भारत की आजादी से भी 18 वर्ष पूर्व 1929 में जब मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जब पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा था तो यह बात न अंग्रेजों को प्रिय लगी थी और न ही मुस्लिम लीग की अगुवाई कर रहे मोहम्मद अली जिन्ना को। उस दौर के दलित नेता डॉ. भीमराव आंबेडकर भी दलितों के लिए व्यापक अधिकार और अलग देश के तरफदार थे। कमोवेश यही स्थिति शिरोमणि अकाली दल के अगुवा मास्टर तारा सिंह की भी थी। वे सिखों के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर रहे थे। इसीलिए उन्होंने मोतीलाल नेहरू के पूर्ण स्वराज वाले प्रस्ताव का खुलकर विरोध किया। वर्ष 1947 आते-आते उनकी यह मांग पंजाबी सूबा आंदोलन में तब्दील हो गई थी। वर्ष 1971 की भारत -पाक जंग में जब हिंदुस्तान के जांबाज सैनिकों के प्रबल पुरुषार्थ से पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश के रूप में विभाजित हो गया तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत को सबक सिखाने के लिए पृथक सिख राष्ट्र का ख्वाब पाले जगजीत सिंह चौहान से हाथ मिलाया और खालिस्तान के निर्माण में उनका साथ देने की पेशकश की थी। अब इसी से समझ जाना चाहिए कि खालिस्तान की जरूरत पंजाब से अधिक पाकिस्तान को है। कनाडा और यूरोप में रह रहे अलगाववादी विगत चार दशकों से खालिस्तान की मांग कर रहे हैं। जगजीत सिंह तो वर्ष 1979 में लंदन की धरती पर भारत में खालिस्तान निर्माण का प्रस्ताव पेश कर चुके हैं। उसका नक्शा जारी कर चुके हैं, जिसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हिमाचल के कुछ हिस्से भी शामिल हैं। वे यहीं तक नहीं थमे, लंदन में ही उन्होंने खालिस्तानी करेंसी भी जारी की। भिंडरावाले के कारनामे भी किसी से छिपे नहीं हैं। पंजाब केसरी अखबार के संपादक व मालिक की हत्या से लेकर जाने कितने गुनाह उसने किए। उसने तो कांग्रेस आई के सांसदों और विधायकों की हत्या तक की धमकी दे दी थी। पंजाब के गांवों में रह रहे हिंदुओं के कत्लेआम की योजना बना ली थी। इस बात का खुलासा होने के बाद ही भारतकी तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जून 1084 में आॅपरेशन ब्लू स्टार का कड़ा निर्णय लिया था। इस अभियान से सिखों के पवित्र स्वर्ण मंदिर में सेना को घुसना पड़ा। इस संघर्ष में सेना के 83 जवानशहीद हुए जबकि 249 जवान घायल हुए । भिंडरावाला समेत 493 चरमपंथी मारे गए और इसके साथ ही 3 हजार निर्दोष लोग मारे गए। इसके विरोध में कैप्टन अमरिंदर सिंह समेत कई कांग्रेसियों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। खुशवंत सिंह सरीखे कई लेखकों ने सरकारी पुरस्कार लौटा दिए थे , यह एक बात है लेकिन सोचने-समझने की बात है कि अलगाववादी ताकतों को संरक्षण देने में राजनीतिक दलों की भी बड़ी भूमिका रही है। अकाली दल की सरकार तो खालिस्तान समर्थकों के बल पर ही बनती रही है। गुप्तचर सूत्रों की मानें तो हाल ही में दिल्ली में चले किसान आंदोलन का खर्च भी खालिस्तान समर्थकों ने उठाया था। आढ़तियों ने उठाया था। वर्ष 2022 में जस्टिस फॉर सिख संगठन ने जिस तरह कनाडा के ब्रेम्पटन शहर में भारत सरकार के तमाम विरोध के बावजूद खालिस्तान के समर्थन में दस हजारसे अधिक लोगोंकी उपस्थिति में जनमत संग्रह कराया, उससे साफ जाहिर है कि भारत को तोड़ने का षड़यंत्र कुछ विदेशी ताकतें कर रही हैं। ऐसे लोगों को मुंहतोड़ जवाब देने के साथ ही अमृतपाल जैसे लोगों को भी सबक सिखाना है।
दैव के आने का नहीं परचने का डर है और इस डर को दूरदृष्टि- पक्के इरादे के साथ ही निकाला जा सकता है। देश की एकता, अखंडता और अस्मिता को चोट पहुंचाने वाली ताकतों को दंडित नहीं किया गया तो वे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती हैं। इनकी देखादेखी दूसरे राज्यों में भी अलग राष्ट्र बनाने की मांगजोरपकड़ने लगेंगी। कहां तो भारत अखंड भारत के सपने देखरहा है और उसी के कुछ राज्यों में टुकड़े-टुकड़े गैंग सिर उठा रहे हैं, ऐसे में इस समस्या के त्वरित निदान की जरूरत है। माना कि यह प्रकरण नाजुक है लेकिन देशहित ने कुछ बड़ा और कड़ा तो करना ही होगा। काश, राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठ पाते और गुलामी के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर को आमादा जयचंदों व मान सिंहों को पहचान पाते। हमें सोचना होगा कि क्या पंजाब को वारिस पंजाब दे के प्रमुख जैसे वारिस चाहिए जो अपराध और अपराधियों के समर्थन में राज्य की विधि व्यवस्था को चुनौती दें या उसे महाराजा रणजीत सिंह जैसा वारिस चाहिए जो अफगानिस्तान तक राष्ट्र औरपंजाबियत का झंडा बुलंद करे। वैसे भी राष्ट्र के खिलाफ बगावत करने वालों को क्षमा नहीं किया जा सकता। पंजाब की जनता इस बात को बखूबी समझती है। बेहतर तो यह होगा कि पंजाब सरकार भी इसे समझने की कोशिश करे।
—सियाराम पांडेय ‘शांत’—
संपर्क : आर.एच.ए-2 , रॉयल ग्रीन सिटी कॉलोनी ,लौलाई, चिनहट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
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