भारत की आधी आबादी का अस्तित्व आज भी खतरे में है. सदियों से वह हिंसा के विभिन्न रूपों का सामना करती रही है. वक्त बदल गया, लेकिन उसके साथ होने वाली हिंसा ख़त्म नहीं हुई. कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, घरेलू हिंसा और आये दिन उसे छेड़छाड़ आदि का शिकार बनना पड़ता है. खासकर गरीब और महादलित परिवार की महिलाएं व बेटियां शारीरिक और मानसिक शोषण का आज भी शिकार हो रही हैं. हिंसा और बुराइयों से निजात पाने में अशिक्षा और गरीबी सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई है. जागरूकता की कमी के कारण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को अपने अधिकार का ज्ञान नहीं है तो अपनी रक्षा कैसे करेंगी? वैसे तो घरेलू हिंसा केवल गांव में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी होती है, बस उसका तरीका बदल जाता है. पुरुषवादी मानसिकता की वजह से महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न कम नहीं हुआ है, अपितु अलग-अलग जगहों और परिवेश के अनुसार उसका तरीका बदल जाता है. ग्रामीण भारत की महिलाओं में सामाजिक वर्जनाएं, रूढ़िवादिता, हीनभावना आदि के कारण उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार, अत्याचार और शोषण शहरों की अपेक्षा अधिक है. खासकर दलित परिवारों और समाज में परिस्थितियां बहुत अधिक बदली नहीं है. देश के लगभग सभी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में आबाद दलितों के साथ बुरा बर्ताव समाप्त नहीं हुआ है. यह समाज एक तरफ जहां शोषण का शिकार है वहीं दूसरी ओर बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित रहता है. ऐसा नहीं है कि केंद्र से लेकर कोई राज्य सरकारों ने इनके विकास के लिए योजनाएं नहीं बनाई हैं, लेकिन जागरूकता के अभाव में यह समाज अपने हक़ से वंचित हो जाता है. ऐसे में इस समाज की महिलाओं की स्थिति क्या होगी, यह किसी से छिपा नहीं है. बिहार के मुजफ्फरपुर जिले से 12 किमी दूर राजवाड़ा गांव स्थित मुसहर बस्ती में महादलित परिवार की एक महिला सुशीला देवी कहती हैं कि "हमारे घर में शौचालय नहीं है. जिसकी वजह से शौच के लिए महिलाओं को भी बाहर जाना पड़ता है.
इस दौरान हमेशा कुछ मनचले और असामाजिक तत्वों की गंदी नजरें टिकी रहती हैं. सबसे अधिक भय किशोरियों की सुरक्षा को लेकर रहता है. कभी-कभी कोई ऐसे कुत्सित मानसिकता वाले दरिंदों के शोषण की शिकार भी हो जाती हैं. वह आरोप लगाती हैं कि गांव के मुखिया महादलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं करते हैं. महादलित बस्ती की एक लड़की ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताई कि मेरे पापा प्रदेश से बाहर रहते हैं. मां काम करने चली जाती है. इस बीच अकेली जानकर कोई न कोई छेड़छाड़ करने लगता है. बस्ती की महिलाएं कहती हैं कि हमलोग भी तो मनुष्य हैं. हमें भी सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है. हमें भी हिंसा, शोषण और दुर्व्यवहार से सुरक्षित रहने का भी अधिकार है. फिर समाज हमारे साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों करता है? कई रिपोर्टें और सर्वे बताते हैं कि आज भी दलित समाज की महिलाएं हिंसा, अत्याचार, दुर्व्यवहार और असमानता से जूझ रही हैं. जन्म से लेकर शादी तक भेदभाव, घरेलू हिंसा, प्रताड़ना का शिकार होती हैं. अपने परिवार की खुशी की खातिर अपने मन में उठ रही इच्छा-अनिच्छा को दरकिनार कर देती हैं. हालांकि वह सबके लिए जीना ही जीवन का उद्देश्य समझती हैं बावजूद इसके पति यदि शराबी मिल जाए तो उस महिला को यातनाओं के बीच जीने की मजबूरी हो जाती है. घरेलू हिंसा का सबसे बड़ा कारण शराब का सेवन है. इतना ही नहीं, बल्कि उन्हें अपने ही घर में यौन हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है. धमकियों, थप्पड़ों, लात-घूसों के बीच महादलित परिवार की महिलाओं को जीने की मजबूरी रहती है. शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण वह यातना सहती रहती हैं.
