दर्शनमात्र से कट जाते है सारे पाप,
मिलता है पुत्र रत्न प्राप्ति का वरदान
जी हां, ये देवों के देव महादेव का वो मंदिर है जहां भगवान से पहले भक्त का नाम आता है। कहते है भक्त मार्कण्डेय के तप के आगे यमराज को भी झुकना पड़ा। नहीं कर सके भक्त के प्राण का हरण, क्योंकि भक्त के साथ थे महादेव। कहते है महामृत्युंजय मंत्र की उत्पत्ति भी यही से हुई है। मान्यता है कि मार्कण्डेय महादेव मंदिर वह दिव्य व मनोरम स्थल है जहां भक्तों के दर्शन मात्र से ही दूर हो जाते है सभी कष्ट और पाप। गंगा-गोमती संगम में स्नान कर महादेव की परिक्रमा व विधि-विधान से पूजन-हवन कर लेने मात्र से भक्तों की हो जाती है हर प्रकार के सुखों की अनुभूति व पूरी होती है मनचाहा मुरादें। शत्रु तो परास्त होते ही है, मिलता है संतान प्राप्ति का वरदान। इतना ही नहीं यहां प्रेमी-प्रेमिकाएं सात फेरे लेकर प्राप्त करते है सात जन्मों तक साथ-साथ रहने का फल। विवाह के उपरांत मंदिर के पुजारी देते है विवाह का भी सर्टिफिकेट, जिसे डीएम भी नहीं करते इंकार। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने न सिर्फ अपने कुछ माह यहां बिताएं थे, बल्कि अग्निष्टमों यज्ञ कर प्राप्त किया था अमरत्व का वरदान
पुराणों में भी मारकंडे महादेव कैथी धाम की महत्ता द्वादश ज्योतिर्लिंग के बराबर बताई गयी है। मंदिर के पुजारी सुदर्शन महराज ने बताया कि मारकंडे महादेव का वर्णन मारकंडेय पुराण समेत कई धार्मिक ग्रंथों में भी देखने को मिलता हैं। मारकंडेस्य राजेन्द्रतीर्थमासाध्य दुलर्भम् गोमती गंगयोस्यचैव संगमेव लोक विश्वमयते, अग्निष्टमोवाचैव समुद्रे यानी महाभारत के पवपर्वतें के 84 अध्याय में मारकंडे जी का उल्लेख है, जिसमें नारद जी युधिष्ठिर को समझा रहे है कि यह स्थान अत्यंत दुलर्भ क्षेत्र है और गंगा-गामती के संगम पर स्थित है। ऐसा संगमस्थल कहीं नहीं है। जो लोग संगम में स्थान कर मारकंडे महादेव को एक लोटा जल चढ़ाते है उन्हें अंतयेष्टि यज्ञ का फल प्राप्त करते है। भगवान नारद के कहने पर ही पांडवों ने यहां गंगा-गोमती संगम में स्नान कर महादेव को जलाभिषेक किया और अग्निष्टोम यज्ञ कर मारकंडे महादेव से प्राप्त किया था जन्म जन्मांतर यशस्वी होने का वरदान। इसके बाद पांचों पांडवों को सिद्धि मिली। भक्त मारकंडे को अमरत्व प्राप्त होने की व्याख्या करते हुए महराज ने बताया कि अश्वस्थामा बर्लिव्यासु हनुमानश्च विभिषणम् कृपा परशुरामश्च सप्तैतः चीरजीवनम्, सप्तैत ईश्वरनृत्यम् मारकंडे मथाष्टतम्। इन आठों ऋषियों में मारकंडे को भी अमरत्व का आर्शीवाद प्राप्त है। इसीलिए भगवान महादेव के नाम के आगे भक्त मारकंडे का नाम जुड़ा है और भगवान शंकर के नाम से इस तीर्थस्थल का नाम मारकंडे महादेव पड़ा है। इस स्थान को मारकंडेश्वर भी कहा जाता है। कहते है यही वह स्थान है जहां मृत्यु पर विजय पाने के उपरांत भक्त मार्कण्डेय ने महामृत्युंजय मंत्र - ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगनिं्ध पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृ त्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ मंत्र की रचना की थी। इसका उल्लेख हरवंश पुराण, पद्यपुराण, मारकंडेय पुराण, रामचरीत मानस और महाभारत के वन पर्व में भी किया गया है। मंदिर प्रांगण में मुख्य मंदिर के चारों ओर विभिन्न देवी देवताओं के मंदिरों का समूह है। