संस्था के एक अन्य सदस्य दीपक ने बताया कि इस राशन किट में प्रत्येक परिवार (औसतन पांच सदस्यों का परिवार) को 15 दिन का राशन दिया गया, जिसमें आटा, दाल, चावल, चीनी, मसाले और सब्जियां आदि शामिल थे. पहले लॉकडाउन के दौरान तीन महीने और दूसरे लॉकडाउन में भी लगातार तीन महीने राशन बांटा गया. इस तरह सूची में शामिल उन सभी परिवारों को छह माह में करीब दस बार राशन पहुंचाया गया. दिलचस्प बात यह है कि जीएमवीएस के संस्थापक शंकर सिंह रावत खुद बाल मजदूर थे. बचपन में वे एक पावरलूम फैक्ट्री में काम करते थे. शंकर कहते हैं, ''उस समय मैं 11-12 साल का था. मैंने 1990 से 1995 तक किशनगढ़ से 7 किमी दूर एक पावरलूम फैक्ट्री में काम किया था." शंकर कहते हैं कि "मुझे पावरलूम में एक बुनाई मशीन पर नौकरी मिल गई. जहां कपड़े सिलने के लिए धागे में रील भरने का काम था. 8 घंटे की शिफ्ट में दो हजार रिलें भरनी होती थी. इसके लिए 14.50 रुपये दैनिक वेतन मिलता था. ज्यादा पैसे कमाने के लिए मैं दो शिफ्ट में काम करता था. काम सीखने के बाद मैं पांचवें साल में सुपरवाइजर बन गया. तब मेरी तनख्वाह दस हज़ार रुपये प्रतिमाह हो गई थी. वास्तव में अजमेर जिले में बाल मजदूरी एक बहुत पुरानी समस्या है. ज़िले के केकरी, श्रीनगर, भिनाई, दाता, नोलखा, महमी और किशनगढ़ के इलाकों में बच्चे खनन में पत्थर तोड़ते थे. इसके अलावा बड़ी संख्या में बच्चे होटलों और फैक्ट्रियों में भी काम करते हैं. शंकर रावत का कहना है कि इन क्षेत्रों में पिछले 5 वर्षों में 100 से अधिक बच्चों को बाल श्रम से मुक्त कराया गया है. संगठन ने अब तक 20,000 से अधिक बच्चों को बाल श्रम के दुष्चक्र से बचाया है. शंकर के अनुसार वर्ष 2000 में, भारत सरकार का श्रम मंत्रालय बाल श्रम को इस दुष्चक्र से बाहर निकालने और समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए एक परियोजना लेकर आया था. इस परियोजना के माध्यम से ऐसे बच्चों के लिए श्रमिक विद्यालय खोले गए. अजमेर जिले में ऐसे 20 स्कूल खोले गए. एक स्कूल में 50 बच्चे थे. इस परियोजना में बाल श्रमिक के रूप में काम करने वाले बच्चों को स्कूल में छात्रावास की सुविधा भी प्रदान की जाती थी और उन्हें 300 रुपये मासिक वजीफा भी दिया जाता था. इसके अलावा उनके लिए कपड़े और लंच आदि की भी व्यवस्था की गई थी. पहला स्कूल वर्ष 2000 में बवानी गांव में खोला गया था. अगले वर्ष तीन नए स्कूल नोलाखा, किशनगढ़ और मेहमी में खोले गए. इन स्कूलों में कुल 200 बच्चे थे, जो खनन का काम करते थे. इन स्कूलों में छात्रों को पांचवीं तक पढ़ाया जाता था. सरकार ने इस परियोजना को साल 2012 तक जारी रखा. इस प्रकार इन 12 वर्षों में 650 से अधिक बच्चे बाल श्रम के दलदल से बाहर निकले. शंकर का कहना है कि इस परियोजना के अलावा उनका संगठन जीएमवीएस ने अपने निजी संसाधनों का उपयोग कर बाल श्रम के खिलाफ एक अभियान भी शुरू किया और अब तक 20,000 से अधिक बच्चों को बाल श्रम से मुक्त करने में सफल रहा है. वे सभी बच्चे पंचायतों के स्कूलों में जाते हैं जहां परियोजना चल रही थी. श्री दीपक का कहना है कि उक्त संस्था ने कोविड काल में राशन वितरण के साथ ही जरूरतमंदों को 30 लाख रुपये का सामान व नकद राशि का वितरण किया. यह पैसा क्षेत्र के फैक्ट्री मालिकों और हितग्राहियों से प्राप्त हुआ था. पहले लॉकडाउन के दौरान 1,500 परिवारों की सहायता की गई और दूसरे लॉकडाउन के दौरान लगभग 10,000 परिवारों की सहायता की गई. लेखक वर्क नो चाइल्ड्स बिजनेस के फेलो हैं.
राजस्थान
(चरखा फीचर)
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