मुसहरी बस्ती की महिलाएं कहती हैं कि उन्हें केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि जन्म से मानसिक हिंसा भी झेलनी पड़ती है. बचपन से उसे दहेज के लिए अपने बाप-दादा से गरीबी और लाचारी की व्यथा सुननी पड़ती है. उसे जन्म लेना उस समय पाप लगता है जब उसके परिवार से दहेज की मांग की जाती है. छोटा हो या बड़ा परिवार, अपनी हैसियत के अनुसार दहेज लेना शान की बात समझते हैं. कुंठा और अवसाद के बीच शादी के बाद महिलाओं को अपने जीने की आजादी तक नहीं मिल पाती है. दहेज़ की खातिर सबसे अधिक शारीरिक हिंसा और शराबी पति द्वारा प्रताड़ना दलित समाज में आम है. महादलित बस्ती में महिलाओं के शोषण का एक दूसरा बड़ा तरीका है, किसी को डायन करार देकर उसे प्रताड़ित करना. हालांकि यह देश पूरी तरह से न केवल प्रतिबंधित है बल्कि गैर क़ानूनी भी है. लेकिन इसके बावजूद देश के ग्रामीण क्षेत्रों में डायन के नाम पर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा आम है. भारत में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 26 अक्टूबर 2006 को पारित हुआ था. जिसका लक्ष्य इस हिंसा से महिलाओं को संरक्षण देना और उन्हें कानूनी सहायता प्रदान करना है. घरेलू हिंसा की धारा 4, 5, 10, 12, 14, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22 और 24 अधिनियमित है. इसके तहत शारीरिक दुरुपयोग, लैंगिक शोषण, लैंगिक दुर्व्यवहार, मौखिक और भावनात्मक हिंसा, आर्थिक हिंसा आदि की शिकार महिलाओं को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान का भी प्रावधान है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2020 में 22372 गृहणियों ने आत्महत्या की थी. इस रिपोर्ट की मानें तो हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक हाउस वाइफ आत्महत्या कर रही है. ज़ाहिर है कि वह घरेलू हिंसा से तंग आकर यह कदम उठाने पर मजबूर हो जाती हैं. देष में 2020 में कुल 153052 आत्महत्या हुईं, जिसमें हाउस वाइफ की संख्या 14.6 फीसद थी.
बहरहाल, पूरे देश में घरेलू हिंसा की सबसे अधिक शिकार गृहिणियां होती हैं. शादी के बाद उनके साथ परिवार के पति, सास, ननद व अन्य सदस्यों द्वारा की जाती है. दूसरी ओर समाज के दबंगों द्वारा कभी डायन तो कभी विधवा के नाम पर शोषण और हिंसा किया जाता है. जिसमें दलित और महादलित समाज की महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है. हिंसा को रोकने के लिए महिलाओं को अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए दृढ़ता से विरोध करना होगा. कानूनी स्तर पर भी महिला अधिकारों को संरक्षित करने के लिए और भी सख्त कानून की जरूरत है. जो पहले से कानून हैं उसका अधिकारियों द्वारा उपयुक्त कार्रवाई करने में उदासीनता होना भी घरेलू हिंसा और दलित महिलाओं के साथ हिंसा को बढ़ावा देने का कारण बनता है. अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी के कारण भी महिलाएं अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को सहने को मजबूर हैं. ज़्यादातर महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा पर या तो चुप्पी साध लेती हैं या फिर समाज द्वारा दबाब बना कर उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है. महिलाओं के साथ हो रही हिंसा से उन्हें निजात दिलाने के लिए पीड़ित को आर्थिक सहायता देना भी अनिवार्य होना आवश्यक है. जमीनी स्तर पर स्वयंसेवी संस्थाओं को भी इन महिलाओं की मदद एवं परिवार में काउंसलिंग की जरूरत है. इसके अलावा पुलिस और न्यायिक सेवाओं को घरेलू हिंसा के मामलों को त्वरित स्तर पर निपटाने को प्राथमिकता देने की जरूरत है.
रेखा कुमारी
मुजफ्फरपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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