छोटे कद की 22 साल की आरुषि के लिए भी ये सब कुछ सामान्य की कैटेगरी में आ गया है. सात वर्ष पूर्व उसे बिहार के कटिहार से ब्याह कर या यूं कहें खरीदकर लाया गया था. वो कहती है, “खाना–पीना, कपड़े, बोली, रहन–सहन सब अलग है यहां पर. पहले तो कुछ अच्छा नहीं लगता था लेकिन अब खेत और घर में दिन भर काम करते-करते समय बीत जाता है. फिर मायके से भी किसी ने बीते सात सालों में हालचाल नहीं पूछा है. ऐसे में वापस चले भी जाएं तो किसके भरोसे?”
दरअसल इस पूरे इलाके यानी जींद का अध्ययन करने से पता चलता है कि यहां पहली दुल्हन जो बाहर के राज्य से आई वो 1968 में पश्चिम बंगाल से थी. इसके बाद हरियाणा के जो लोग दिल्ली और कोलकाता गए, वो वहां के रेड लाइट एरिया (यानी ट्रैफिकिंग की शिकार) से लड़कियों को खरीदकर शादियां कर लेते थे. ये लड़कियां ज्यादातर पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड की थी. बाद में जब हरियाणा का समाज बदला यानी किसानों के बच्चों ने खेती का काम बंद कर दिया तो खेत के लिए मेहनतकश हाथों की जरूरत महसूस हुई. इधर बिहार से खेत मजदूरों का पलायन धान कटनी के मौसम में पंजाब और हरियाणा की तरफ हो रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ बिहार की गरीब लड़कियों को उनके मां–बाप कुछ रुपयों की खातिर इन हरियाणवी दूल्हों को बेच रहे थे.
दिलचस्प बात यह है कि हरियाणा की जाट और रोड जातियों में हो रही इन शादियों में कुख्यात खाप पंचायतें भी कोई विरोध नहीं करती हैं. अमूमन ये खाप पंचायतें दूसरी जातियों में शादी को लेकर फरमान जारी करती हैं लेकिन बाहर से आई इन बहुओं की जाति को लेकर कोई सवाल नहीं उठता है. हरियाणा में कहा भी जाता है, “बीरां की भी के जात” यानी स्त्री की जाति कोई मायने नहीं रखती है. दूसरे राज्यों से आई इन बहुओं से हरियाणा में बच्चों का एक दूसरी तरह का समूह तैयार हो रहा है जिस पर अपनी मां के ‘मातृ राज्य’ का प्रभाव देखने को मिलता है. ये प्रभाव उनके कद–काठी से लेकर चेहरे तक नज़र आता है. सुनील जागलान कहते हैं, “मैं इन बच्चों से मिलने के लिए जाता रहता हूं. मुझे लगता है कि बिहारी दुल्हनों के बच्चे जो यहां सरकारी स्कूलों में पढ़ते है, वो काफी तेज हैं.”
हरियाणा में जहां इन दूसरे राज्यों से जा रही बहुओं को लेकर जमीनी स्तर पर थोड़ा ही सही, लेकिन उनकी स्थिति सुधारने की कोशिश नजर आती है. लेकिन हरियाणा से सटे उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इन ट्रैफिकिंग की शिकार लड़कियों की बाकायदा नीलामी हो रही है. साल 2020 में ऐसा ही एक मामला बुलंदशहर के गढ़ क्षेत्र में सामने आया था. इस संबंध में स्थानीय पत्रकार नरेन्द्र प्रताप बताते हैं, “उस दिन बाजार में किशोरी को रांची से लाया गया था. उसकी सौतेली मां ने उसे 30 हजार में बेच दिया था. यहां बाजार में शादी के लिए उसकी नीलामी हो रही थी जिसमें बोली लगाने वाले 80 साल के बुर्जुग तक थे. बाद में पुलिस को किसी ने सूचना दी तो किशोरी को बचाया गया.”
बुलंदशहर से तकरीबन 800 किलोमीटर दूर जौनपुर के भैरोपुर गांव की संगीता की भी यही कहानी है. उसे बिहार के पूर्णिया से उसका पति जयप्रकाश खरीद कर लाया है. जयप्रकाश अपनी पहली बीवी की मृत्यु के बाद संगीता को ब्याह कर लाया है. संगीता को अपने ससुराल में खाने पीने की दिक्कत नहीं लेकिन वो पर्दे (घूंघट) से परेशान है. वह कहती है, “पेट तो भर जाता है, लेकिन इस भरे पेट का क्या फायदा जब संसार को खुली आंखों से देख ही नहीं सकते, अपना चेहरा तक नहीं खोल सकते?” बहरहाल, 21 वीं सदी और महिला सशक्तिकरण की चाहे जितनी बातें कर लें, एक बात तो साफ़ है कि इस समाज का एक घिनौना चेहरा यह है कि वह बेटियों को गर्भ में ही मारता है और बहुओं को खरीदता है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के अंतर्गत लिखी गई है.
सीटू तिवारी
पटना, बिहार
(चरखा फीचर)
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