मध्य प्रदेश में 85 हजार आशा, उषा और इनके कामों में सहयोग करने और निगरानी करने वाली आशा पर्यवेक्षक हैं, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित स्वास्थ्य योजनाओं में काम करती हैं, लेकिन न तो इन्हें स्थायी कर्मचारी का दर्जा प्राप्त है और न ही श्रम कानूनों के अनुरूप मानदेय या वेतन मिलता है. हालांकि यह काम एक स्थायी कर्मचारी के बराबर ही करती हैं बल्कि कई बार उनसे अधिक काम करती हैं. अपने अधिकारों के लिए कई बार वह शांतिपूर्ण आंदोलन भी कर चुकी हैं. लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं निकल सका है. काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलने से न केवल वह मानसिक रूप से परेशान हो रही हैं बल्कि उनके परिवार को भी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. इस संबंध में अपनी परेशानी साझा करते हुए बैतूल की एक आशा वर्कर माधुरी धुर्वे (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि वह पूरे दिन काम करती हैं. घर-घर जाकर पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सेहत के बारे में पूछती हैं, उनकी जानकारी वरिष्ठ स्तर को प्रेषित करती हैं. बुखार से पीड़ित ग्रामीणों को दवाइयां बांटती हैं. पल्स पोलियो से लेकर सभी प्रकार के टीकाकरण अभियानों में हिस्सा भी लेती हैं. गर्भवती माताओं की नौ माह तक देखभाल करती हैं, उनका हालचाल लेती हैं, उनका टीकाकरण करवाती हैं, प्रसव पीड़ा होने पर उन्हें अस्पताल लेकर जाती हैं. कोरोना महामारी जैसी कोई महामारी फैल जाए तो खुद की और परिवार के सदस्यों की जान की फिक्र किए बिना घर से बाहर निकलकर काम करती हैं. जिसके लिए उन्हें महीने में मात्र 2000 रुपये मानदेय मिलता है. इसके अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि भी मिलती है, जैसे-उनके कार्य क्षेत्र में कोई महिला दो बच्चे पर नसबंदी ऑपरेशन करवाती है तो 1200 रुपये, दो से अधिक बच्चों पर नसबंदी ऑपरेशन कराने वाली एक महिला पर 200 रुपये, एक गर्भवती महिला को सरकारी अस्पताल में डिलीवरी करवाने के लिए प्रोत्साहित करने, उसकी सभी स्वास्थ्य जांचें करवाने में मदद करने पर 1200 रुपये, यदि गर्भवती महिला घर में या किसी निजी अस्पताल में प्रसव कराती हैं तो 600 रुपये, गर्भवती महिलाओं का पंजीयन गर्भधारण से 3 महीने की अवधि के भीतर करवाने में मदद करने पर 200 रुपये, टीबी के मरीज की देखरेख करने व 6 माह तक उसे दवाइयां देने के बदले 1000 रुपये, खून की कमी से जूझ रही किशोरियों व महिलाओं की देखभाल करने व उन्हें आयरन सुक्रोज की बोतल चढ़वाने पर प्रति बोतल 200 रुपये प्रोत्साहन मिलता है. लेकिन एक गांव में एक से अधिक आशा कार्यकर्ता हैं. जिनके क्षेत्र में अधिक जनसंख्या होती है उन्हें तो ठीक राशि मिल जाती है लेकिन जिनके क्षेत्र की आबादी कम होती है उनके कार्य क्षेत्र वाले मोहल्लों में वर्ष भर में न्यूनतम दो और अधिकतम 4 डिलेवरी ही होती है. इसलिए उनके लिए महीने में नाममात्र की प्रोत्साहन राशि बनती है.
