- बिहार सरकार के समक्ष अब भी कई चुनौतियां, खुशफहमी से बचना चाहिए.
- केंद्रीय बजट में जनकल्याणकारी योजनाओं की राशि में कटौती करने वाली भाजपा को बोलने का हक नहीं.
आशा, रसोइया, आंगनबाड़ी सेविका-सहायिका को जीने लायक मासिक मानदेय देने के प्रति मोदी सरकार की उदासीनता जगजाहिर है. कोरोना काल में उत्कृष्ट भूमिका के बावजूद हालिया केंद्रीय बजट में उनके लिए किसी भी तरह का प्रावधान नहीं किया गया. बिहार सरकार से उम्मीद थी कि उनके प्रति बरती जा रही उपेक्षापूर्ण नीति के बरक्स महागठबंधन के घोषणापत्र के आलोक में तमाम स्कीम वर्कर्स को राहत मिलेगा, लेकिन इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाना बेहद अफसोसजनक है. सरकार का खुद का दावा है कि अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की भूमिका सर्वप्रमुख है. ऐसा मानते हुए भी सरकार एपीएमसी ऐक्ट की पुनबर्हाली की मांग पर चुप ही रही. यदि किसानों को उने फसलों का सही दाम नहीं मिलेगा तब हमारी अर्थव्यवस्था कहां जाएगी? बटाईदार किसानों का रजिस्ट्रेशन और उन्हें सारी सरकारी सुविधाएं प्रदान करने आदि विषयों पर भी किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं की गई है. अब जब भाजपा सरकार से बाहर है तो यह उम्मीद की जा रही थी कि सरकार भूमि सुधार जैसे एजेंडों पर भी कदम बढ़ाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. किसानों को कृषि कार्य के लिए मुफ्त में बिजली उपलब्ध कराने के सवाल पर भी बजट चुप है. सरकार हर घर बिजली योजना की चर्चा करती है, लेकिन राज्य की आम जनता प्रीपेड मीटर और कई गुना ज्यादा राशि वाला बिजली बिल भुगतान से परेशान है. गांव-गांव में सैकड़ों दलित-गरीब बस्तियों के घरों का बिजली कनेक्शन काटे जाने और उपभोक्ताओं पर मुकदमा दर्ज करने की घटनायें हुई हैं. हर घर बिजली योजना के नाम पर बिजली का निजीकरण कहीं से भी स्वीकार नहीं है. यह सही है कि केंद्र की भाजपा सरकार का बिहार के साथ दोयम रवैया लगातार जारी है, ऐसी स्थिति में बिहार सरकार के सामने चुनौती और भी बढ़ जाती है. समाज विज्ञानियों ने बारंबार कहा है कि कृषि क्षेत्र की संरचना में व्यापक बदलाव के बिना बिहार में सच्चे अर्थों में जनपक्षीय विकास संभव नहीं है. साथ ही, बिहार सरकार को कृषि आधारित उद्योग-धंधों के विकास का भी रोडमैप लेकर आना चाहिए. यही वह रास्ता है, जिसके जरिए मजदूरों की सप्लाई करने वाला बिहार कल की तारीख में एक विकसित प्रदेश बन सकता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें