- आरक्षण को खत्म करने की भाजपाई साजिश के खिलाफ आज माले का राज्यव्यापी प्रतिवाद.
- पटना में कारगिल चैक पर हुआ प्रतिवाद, माले विधायकों सहित जुटे सैकड़ो लोग.
पटना हाई कोर्ट द्वारा नगर निकाय चुनाव में पिछड़ों के आरक्षण को गैरकानूनी बताए हुए आरक्षित सीटों पर चुनाव रद्द करने के आदेश के बाद संपूर्ण चुनाव को ही राज्य चुनाव आयोग द्वारा अगले आदेश तक स्थगित किए जाने के खिलाफ आज भाकपा-माले ने राज्यव्यापी विरोध दिवस का आयोजन किया. राजधानी पटना सहित पूरे राज्य में माले कार्यकर्ताओं ने आरक्षण को खत्म करने की भाजपाई साजिश का भंडाफोड़ करते हुए यह प्रतिवाद किया. पटना के कारगिल चैक पर आयोजित विरोध सभा को माले के वरिष्ठ नेता काॅ. केडी यादव, केंद्रीय कमिटी के सदस्य सरोज चैबे, विधायक सुदामा प्रसाद व गोपाल रविदास, अनिता सिन्हा, जितेन्द्र कुमार, मुर्तजा अली, राखी मेहता, एआइपीएफ के संयोजक कमलेश शर्मा, राजेन्द्र पटेल, संजय यादव, विनय कुमार आदि नेताओं ने संबोधित किया, जबकि संचालन पार्टी की राज्य स्थायी समिति सदस्य रणविजय कुमार ने की. माले नेताओं ने अपने संबोधन में कहा कि हाई कोर्ट का कहना है कि निकाय चुनाव में पिछड़ों के आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट के 2010 के फैसले में तय “ट्रिपल टेस्ट” का पालन राज्य चुनाव आयोग ने नहीं किया है. इसलिए आरक्षण गैर कानूनी है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शिक्षा और सरकारी नौकरी में दिए जा रहे आरक्षण की तर्ज पर निकाय चुनाव में आरक्षण नहीं दिया जा सकता. अगर सरकार निकाय चुनाव में पिछड़ों के लिए आरक्षण चाहती है तो इसकी खातिर उसे ट्रिपल टेस्ट (3 शर्तें) पास कराने होंगे. माले नेताओं ने कहा कि सुनने में सुप्रीम कोर्ट की बात ठीक लग सकती है, लेकिन अगर इसकी प्रक्रिया देखें तो साफ पता चलता है कि आरक्षण के मामले में यह अड़ंगा लगाना ही है. पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों का पिछड़ापन बहुत स्पष्ट है. शिक्षा और नौकरी में आरक्षण के साथ पंचायतों/नगर निकायों सहित अन्य राजनीतिक संदर्भों में पिछड़ों-अतिपिछड़ों को आरक्षण उनके ऐतिहासिक पिछड़ेपन को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
बिहार में जातीय जनगणना होने वाली है. जनगणना के बिंदुओं को और व्यापक बनाने का निर्देश भी हाई कोर्ट दे सकता था जिससे कि पिछड़ों के आरक्षण के ट्रिपल टेस्ट की शर्तें भी पूरी हो जातीं. चुनाव अंतिम चरण में था. आर्थिक संकट के इस गंभीर दौर में सरकार और जनता के करोड़ों रुपए खर्च हो चुके थे. इसे रोकना न सिर्फ एक भारी आर्थिक क्षति है, बल्कि स्थानीय स्तर पर कार्यरत लोकतांत्रिक प्रणाली को भी बाधित करना है. फिर, 2007 में नगर निकाय चुनाव के नियम बनने के बाद 3 बार चुनाव हो चुके हैं और पिछड़ों को आरक्षण भी दिया जा चुका है. दूसरी ओर पिछड़ों के आरक्षण के पक्ष में भाजपा घड़ियाली आंसू बहा रही है. जबकि विगत तीनों निकाय चुनाव 2007, 2012 और 2017 के समय भाजपा के पास ही नगर विकास मंत्रालय रहा है. 2010 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भी दो चुनाव हुए हैं, लेकिन न तो भाजपा का ज्ञान खुला और न ही उसमें पिछड़ा प्रेम जागा. वर्तमान चुनाव की प्रक्रिया भी भाजपा-जदयू सरकार के कार्यकाल में ही शुरू हुई थी. दरअसल, सत्ता खोने से बौखलाई भाजपा बिहार के सामाजिक/राजनीतिक जीवन में हर हाल में खलल डालने और व्यवधान पैदा करने में लगी है और ऊपर से पिछड़ा प्रेम का ढोंग भी कर रही है. इसे बिहार की जनता अच्छे से समझती है. आरक्षण खत्म करने की भाजपाई साजिश नहीं चलने वाली है. यदि भाजपा ने जातीय जनगणना पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी होती तो आज यह मामला ही सामने नहीं आता.
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