माधुरी कहती हैं कि महीने में 4 से 6 बार उन्हें प्रशिक्षण व अन्य विभागीय कार्यों के कारण ब्लॉक मुख्यालय भी जाना पड़ता है. वहीं वर्ष में कम से कम 4 बार जिला मुख्यालय जाना पड़ता है. इसी बीच क्षेत्र में मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक के दौरे होते हैं या फिर अन्य शासकीय कार्यक्रम होते हैं. इन सभी में जाने-आने में महीने में 2000 से 2500 रुपये खर्च हो जाते हैं. इस तरह एक आशा वर्कर को उसकी मेहनत भी नहीं निकल पाती है. इससे उनके घर के काम भी प्रभावित होते हैं. घर का खर्च भी नहीं निकाल पाने के कारण परिवार के सदस्य नाराज होते हैं और कई बार काम छोड़ने का भी दबाव बनाते हैं. वह कहती है कि हम इस उम्मीद से काम कर रहे हैं कि किसी न किसी दिन सरकार आशा कार्यकर्ताओं की पीड़ा को समझेगी और वेतन तथा अन्य मानदेय बढ़ाएगी. माधुरी कहती हैं कि कम वेतन और मानदेय के कारण वह लोग मानसिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ रही हैं. न तो घर का खर्च निकाल पा रही हैं और न ही बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला दिला पाई हैं. मध्यप्रदेश में अकेले माधुरी धुर्वे ही उपेक्षा का शिकार नहीं हो रही है, बल्कि यह हाल सभी 85 हजार आशा, उषा कार्यकर्ता व आशा पर्यवेक्षकों का है. हालांकि आशा पर्यवेक्षकों को प्रति कार्य दिवस के हिसाब से 350 रुपये मिलते हैं. यदि वह सभी 30 दिन काम करती हैं तो 10,500 रुपये मिलते हैं लेकिन महीने में 4 दिन का अवकाश होता है, जिसकी राशि उन्हें नहीं मिलती है या फिर कोई जरूरी काम के कारण अवकाश पर रहना पड़े तो उसकी राशि भी काट ली जाती है. इसलिए आर्थिक तंगी से जूझ रही कुछ आशा पर्यवेक्षक महीने में 30-30 दिन काम कर रही हैं, जो श्रम कानूनों के खिलाफ है. जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि यदि कोई भी संस्थान काम के बीच में कर्मचारियों के कल्याण से जुड़ी गतिविधियां संचालित नहीं करता है, उन्हें अवकाश की पात्रता नहीं देता है तो उस संस्थान द्वारा किए जाने वाले कामों की गुणवत्ता पर विपरीत असर पड़ना तय है, क्योंकि लगातार काम करने से कर्मचारी भी मानसिक रूप से थक जाते हैं या खुद को परेशान महसूस करते हैं. लगातार काम करने वाली आशा पर्यवेक्षकों के साथ यही हो रहा है.
इस संबंध में मप्र आशा उषा कार्यकर्ता सहायिका एकता यूनियन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष एटी पद्मनाभन कहते हैं कि मप्र में इन 85 हजार महिलाओं का एक प्रकार से शोषण किया जा रहा है. वे बताते हैं कि आशा कार्यकर्ताओं को आंध्र प्रदेश में 10 हजार रुपये, तेलंगाना में 9,500 रुपये, केरल में 9,000 रुपये, दिए जाते हैं. देशभर में आशा उषा कार्यकर्ताओं को केंद्र सरकार द्वारा 2,000 रुपये मानदेय दिया जाता है, बाकी के राज्यों में उसके अतिरिक्त जो मानदेय दिया जा रहा है वह उन राज्यों का अपना हिस्सा है, जो कि मप्र सरकार द्वारा कुछ भी नहीं दिया जा रहा है. केवल यहां केंद्र सरकार से दिया जाने वाला 2,000 रुपये ही मिल रहा है. इसके अलावा मप्र में 1.50 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाएं भी कार्यरत हैं. जिनकी स्थिति भी आशा और उषा कार्यकर्ताओं की तरह है. ये शहर से लेकर गांव तक आंगनबाड़ी केंद्रों का संचालन करती हैं, इनमें छोटे बच्चों को अक्षर ज्ञान कराती हैं, बोलना सिखाती हैं, उनकी सेहत का ध्यान रखती हैं. एक तरह से ये भी गर्भवती माताओं का ध्यान रखती हैं. कुपोषण से लड़ने में उनकी मदद करती हैं और सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सक्रिय भूमिका निभाती हैं. इसके बदले आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को प्रति माह 10 हजार रुपए मिलते हैं, जिसमें 5,500 राज्य का हिस्सा व 4,500 केंद्र सरकार मिलाती है. जबकि आंगनबाड़ी सहायिकाओं को 5,000 रुपये मानदेय मिलता है। जिसमें 2,750 रुपये राज्य का अंश होता है बाकी का केंद्र का होता है. बीते कई वर्षों से इनकी मांग है कि इन राशियों में वृद्धि की जाए. इसको लेकर कई बार विरोध भी दर्ज करा चुकी हैं. लेकिन कोई भी सकारात्मक हल नहीं निकला है. इस संबंध में राजधानी भोपाल के एक आंगनबाड़ी केंद्र में कार्यरत आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हसीना बी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि वह आंगनबाड़ी चलाने के साथ-साथ कई तरह की जानकारी उपलब्ध कराने, कुपोषित बच्चों का लेखा-जोखा रखने का काम भी करती हैं. लेकिन बदले में बहुत कम राशि मिलती है. कई बार वह राशि समय पर भी नहीं मिलती है. जिसकी वजह से परिवार का खर्च उधार लेकर चलाना पड़ता है. इस संबंध में मप्र बुलंद आवाज नारी शक्ति आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, सहायिका मिनी कार्यकर्ता संगठन की अध्यक्ष रामेश्वरी मेश्राम ने बताया कि जून 2018 से आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रतिमाह 10 हजार रुपये मिल रहे हैं, उसके पहले मात्र 5,000 रुपये मिलते थे.
राज्य के स्वास्थ्य विभाग में ही कार्यरत लगभग 7,000 एएनएम यानी ऑक्जिलरी नर्स मिडवाइफरी की स्थिति भी अच्छी नहीं है. इन्हें ईपीएफ व टीडीएस कटने के बाद प्रति माह 9,300 रुपये मिलते हैं. इनका काम ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में संचालित हो रहे स्वास्थ्य केंद्रों में मरीजों की देखभाल करना, उन्हें इलाज व दवाइयां उपलब्ध कराना हैं. ये ग्रेज्यूएट हैं और इतनी कम राशि मिलने से दुखी हैं. खासकर जो ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केंद्रों में सेवाएं दे रही हैं उनकी हालत और भी खराब है. वह तो अपने घर का खर्च भी नहीं निकाल पा रही हैं. अपने बच्चों की परवरिश करने में उन्हें कई प्रकार से आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन कोई विकल्प नहीं होने के कारण काम करना इनकी मजबूरी है. वहीं पोषण पुनर्वास केंद्र, नवजात गहन चिकित्सा इकाइयों में 2,500 स्पोर्ट स्टाफ काम कर रहे हैं, इनमें भी ज्यादातर महिलाएं ही कार्यरत हैं, जो वर्ष 2006 से सेवाएं दे रही हैं. पहले ये संविदा कर्मचारी थीं, लेकिन कोरोना महामारी के पूर्व इन्हें आउटसोर्स पर कर दिया गया है. यह कर्मचारियों को ठेके पर रखने की सबसे बुरी व्यवस्थाओं में गिनी जाती है. इन कर्मचारियों का कहना है कि 8 घंटे काम लिया जाता है और महीने में मात्र 5,000 से 6,000 रुपये दिए जाते हैं जो बहुत ही कम है. श्रम मामलों के जानकार भी इस राशि को बहुत कम और मानव अधिकारों के विपरीत बताते रहे हैं. इस संबंध में संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ के कोमल सिंह बताते हैं कि स्वास्थ्य विभाग सीधे जनता से जुड़ा हुआ विभाग है, जिसमें क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी आर्थिक व मानसिक रूप से परेशान हैं. इसकी वजह सरकार की उदासीन नीतियां हैं. यदि ये कर्मचारी परेशान रहेंगे तो स्वभाविक है गुणवत्तापूर्ण काम की अपेक्षा इनसे नहीं की जा सकती है. ऐसे सरकार को समय रहते इनकी समस्याओं का समाधान करना चाहिए ताकि जनता के साथ साथ विभाग के कर्मचारी भी शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकें.
पूजा यादव
भोपाल, मप्र
(चरखा फीचर)
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