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में पहुंचने पर अंतजर््योति और ध्यान के प्रती मृत्यु, विध्वंस और विनाश के देवता कहे जाने वाले नीलकंठ भगवान शिव के दर्जन होते हैं। मंदिर में प्रतिष्ठापित शिवलिंग कब प्रकाश में आया कुछ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। लेकिन, इतना जरूर कहा जाता है कि इसकी स्थापना मारकंडेय ऋषि ने युगों पूर्व की थी। कैथीवासियों की माने तो वर्षों पूर्व यह शिवलिंग इसी गांव के जमींदार के खेत में हल चलाते समय मिला था। स्वप्न में मिले आदेश पर इस शिवलिंग को उसी स्थान पर प्रतिष्ठित करवा दिया गया। शिवलिंग पर बने निशान को कुछ लोग हल का फाल लगा मानते हैं तो कुछ इसे यमराज द्वरा मारकंडेय के गले में फेंगे गए पाश की निशानी। कालांतर में होलकर वंश के महाराजा बड़ोदरा नरेश ने इस मंदिर का जिर्णोद्धार काशी नरेश के सहयोग से करवाया था। इस मंदिर का ट्रस्टी और मुख्य अध्यक्ष वाराणसी का जिलाधिकारी होता है। गंगा और गोमती के किनारे वाले इस मंदिर के शिखर पर फहरा रही धर्म ध्वजा सहसा यह अहसास कराती है कि देखो इस युग में भी हमारी मान्यता कम नहीं हुई है। कहा जाता है कि यह स्थान 1884 के आसपास अस्तित्व में आया है। जो लोग इस स्थान पर महामृत्युंजय का पाठ व नौ दिन तक जमीन पर सोकर भागवत पुराण का पाठ कर लें तो उसे निश्चय ही पुत्र रत्न का प्राप्ति होती है।
पौराणिक मान्यताएं
कथानुसार, भृगुपुत्र मृकण्डु नैमिसारण में पत्नी अरुंधति के साथ तपस्या करते थे। उनके भाग्य में संतान सुख नहीं था। भगवान शिव की कृपा से लंबे समय बाद उन्हें सर्वगुणसंपन्न एक पुत्र पैदा हुआ। धीरे-धीरे वह बालक पांच वर्ष का हो गया। मारकंडेय नाम का यह बालक एक दिन कुटिया के बाहर खेल रहा था, उसी समय किसी महामुनि की दृष्टि उस बच्चे पर पड़ी। उन्होंने उस बच्चे के मुखमंडल से निकलती हुई आभा को काफी देर तक देखते रहे। सहसा मृकण्डु ने अपने बालक की आयु और गुण के बारे में ऋषि से पुछ लिया कि मेरे पुत्र की आयु कितनी है। उस ज्ञानी ने कहा मुनिवर, विधाता ने तुम्हारे पुत्र की जो आयु निश्चित की है उसमें अब महज छह माह शेष बचे हैं। ज्ञानी पुरुष की बात सुन कर उन्होंने अपने पुत्र का यज्ञोपवित संस्कार कर दिया और कहा- बेटा, तुम जिस किसी को भी देखो उसका सतवन प्रणाम करो। पिता की आज्ञा मान पुत्र मारकंडेय ने ऐसा ही करना शुरू कर दिया। जीवन के मात्र पांच दिन ही शेष बचे थे धीरे-धीरे पांच माह 25 दिन बीत गए। इसी बीच एक दिन अचानक सप्तऋषि उसी रास्ते पधारे। स्वभाव के अनुसार बालक मारकंडेय ने उन्हें भी प्रणाम किया। सप्तऋषियों ने उस बालक को आयुष्मान भव पुत्र कह कर दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे दिया। जब उन ऋषियों ने उस बालक के आयु के बारे में विचार किया तो उसके जीवन के मात्र पांच दिन ही शेष बचे थे। तत्काल ही सप्तऋषियों ने उसे साथ ले परमपिता ब्रह्मा के पास गए। बच्चे ने उनका भी नमन किया। ब्रह्मा ने भी उसे चीरआयु होने का आशीर्वाद दे दिया। उनका यह आशीर्वाद सुनकर उन ऋषियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। जब ब्रह्मा ने उन ऋषियों के आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यह बच्चा मृकण्डु का पुत्र मारकंडेय है, जिसके जीवन के कुछ ही दिन शेष रह गए हैं। हमलोग तीर्थयात्रा के लिए उधर से निकल रहे थे कि सबको प्रणाम करने के स्वभाव के कारण उसने हम लोगों को भी प्रणाम किया। इसपर हम लोगों ने उसे लंबी आयु का आशीर्वाद दे दिया। अतः पितामह हमलोग आपके साथ वचन के झूठे क्यों बनें। इसपर ब्रह्मा ने कहा कि यह आयु में मेरे समान होगा। यह बालक क्लप के आदि और अंत में मुनियों से घिरा हुआ हमेशा जीवित रहेगा, लेकिन इसके लिए इसे जीवन के शेष बचे दिनों में महादेव की तपस्या गंगा और गोमती के तट पर कर करनी होगी। ऐसा उल्लेख मारकंडेय पुराण में मिलता है कि वे अपने पिता की आज्ञा ले काशी के निकट गंगा-आदिगंगा (गोमती) के संगम पर स्थित कैंथ के जंगलों में मिट्टी का पारद शिलिंग बनाकर तपस्या करने लगे। नियम समय पर यमदूत आए, लेकिन तपस्या में लीन उस बालक के तेज के आगे वे उसके पास न जा पाए। अतः उन्हें लौटना पड़ा। फिर यमराज स्वयं उसके प्राण लेने आए। इनसबसे बेखबर शिव आराधना में तंलीन बालक -’रत्नसान सरासन्, रचतादिसिंग निकेतनम् ...’ 