देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कश्मीर में लगभग 32 साल पहले हुए कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की जांच का निर्देश देने से एक बार फिर इन्कार कर दिया है। कोर्ट में दायर याचिका में 700 कश्मीरी पंडितों की हत्या के मामले में दर्ज केसों में से 215 मामलों की दोबारा जांच के आदेश देने की मांग की गई थी।याचिका खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि इतने सालों बाद सबूत जुटाना बेहद मुश्किल होगा।माननीय न्यायालय के इस निर्णय से कश्मीरी पंडित-समुदाय बेहद विक्षुब्ध है।पंडितों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने रात को याकूब मेनन जैसे उग्रवादी के लिए अपना कार्यालय खोला,1984 के सिख-दंगों का 32 साल बाद केस खोला और ‘आज बहुत समय निकल चुका है’ कह कर कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय का द्वार बंद कर दिया।कश्मीरी पंडितों की कई संस्थाओं ने कोर्ट के इस निर्णय को पंडितों के साथ अन्याय बताया है और कहा है कि चूँकि उनका कोई वोट बैंक नहीं है,इसलिए उनकी फ़रियाद को हर-हमेशा टाला जाता रहा है। कश्मीरी पंडित नेता अग्निशेखर ने सर्वोच्च न्यायालय की इस उदासीनता पर गहरा दुःख जताया है और कहा है कि हमारा शान्ति-प्रिय कश्मीरी-पंडित-समुदाय अब जाय तो कहाँ जाय? गौर तलब है कि19 जनवरी 1990 को पाक समर्थित जिहादियों द्वारा कश्यप-भूमि की संतानों (कश्मीरी पंडितों) को अपनी धरती से बड़ी बेरहमी से बेदखल कर दिया गया था और धरती के स्वर्ग में रहने वाला यह शांतिप्रिय समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हुआ था। यह वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि, अपने घर-बार आदि को हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा था। लगभग बतीस साल हो गए हैं पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग आपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से ही देखा। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती! लगभग बतीस सालों के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। एक समय वह भी आएगा जब उपनामों को छोड़ इस जाति की कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। यहाँ पर इस बात को रेकांकित करना लाजिमी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण और राष्टभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता।सुब्रमण्यम स्वामी कब तक पंडितों के दुःख-दर्द की आवाज़ उठाते रहेंगे? अतः ज़रूरी है कि सरकार पंडित-समुदाय के ही किसी जुझारू, कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुःख दर्द को देश तक पहुँचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले। अन्य मंचों की तुलना में देश के सर्वोच्च मंच से उठाई गयी समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है।
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें