राम मैं पूजा कहां चढ़ाऊं। फल अरु फूल अनूप न पाऊं ॥टेक॥
थन तर दूध जो बछरू जुठारी। पुहुप भंवर जल मीन बिगारी ॥1॥
मलयागिर बेधियो भुअंगा । विष अमृत दोउ एक संगा ॥2॥
मन ही पूजा मन ही धूप । मन ही सेऊं सहज सरूप ॥3॥
पूजा अरचा न जानूं तेरी ।कह रैदास कवन गति मोरी ॥4॥
संत शिरोमणि रविदास जी का जन्म माघ पूर्णिमा १३७६ ईस्वी में उत्तर प्रदेश अवस्थित देश की सांस्कृतिक चेतना के कालजई विरासत नगर वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर नामक गांव में हुआ था. संत जी के पिता का नाम श्री संतोष दास और पूजनीय माता जी का नाम श्रीमती कर्मा देवी था. ऐसे भक्त प्रबर के दादाजी का नाम श्री कालूराम जी और दादी जी का नाम श्रीमती लखपति देवी जी था. रविदास जी का गृहस्थ जीवन उनकी सहधर्मिणी श्रीमती लोना देवी जी के साथ शुरू होती जो एक आदर्श परिवार के रूप में स्थापित रही. इनके पुत्र का नाम श्री विजय दास जी था. संत शिरोमणि श्री रविदास जी चमका कुल से वास्ता रखते हैं जो कि जूते बनाते थे. उन्हें यह चर्म कार्य करके बहुत खुशी होती थी. वह बड़ी इमानदारी ,लगन और मेहनत के साथ अपना कार्य करते थे.दरअसल, इनके के पिता जी चमड़े का व्यापार करते थे, वह जूते भी बनाया करते थे।इस कारण इन्होने अपने इस पुश्तैनी पेशा को स्वीकारने में कोई कोताही नहीं बरते . उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत में आताताई मुगलों का शासन था. चारों ओर अत्याचार, गरीबी, भ्रष्टाचार, मतान्तरण व अशिक्षा का बोलबाला था. हर समय जानमाल का भय बना रहता था.उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा यह प्रयास किया जाता था कि, जैसे भी हो अधिक से अधिक हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया जाए. इसके लिए साम,दाम,अर्थ और दंड सारे हथकंडे को अपनाया जाता था.उस विकट परिस्थित में ऐसे संत का अभ्युदय हुआ था.संत रविदास की ख्याति लगातार बढ़ रही थी,समाज के लाखों लोगो के तारणहार के रूप में इनको देखी जाती थी. जिसके चलते उनके लाखों भक्त थे.इनके भक्तो जिनमें हर जाति के लोग शामिल थे,यानी समरस हिन्दू समाज का अलौकिक छटा इनके भक्तों के बीच देखी जाती थी.
संत शिरोमणि की लोकप्रियतता और हिन्दुओ पर उनका प्रभाव देखकर एक कुटिल मुस्लिम पीर 'सदना पीर' उनको मुसलमान बनाने आया था. उसका कुटिल भाव यह था कि-“यदि रविदास मुसलमान बन जाते हैं तो उनके लाखों भक्त भी बिना हीलहुज्जत के मुस्लिम हो जाएंगे”. ऐसा सोचकर उनपर हर प्रकार से दबाव बनाया गया था, लेकिन संत रविदास तो संत थे, उन्हें अपने धर्म पर गहरी आस्था थी, और उन्होंने सदना पीर के सारे हथकंडे को नकार दिए .उन्होंने मुस्लिम बनना स्वीकार नही किया. सिकंदर लोदी ने संत रविदास को मुसलमन बनाने के लिये दिल्ली बुलाया और उन्हें मुसलमान बनने के लिये बहुत सारे प्रलोभन दिये. संत रविदास ने काफी निर्भीक शब्दों में निंदा की. लोदी को जवाब देते हुए रविदासजी ने वैदिक हिन्दू धर्म को पवित्र गंगा के समान कहते हुए इस्लाम की तुलना तालाब से की है- मैँ नहीँ दब्बू बाल गंवारा, गंग त्याग गहूँ ताल किनारा, प्राण तजूँ पर धर्म न देऊँ, तुमसे शाह सत्य कह देऊँ ,चोटी शिखा कबहुँ तहिँ त्यागूँ ,वस्त्र समेत देह भल त्यागूँ, कंठ कृपाण का करौ प्रहारा , चाहे डुबाओ सिँधु मंझारा. संत रविदास की बातो से चिढ़कर सिकंदर लोदी संत रविदास को जेल में डाल दिया. सिकंदर लोदी ने कहा कि यदि वे मुसलमान नहीं बनेंगे तो उन्हें कठोर दंड दिया जायेगा. ऐसा कहा जाता है कि जेल में भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिये और कहा कि धर्मनिष्ठ सेवक ही आपकी रक्षा करेंगे। अगले दिन जब सुल्तान सिकंदर नमाज पढ़ने गया तो सामने रविदास को खड़ा पाया। उसे चारो दिशाओं में संत रविदास के ही दर्शन हुये. यह चमत्कार देखकर सिकंदर लोदी घबरा गया. लोदी ने तत्काल संत रविदास को रिहा कर दिया और माफी मांग ली. सोचिये जब इस्लामी आक्रान्ताओं की तूती बोलती थी, ऐसे में यह महान हिन्दू संत उस बर्बरता को भी ठेंगे दिखा अपने धर्म पर अडिग रहे.हर प्रकार के लोभ, लालच इन्हें अपने धर्म से नहीं डिगा पाया और आज हम चंद सुविधाओं के लिए अपने ही धर्म पर टिका टिप्पणी करने लगते है.थोड़ी और सुविधा मिलती है तो अपने पूर्वजों के कृतित्व को कलंकित कर दुसरे मत में मतांतरित हो जाते है.किन्तु उन्होंने इस्लाम के सारे हथकंडो के आगे भी अपना धर्म नही छोड़ा.अपने धर्म के प्रति ऐसी निष्ठा थी समरस हिन्दू समाज के महान नायक का.
संत रविदासजी बचपन से ही भक्ति में लीन रहते थे। भक्ति का मतलब यह नही की वे दिनरात पूजा-पाठ में लीन रहते थे, लेकिन उनको अपने हिन्दू-दर्शन, हिन्दू-चिंतन, पर गर्व था नौ वर्ष की नन्ही उम्र में ही परमात्मा की भक्ति का इतना गहरा रंग चढ गया कि उनके माता-पिता भी चिंतित हो उठे. उन्होंने उनका मन संसार की ओर आकृष्ट करने के लिए उनकी शादी करा दी और उन्हें बिना कुछ धन दिये ही परिवार से अलग कर दिया फिर भी रविदासजी अपने पथ से विचलित नहीं हुए. संत रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।उनकी भक्ति की अद्वितीय धारा को जानकर उस समय के प्रकांड विद्वान और समरस हिन्दू चेतना के प्रखर प्रणेता स्वामी रानानंद ने बालक रविदास को अपना शिष्य बनाया. स्वामी रामानंदाचार्य वैष्णव भक्तिधारा के महान संत थे. संत कबीर, संत पीपा, संत धन्ना और संत रविदास उनके शिष्य थे. उनका स्पस्ट मत था कि :- “हिन्दव: सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत” और इसी चिंतन को उन्होंने पुष्ट भी किया. उनकी समय-पालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे. प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था. साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था. वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे. कहा जाता है कि भक्त रविदास का उद्धार करने के लिये भगवान स्वयं साधु वेश में उनकी झोपड़ी में आये। लेकिन उन्होनें उनके द्वारा दिये गये पारस पत्थर को स्वीकार नहीं किया। इंसान छोटा या बड़ा अपने जन्म या जाति से नहीं, बल्कि अपने कर्मों से होता है. व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊँचा या नीचा बनाते हैं.ऐसे दर्शन के सहारे हिन्दू चिंतन को और भी समृद्ध करने में लगे थे. संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से उस समय जोर पकड रही समाज में जातिगत भेदभाव को दूर करने, सभी हिन्दू एक है, इस नाते हिन्दुओं की सामाजिक एकता पर बल दिया और वसुधैव- कुटुम्बकम के भाव से मानवतावादी मूल्यों की नींव भी रखी. इतना ही नहीं वे एक ऐसे समाज की कल्पना भी करते हैं जहां किसी भी प्रकार का लोभ, लालच, दुख, दरिद्रता, भेदभाव नहीं हो और ना ही इन विकृतियों के आड़ में अपना हिन्दू समाज खंडित हो या मतांतरित हो.
रविदासजी सरल और स्पष्टवादी थे उन्होंने सीधे-सीधे लिखा कि 'रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच' यानी कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने कर्म से नीच होता है. जो व्यक्ति गलत काम करता है वो नीच होता है. कोई भी व्यक्ति जन्म के हिसाब से कभी नीच नहीं होता.संत शिरोमणि जी के दोहों को अपने पवित्र धर्मग्रन्थ “ श्री गुरु ग्रन्थ साहिब” में कुल 41 छन्दों का समाहित किया गया है.हिन्दू चिंतन और मानव मूल्यों के प्रति सदैव सजग रहने बाले गुरु रविदास जी के शिक्षाओं में आज की भोगवादी संस्कृति और आडम्बर भरे जीवन पर गहरा आक्षेप है. जातिओ में विभक्त हिन्दू समाज,को एक करने के लिए उनकी तड़प उनके दोहों का सार है .भोग,विलास,दिखाबा यह सब सांसारिक दुखों का मूल है चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं थीं। वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। मान्यता है कि वे वहीं से स्वर्गारोहण कर गए थे। हालांकि इसका कोई आधिकारिक विवरण नहीं है लेकिन कहते हैं कि वाराणसी में 1540 ईस्वी में उन्होंने देह छोड़ दी थी। आज वर्तमान में देश की स्थिति अत्यंत नाजुक होती जा रही है क्योंकि भारत में कुछ राष्ट्रविरोधी वामपंथी और अहिंदू ताकतों के इशारे पर असामाजिक तत्वों द्वारा हिन्दू धर्म के संरक्षक समाज को ही उकसाया जा रहा है कि तुम हिन्दू नही हो तुम अहिंदू हो और हमारे संत रविदास थे वो भी हिन्दू नही थे, भीम और मीम भाई-भाई है. हिन्दू हमारे दुश्मन हैं, इस तरीके से भारत को टुकड़े-टुकड़े करने का भयंकर षड्यंत्र चल रहा है ।आज जो भीम-मीम के सहारे हिन्दू समाज से तोड़ने का कुकृत्य करने का असफल प्रयास कर रहे हैं वो बड़े भयंकर पाप के भागीदार हो रहे हैं, उनको महान हिन्दू संत शिरोमणि रविदास का इतिहास,उनका कृतित्व को ठीक से पढना चाहिए और अलगाववाद के सहारे कुछ सांसारिक भोग को पाने के बजाय अपने पूर्वजों के कृतित्व को और सुदृढ़ करने का संकल्प आज ले.
संजय कुमार आजाद
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