16 पदों का श्लोक पढ़ रहा था। आत्मविभोर हो यमराज उसबालक को अपलक देखते रहे। जैसे ही श्लोक समाप्त हुआ, उन्होंने बालक के प्राण लेने के लिए उसके गले में पाश फेंका और खिंचने लगे। वेलपत्रों से पूजित शिवलिंग पकड़ कर बालक प्राण रक्षा हेतु देवाधिदेव महादेव को कातर स्वर में पुकारने लगा। बालक की करुण पुकार सुनकर भष्मभूत महादेव वैसे ही दौड़े आए जैसे बालक अपनी मां को न पाकर व्याकुल हो उसे पुकारता है। और उसकी व्याकुलता को देख पास आ जाती है और उसे गले लगा कर पुचकारती है। पीठ थपथपा कर सीने से लगा लेती है। नीलकंठ ठीक उसे तरह यमराज पर क्रोधित हो अस्त्र उठा लिए जिस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने सुदर्शनचक्र उठा कर अपनी प्रतिज्ञा भंग कर ली थी। भगवान शिव के क्रोध से डरे यमराज ने कहा- हे महाकाल जो इस घरती पर जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर यह बाल जिसकी आयु पुरी हो चुकी है भला वह जीवित कैसे रह सकता है। इसपर उन्होंने कहा कि इसका जन्म जब विधाता के विधान में है ही नहीं तो फिर मृत्यु कैसी। आगे चलकर मारकंडेय ने पुष्कर में आपना आश्रम बनाया। इसी पुष्कर में पिता के श्राद्ध के लिए त्रेतायुग में भगवान श्री राम भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता सहित पधारे थे। युगों बाद भी कायम रही आस्था काल के अंतराल में सबकुछ बदल गया लेकिन नहीं बदली तो आस्था, मान्यता। जो इस मंदिर के प्रति लोगों में सदियों से चली आ रही है। इसी मान्यता के चलते आज भी लोग दूर-दूर से आकर मृत्यु पर विजय दिलाने वाले महामृत्युंजय भगवान मारकंडेय महादेव के आगे अपनी झोली फैलते हैं।
गंगा-गोमती संगम
गंगा-गोमती संगम के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए पुजारी ने बताया कि इंद्र भगवान को गौतम ऋषि के श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए गोमती नदी का जन्म हुआ। गोमती का उद्गम स्थल पीलीभीत के माधौटांडा कसबे के पास (गोमत ताल) फुलहर झील है। पीलीभीत से चलकर आदिगंगा के नाम से मशहूर गोमती शाहजहांपुर, लखीमपुर, हरदोई, सीतापुर, मिश्रिख, लखनऊ, बाराबंकी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, जौनपुर, गाजीपुर, वाराणसी के बीच तकरीबन 1000 किमी का सफर तय कर काशी के कैथी स्थित मारकंडेय महादेव के पास मां गंगा की गोद में विश्राम लेती हैं। मान्यता है कि इंद्र ने एक बार गौतम ऋषि का रूप धर कर उनकी पत्नी अहिल्या से छल किया था। कुपित गौतम ऋषि ने इंद्र और अहिल्या कौ श्राप दे दिया था। काफी अनुनय-विनय करने पर गौतम ऋषि ने श्राप मुक्ति के लिए इंद्र को पतित पावनी गोमती नदी के तटों पर 1000 स्थानों पर शिवलिंग स्थापित कर तपस्या करने को कहा। इंद्र ने ऐसा करते हुए गंगा-गोमती संगम में आकर तप किया, तब कहीं जाकर उनको ऋषि के श्राप से मुक्ति मिल सकी। मंदिर की बढ़ती महत्ता व आने वाले श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या के मद्देनजर तत्कालीन राज्य मंत्री डा महेन्द्रनाथ पांडेय ने इस स्थान पर विशाल चबुतरा निर्माण के साथ-साथ श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए कई कमरों का विश्रामालय, शौचालय आदि का भी निर्माण करवाया है, जहां दूर-दराज के श्रद्धालु आकर ठहरते है। तकरीबन 20 एकड़ से भी अधिक भूभाग में मंदिर का विस्तारीकरण हुआ है। मंदिर परिसर के बाहर हर तरह की यानी खाने-पीने से लेकर विवाह तक के कार्यक्रम में लगने वाले सामानों की दुकाने मौजूद है। यहां हर दिन दो-चार सादियां यहां के पुरोहितों द्वारा संपंन कराया जाता है। विवाह के बाद मंदिर के पुजारी द्वारा सर्टिफिकेट भी दिया जाता है, जिसे लोग कोर्ट मैरिज में इस्तेमाल करते है। मारकण्डेय महादेव मंदिर के शिवलिंग पर जो बेल पत्र चढ़ाया जाता है, उस पर चन्दन से श्रीराम का नाम लिखा जाता है जो कि मंदिर के द्वार पर पंडितों द्वारा प्राप्त होता है।
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