पैसिफ़िक क्षेत्र के द्वीप देश, फ़िजी, की मेनका गौंदन ने कहा कि पैसिफ़िक महासागर (प्रशांत महासागर) दुनिया का सबसे विशाल सागर है परंतु भीषण जलवायु आपदाएँ भी यहीं पर व्याप्त हैं। पैसिफ़िक क्षेत्र के द्वीप देशों ने जलवायु को सबसे कम क्षति पहुँचायी है परंतु जलवायु आपदा का सबसे भीषण कुप्रभाव इन्हीं को झेलना पड़ रहा है। प्रशांत महासागर का तापमान बढ़ रहा है जिसके कारणवश जल-स्तर में बढ़ोतरी हो रही है और छोटे पैसिफ़िक द्वीप देश जैसे कि नाउरु और तुवालू पर यह ख़तरा मंडरा रहा है कि कहीं वह समुद्री जल में विलुप्त न हो जाएँ। मेनका गौंदन, फ़िजी महिला कोश की अध्यक्ष हैं और २४वें इंटरनेशनल एड्स कॉन्फ़्रेन्स में हिंदी-भाषी प्रकाशन के विमोचन सत्र को सम्बोधित कर रही थीं। यह हिंदी-भाषी प्रकाशन, “ग्रह ए में जलवायु न्याय”, मलेशिया के एरो (एशियन पैसिफ़िक रिसोर्स एवं रीसर्च सेंटर) ने प्रकाशित किया है और भारत-स्थित सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) ने इसका अनुवाद किया है। “१९८०-१९९० के दशक में जब पैसिफ़िक क्षेत्र में परमाणु परीक्षण हो रहे थे तब से पैसिफ़िक क्षेत्र की महिलाओं ने जलवायु न्याय का संघर्ष बहादुरी से लड़ा है। जलवायु संवाद हो या पर्यावरण न्याय की मुहम, महिलाओं ने पहली पंक्ति से नेतृत्व प्रदान किया है। पर जलवायु नीति निर्माण में महिलाओं की भागेदारी पर अंकुश क्यों? जो लोग जलवायु परिवर्तन के कारण सबसे भीषण रूप में प्रभावित हुए हैं, जलवायु संवाद और नीति निर्माण में उनकी भागेदारी पर ग्रहण क्यों?” पूछती हैं मेनका। एरो की निदेशिका सिवानंथी थानेनथिरन ने कहा कि कोविड-१९ महामारी के पिछले ढाई सालों में अनेक जलवायु आपदाएँ भी घटित हुई हैं। इनके कारण, स्वास्थ्य व्यवस्था और बाक़ी ढाँचागत प्रणाली भी ध्वस्त होती हैं, और यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ लोगों की पहुँच से बाहर हो जाती हैं। एचआईवी सम्बंधित सेवाएँ जैसे कि परीक्षण, जीवनरक्षक एंटीरेट्रोवाइरल उपचार, आदि भी बाधित होते हैं। जलवायु आपदाओं के दौरान स्थानीय लोग अकसर दूर-दराज़ जाने को मजबूर हो जाते हैं जिससे कि दैनिक ज़रूरतों के लिए पानी, भोजन और ऊर्जा-स्त्रोत लकड़ी आदि मिल सके। इसीलिए लड़कियों और लड़कों पर होने वाली अनेक प्रकार की हिंसा का ख़तरा बढ़ जाता है। अनचाहे गर्भ हो या यौन संक्रमण जिनमें एचआईवी भी शामिल है, इनका अनुपात इस दौरान अकसर बढ़ जाता है। ऐसा भी होता है कि इन आपदाओं के कारण स्थानीय लोगों को विस्थापित होना पड़ा हो। ऐसे में परिवार नियोजन सेवाओं के बाधित होने के कारण, और पलायन के दौरान लोगों की मजबूरी के कारण, असुरक्षित यौन सम्बंध का अनुपात भी बढ़ता है। सिवानंथी ने कहा कि यह समझने की ज़रूरत है कि आपदा में समाज के हाशिये पर रह रहे लोग सबसे बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। फ़िलिपींस की प्रख्यात जलवायु न्याय कार्यकर्ती तेतेत-नेरा लौरॉन ने कहा कि जलवायु आपदाओं के कारण जो भी प्रगति प्रजनन स्वास्थ्य और महिला अधिकार पर हुई है वह पलट रही है, जैसे कि, प्रजनन और स्वास्थ्य सेवाओं का बाधित या ध्वस्त होना, महिलाओं को बराबरी के साथ वेतन न मिलना आदि। एरो और अन्य शोध यह प्रमाणित करते हैं कि जलवायु आपदाओं में लड़कियों और महिलाओं को अधिक हिंसा झेलनी पड़ती है।
फ़िथरियाह इसकंदर जो युवा चिकित्सक हैं और पर्यावरण पर अनेक वर्षों से कार्य कर रही हैं, ने कहा कि यदि बच्चों और युवाओं को जलवायु परिवर्तन को रोकने की मुहिम में नहीं शामिल किया गया तो यह आने वाले भविष्य में उसी तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सकते हैं जैसा कि हमारी पीढ़ी ने किया है। यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम युवाओं को भागीदार बनाएँ और निर्णय लेने की प्रक्रिया में बराबरी के साथ शामिल करें। कनाडा में हो रहे इस सत्र का संचालन सीएनएस की संस्थापिका और लारेटो कॉन्वेंट कॉलेज की पूर्व वरिष्ठ शिक्षिका शोभा शुक्ला कर रही थीं। जब हम जलवायु संवाद में, महिला जागरूकता, सुरक्षा और सहभागिता की बात कर करते हैं तो यह मुल्यांकन करना ज़रूरी है कि क्या सही मायने में पुरुष और महिला सहभागी हैं? जलवायु आपदा न भी हो तब भी ऐसा क्यों है कि अक्सर महिलाओं द्वारा स्वास्थ्य लाभ उठाने में देरी हो जाती है? नारीवादी शोभा शुक्ला ने जोर देते हुआ कहा कि लैंगिक असमानता कोई सृष्टि द्वारा नहीं रचित है बल्कि दकियानूसी पित्रात्मक सामाजिक ढाँचे से जनित है। यह अनेक घरों का सच है कि लड़की हो या महिला अक्सर घर-घर में वही सबकी देखभाल करती है। जब आपदा आती है तब भी महिलाओं पर सबकी देखभाल करने का अतिरिक्त बोझ आता है- भले ही वह उनको ख़तरे में डाले। जैसे कि जलवायु आपदा में विस्थापित होने के बावजूद वह दूर-दराज़ तक पानी, भोजन, या खाना बनाने के लिए लकड़ी लेने जाती हैं जो उन पर होने वाली हिंसा का ख़तरा बढ़ाता है। शोभा शुक्ला ने सवाल उठाया कि ऐसी कौन सा जीन है जो पुरुष को देखभाल करने नहीं देती? शोभा शुक्ला का मानना है कि जलवायु परिवर्तन का स्थायी समाधान सिर्फ़ नारीवादी विचारधारा पर आधारित ऐसे विकास ढाँचे के ज़रिए निकलेगा जो सबके सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण को केंद्र में रखता हो। जलवायु संवाद और नीति निर्माण में समाज के जो लोग सबसे अधिक आपदाओं से प्रभावित होते हैं और हाशिए पर रह रहे हैं, उनको शामिल करना और उनकी महत्वपूर्ण भागेदारी सुनिश्चित करना ज़रूरी है।
--बॉबी रमाकांत--
सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
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