उपरोक्त शब्द 10वीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़कियों के एक समूह के हैं, जो गांव में मासिक धर्म के नाम पर निभाए जा रहे रिवाजों के विरुद्ध आवाज़ उठा रही थी. इन लड़कियों का कहना था कि "इस अवधि के दौरान न केवल हमें घर से बाहर रहना पड़ता है, बल्कि नहाने और नित्य क्रिया के लिए सुबह जल्दी उठना भी पड़ता है. इसके लिए ऐसी जगह जाना पड़ता है, जहाँ कोई हमें देख न सके. जब मासिक धर्म की अवधि पूरी हो जाती है तो हमें नदी में ही सुबह का स्नान करना होता है. इस दौरान हमें घर के शौचालय का उपयोग करने की भी अनुमति नहीं होती है. किसी भी किशोरी के लिए सबसे भयानक पल दिसंबर और जनवरी का समय होता है, जब हमें सुबह 4-5 बजे नहाने के लिए कड़ाके की ठंड में भी नदी पर जाना होता है. इस अवधि में हम किसी सामान को छू भी नहीं सकते हैं क्योंकि उसके अशुद्ध होने का खतरा होता है. मासिक धर्म के दौरान हमारे बिस्तर भी अलग होते हैं जिसे हमें रोज़ धोना होता है. गांव के बुजुर्गों का मानना है कि मासिक धर्म के दौरान नारी इतनी अपवित्र होती है कि यदि वह किसी व्यक्ति को छू ले तो वह बीमार हो जाएंगे, इसीलिए ऐसा होने पर उस पर गोमूत्र छिड़क कर पवित्र किया जाता है. चौंकाने वाली बात यह है कि मासिक धर्म के दौरान जब किशोरियों को सबसे अधिक पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है, उनमें पर्याप्त भोजन और पोषक तत्वों की कमी होती है, ऐसे समय में उन्हें दो रोटी भी ढंग से नहीं मिलती है, जिससे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है. गांव की ही एक अन्य लड़की ने कहा, 'इस दौरान हमें समय पर खाना भी नहीं मिलता, जिससे हमें कमजोरी महसूस होती है. इस कारण हम ठीक से पढ़ाई भी नहीं कर पाते हैं. मासिक धर्म के दौरान हमारे पास पैड की सुविधा नहीं होती है, इसलिए हमें कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है. जिससे कई तरह की जानलेवा बीमारियों का खतरा बना रहता है.
गांव की ही एक अन्य लड़की ने कहा "जब हमारी छोटी बहनों को मासिक धर्म की समस्या होती है तो यह और भी भयानक हो जाता है. उस समय उन्हें अपना सारा काम खुद ही करना पड़ता है क्योंकि दूसरे तो उनके आसपास भी नहीं जाते हैं" गौशाला में बच्चियों को रात में घर से दूर अकेले सोने में डर लगता है, इसलिए वे ठीक से सो भी नहीं पाती हैं. जब हम छोटे थे और इस दौर से गुजर रहे थे तो हमें एक अजीब सा डर था कि हम हर महीने कुछ दिनों के लिए कैदियों की तरह होंगे, जैसे कि हमने कोई अपराध किया हो, जिसके लिए हमें सजा मिल रही थी. रात हम अकेले में रोते थे यह सोच कर कि कितना अच्छा होता अगर यह पीरियड ही न आया होता. प्रकृति ने तो मासिक धर्म वरदान के रूप में दिया है लेकिन समाज के रीति रिवाजों ने इस दौरान हमारी हंसती खेलती जिंदगी छीन ली है. इस संबंध में गांव की 81 वर्षीय बुज़ुर्ग भगवती देवी कहती हैं, 'माहवारी की यह प्रक्रिया मेरे दादा-दादी के समय से चली आ रही है, हम भी बचपन से इसका अभ्यास करते आ रहे हैं और यह ऐसे ही चलता रहेगा'. उनका मत है कि यह ईश्वर की बनाई व्यवस्था है, अगर हम इसे नहीं मानते हैं तो हम पर पाप लगेगा. इस संबंध में वह तर्क देती हैं कि 'मेरी मां ने मुझे बताया था कि एक बार मासिक धर्म के दौरान एक महिला मंदिर गई थी तो वह पागल हो गई. इसलिए गांव वालों को डर है कि वे किसी भी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना चाहते हैं. जो भी इसका विरोध करता है वह पागल हो सकता है. इस डर से वे सभी मानते हैं कि मासिक धर्म के दौरान लड़कियां दूसरों से अलग होती हैं, इसलिए उन्हें रसोई में भी नहीं जाने दिया जाना चाहिए. ऐसा माना जाता है कि अगर वे किसी को इस दौरान छूती हैं, तो वह बीमार हो जायेगा. हालांकि इन सभी तर्कों का वह कोई आधार नहीं बता सकीं. वहीं गांव की 31 वर्षीय एक महिला पुष्पा देवी ने बताया कि उनके मायका में ऐसी किसी परंपरा को कभी निभाया नहीं गया. वहां मासिक धर्म के दौरान लड़कियां आम दिनों की तरह जीवन जीती हैं और किसी को भी नहीं चलता है कि वह मासिक धर्म की प्रक्रिया से गुज़र रही हैं. लेकिन यहां ससुराल आकर उन्हें पता चला कि मासिक धर्म के दौरान लड़कियों और महिलाओं के साथ कितना भेदभाव होता है.
गांव की एक शिक्षिका चंद्र गड़िया कहती हैं, "हमारा उत्तराखंड भारत के सबसे अच्छे राज्यों में से एक है, जिसे देवभूमि माना जाता है." मासिक धर्म से जुड़ी तमाम भ्रांतियां ग्रामीण समाज द्वारा बनाये गए हैं, भगवान ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा है. लेकिन गांव वालों का मानना है कि मासिक धर्म के दौरान लड़कियों को अलग रखना चाहिए और मंदिर नहीं जाना चाहिए, नहीं तो इससे लड़की या दूसरों की मानसिक स्थिति खराब हो सकती है. उनके अनुसार यह सब मनगढ़ंत और पुरानी बातें हैं जिनमें लोग आज भी जी रहे हैं. वह कहती हैं कि यह सब अंधविश्वास वाली बातें हैं, जो लोगों ने अपने दिलो-दिमाग में बो दी हैं. जबकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. इसलिए हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपनी वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को यह समझाएं, ताकि वे उनमें एक सकारात्मक बदलाव ला सकें. इसके खिलाफ जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, अगर एक गांव में भी यह प्रथा खत्म हो जाती है तो धीरे-धीरे दूसरे गांवों में भी यह अतार्किक प्रथा खत्म हो सकती है. चंद्र गड़िया के अनुसार इस मानव निर्मित कानून को बदलने की तत्काल आवश्यकता है. केवल रीति रिवाज के नाम पर महिलाओं और किशोरियों के साथ होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के अंतर्गत लिखा गया है.
डॉली गड़िया
बागेश्वर, उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें