आलेख : अस्पताल की कमी से जूझते ग्रामीण - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 31 मार्च 2023

आलेख : अस्पताल की कमी से जूझते ग्रामीण

उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं न होने से छोटी-मोटी बीमारी पर भी लोगों को सैकड़ों किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के गरुड़ ब्लॉक का गनीगांव जहां पर अस्पताल जैसी कोई सुविधा ही नहीं है. गांव में अस्पताल की सुविधा न होने से परेशान किशोरी हेमा रावल का कहना है कि हमारा गांव अस्पताल की कमी से जूझ रहा है. जिसकी वजह से हमें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. हमें अपने गांव से 27 किमी दूर बैजनाथ अस्पताल जाना पड़ता है. कभी-कभी ऐसी परिस्थिति भी हो जाती है कि मरीज की हालत बहुत खराब हो जाती है तो इतना लंबा सफर तय करते करते रास्ते में ही उनकी मृत्यु भी हो जाती है. खासतौर से अगर किसी को चोट लग जाती है और अत्यधिक खुन बह जाता है तो वहां पर पहुंचते पहुंचते मरीज की हालत बहुत खराब हो जाती है.


इस संबंध में गांव की अन्य किशोरी दीपा लिंगड़िया का कहना है कि हमारे गांव में अस्पताल तो है ही नहीं. यहां आशा वर्कर भी नहीं है. गांव में आशा वर्कर जखेड़ा गांव से आती हैं, लेकिन जो सुविधा जखेड़ा गांव की महिलाओं को मिलती है, वह सुविधा हमारे गांव की महिलाओं और किशोरियों को नहीं मिलती हैं. गांव की महिला बसूली देवी का कहना है कि हमारे गांव में एक भी अस्पताल नहीं है. थोड़ा सा बुखार आने पर भी हमें बड़े कष्टों का सामना करके गरुड़ जाना पड़ता है. मैंने यहां पर बीमारी के कारण बहुत सी बेगुनाह जाने जाते देखी है, क्योंकि हमारे गांव में अस्पताल नहीं हैं. एक दर्द की गोली लेने के लिए भी हमें गरुड़ जाना पड़ता है, जिसका अभाव हमारी जिंदगी में पता नहीं कब तक रहेगा और कब तक हमें इन परेशानियों से लड़ना पड़ेगा? खासतौर से जो गर्भवती महिलाएं हैं उनके लिए बहुत ही कष्ट का समय होता है. जब वह प्रसव पीड़ा से जूझती हैं और उन्हें इतनी दूर जाना पड़ता है. सही समय पर एंबुलेंस की भी व्यवस्था नहीं हो पाती है. ऐसे में कई बार तो घर पर ही डिलीवरी हो जाती हैं.


गांव की गर्भवती महिला पूजा देवी (बदला हुआ नाम) का कहना है कि इस गांव में अस्पताल नहीं है और मुझे चेकअप के लिए गरुड़ जाना पड़ता है. इतने पैसे मेरे चेकअप में नहीं लगते हैं. जितना मेरे आने जाने के किराए में लग जाते हैं. मैं बहुत गरीब परिवार से हूं, मेरे पति दो वक्त की रोटी के पैसे बहुत मुश्किल से कमाते हैं और जब ऐसे में अस्पताल जाना पड़ जाए तो बताओ पैसे कहां से लाएं? अब गर्भावस्था में डॉक्टर हर महीने चेकअप के लिए बोलते हैं बताओ हम हर महीने कैसे जाएं? हालांकि जाना भी जरूरी है. मुझे यह सोचकर बहुत चिंता होती है कि जब मेरी डिलीवरी होगी तो मैं समय पर अस्पताल पहुंच पाउंगी भी या नहीं? अगर मैं समय पर चेकअप नहीं करवाती हूं तो मेरा होने वाला बच्चा कैसे है उसकी जानकारी मुझे कैसे मिलेगी?


गांव की बुजुर्ग महिला मनुली देवी कहना है कि मैं 70 साल से देख रही हूं कि इस गांव में आज तक एक अस्पताल नहीं खुला हैं और न ही कोई मेडिकल स्टोर खुला जहां से हम लोग बुखार, खांसी की दवा ले सकें. हमें कोई तकलीफ होती हैं तो यहां से सीधे बागेश्वर सरकारी अस्पताल में जाना पड़ता है. गांव की अन्य बुजुर्ग औरत आनंदी देवी का कहना हैं कि रात में अगर किसी की तबीयत खराब हो जाए यहां कोई गाड़ी वाला भी तैयार नही होता है. अस्पताल पहुंचाने के लिए अगर कोई तैयार हो भी जाए तो वह इतने पैसे मांगता है जितने हमारी जेब में भी नहीं होते हैं. रात के समय में हम किसी के घर पैसे भी मांगने नहीं जा सकते हैं. सरकार को इस गांव में एक अस्पताल तो जरुर खुलवाना चाहिए. मनुली देवी भी कहती है कि मैं इस गांव में शादी करके आई थी और आज मेरी उम्र 80 साल के करीब होने को आई है, पर इस गांव में अस्पताल बनने के नाम की आज तक कोई योजना सुनाई नहीं दी है. मैं आज तक अपनी दवाइयां बागेश्वर या अल्मोड़ा से मंगवाती हूं. मैं इस उम्र में ज्यादा चल नहीं पाती हूं. पता नहीं कब तक अस्पताल न होने का भाव हमारे जीवन में रहेगा.


जखेड़ा गांव की आशा वर्कर अंबिका देवी कभी कभी गनीगांव में आती हैं. उनका कहना है कि इस गांव में अस्पताल की कोई सुविधा नहीं है, जो होनी बहुत जरूरी है, क्योंकि वैसे तो हर दुख, मुसीबत बीमारी बड़ी होती है. सबसे अधिक समस्या तो तब होती है जब बड़े बूढ़े बुजुर्ग और प्रसव पीड़ा से महिलाएं अस्पताल की कमी से अपना दम तोड़ देती हैं. अस्पताल की सुविधा तो गांव में होनी ही चाहिए. गांव के सरपंच ललित का कहना है कि गनीगांव में अस्पताल तो दूर की बात है, यहां तो कोई छोटा क्लीनिक तक नजर नहीं आता है जहां हम लोग जाकर अपना इलाज करवा सकें. साधारण सर्दी, खांसी, बुखार होने पर भी हमें बाजार जाकर पहले ही पूरा दवाई का स्टॉक लेकर रखना पड़ता है, जो काफी कष्टकारी होता है. सबसे अधिक परेशानी बड़े बुजुर्ग महिलाओं और गर्भवती महिलाओं के लिए होती हैं. अगर हमारे गांव में भी एक छोटा सा अस्पताल खुल जाता तो शायद कई बुजुर्गों की बेवजह मौत नहीं होती और कई गर्भवती महिलाएं भी बच जाती. सवाल यह कि आखिर गांव की जनता इस परेशानी से कब तक जूझती रहेगी? क्या कभी इस गांव में कोई ऐसी योजना आएगी जिससे यहां अस्पताल खुलेगा और दवाइयों की व्यवस्था होगी. 






Kajal

दीक्षा आर्य/काजल गोस्वामी

गरुड़, बागेश्वर

उत्तराखंड

(चरखा फीचर)

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