पन्नों पर ही लिखी गई थी।गीता जैसा दुर्लभ ज्ञा
न भी इसी आलोक में प्रकट हुआ था। मौजूदा द्रौपदी भी कुछ कम नहीं हैं।वे इस देश की राष्ट्रपति हैं। प्रथम नागरिक हैं।उनका सम्मान हर भारतवासी का परम कर्तव्य है। राजनीतिक मतभेद अपनी जगह है पर मनभेद तो नहीं होना चाहिए। संसद अपने शालीन व्यवहार और वार्तालाप के लिए जानी जाती है।बड़ी और कड़ी बात भी कुछ इस तरह कही जानी चाहिए कि उसका लोक पर असर पड़े लेकिन हाल के दिनों में संसद में जिस तरह की बातें हो रही हैं,उसे श्लाघनीय तो नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रपति की गरिमा का ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए। राष्ट्रपिता शब्द पर कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते कल्याण सिंह ने सवाल उठाया था। उन्होंने गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने से इनकार कर दिया था।इस पर कांग्रेस ने तब देश भर में प्रतिवाद किया था। अब राष्टपति और राष्ट्रपत्नी शब्द पर बवाल हो रहा है। संभव है,इस तरह की संकीर्ण सोच आगे भी सामने आए,इसलिए इस पदनाम में बदलाव की दिशा में भी सोचा जाना चाहिए। कोई व्यक्ति राष्ट्र का पति ,कोई महिला राष्ट्र की पत्नी क्यों कही जाए।यह उसके लिए भी और राष्ट्र की महिलाओं के लिए भी एक तरह से निरादर की बात है।इसलिए उचित होगा कि इस तरह के द्विअर्थी शब्दों को बदल देने में ही भलाई है। फोड़ा पके,इसके पहले उसे फोड़ देने और सुखा देने में ही भलाई है।इस तरह की अनर्गल बातों से राष्ट्रीय ही नहीं,अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि खराब होती है।जो देश अपने संविधानिक पदों पर बैठे लोगों का सम्मान नहीं कर सकता,जिस देश का कोई अधीर रंजन भारत आए यूरोपियन यूनियन के सांसदों को किराए का टट्टू करार दे,उसका वैश्विक स्तर पर उपहास नहीं तो और क्या होगा।छवि बनाने में वर्षों लगते हैं और छवि बिगड़ने में एक पल की गलती ही काफी होती है। काश,यह देश इस दिशा में सकारात्मक सोच पाता।
--सियाराम पांडेय'शांत'--
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