स्थानीय बोलियों में गाए जाने वाले इन गीतों की धमक केवल धामन्या गांव तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कई कोस दूर अनेक गांवों में इसकी चर्चा होती है. यहां तक कि इस टोली को गीतों की प्रस्तुतियों के लिए दूसरे गांवों में भी बुलाया जाने लगा है. यह टोली भी एक बुलावे पर पहुंच जाती हैं, बदले में कुछ नहीं मांगती, केवल और केवल नि:शुल्क प्रस्तुतियां देती हैं. आयोजकों की खुशी से कोई राशि टोली को मिल जाए, यह बात अलग है. टोली की मुखिया इंदिरा बाई है, जो सुबह से लेकर शाम तक घर का और खेत में कृषि का काम करती हैं. घर में कुछ गाय व भैंस भी हैं, उन्हें चारा-भूसा देती हैं और परिवार का लालन-पालन भी करती हैं. इंदिरा बाई को स्कूल में कदम रखने का कभी भी अवसर नहीं मिला, लेकिन उनका अक्षर ज्ञान अच्छा है. इंदिरा बाई कहती हैं कि उनके गांव में पुरुषों की टोली भी सामाजिक गीत गाते हैं. यहीं से उन्हें भी महिलाओं की टोली बनाने का विचार आया. जब इसकी चर्चा दूसरी महिलाओं से की तो वे तैयार हो गई. लेकिन उनके पास पेटी मास्टर, यानी हारमोनियम व ढोलक बजाने वाला कोई नहीं था. सभी ने काफी प्रयास किए, लेकिन कोई भी महिला सदस्य यह कला सीख नहीं सकी. इसके बाद गांव के ही पेटी मास्टर राधेश्याम यादव उर्फ़ गुड्डू ने उनकी मदद की. गुड्डू की मदद से ही पास के गांव चिखली रैय्यत के ढ़ोलक बजाने वाले राजकुमार का साथ मिल गया. इस तरह इनकी टोली बन गई. इंदिरा बाई कहती हैं कि शुरू में वे ठीक से प्रस्तुतियां नहीं दे पाती थीं, लेकिन अब उनकी टोली मजबूत हो गई है. सरस्वती महिला भजन मंडल की दूसरी मुख्य महिला सदस्य अंजू बाई 10वीं तक पढ़ी है. वह मंडली की युवा सदस्य है. वह कहती हैं "घर में बहुत जिम्मेदारियां हैं. सुबह से शाम तक काम में समय निकल जाता है, लेकिन जब गीतों की प्रस्तुति देने की बात आती है तो सभी थकान मिट जाती है."
सरस्वती कहती है कि वह आगे पढ़ाई करना चाहती थी, ताकि समाज के लिए कुछ करने का अवसर मिल सके, जो किसी कारण से संभव नहीं हो सका. अब यह कमी वह सामाजिक भजनों यानी गीतों के माध्यम से पूरा करने का प्रयास कर रही हैं. वह कहती हैं कि जब भी वह लोग गीतों की प्रस्तुतियां देती हैं तो हजारों लोग उन्हें सुनते हैं. अब तक लाखों लोग उनके भजनों की प्रस्तुतियों को सुन चुके हैं. उन्हें तसल्ली है कि वह समाज में सुधार की बात गीतों के माध्यम से देने वाली टोली का हिस्सा है. टोली की सदस्य रामकली बाई बताती हैं कि वह घरेलू कामकाजी महिला जरूर हैं, लेकिन उन पर समाज की भी कुछ जिम्मेदारियां हैं, जिसे वे लोग निभाने की कोशिश कर रही हैं. रुपयों के लिए कभी उन्होंने कोई प्रस्तुतियां नहीं दी और न ही कभी देंगी. उनके भजनों में समाज में सुधार की बात होती है, जिसे वह घर-घर तक पहुंचाने के प्रयासों में जुटी हैं. उनका यह प्रयास अनवरत जारी रहेगा. एक अन्य सदस्य रेखा बाई बताती है कि मंडली की महिलाओं ने गीत गाने की कला कहीं से सीखी नहीं है, बल्कि पुरुषों को देखकर और उन्हें सुनकर ही सब कुछ सीखा है. अब तक उन्होंने जितना सीखा, उसे लोग काफी पसंद कर रहे हैं, जिसकी वजह से उनका उत्साह बढ़ा है. अब उन्हें आसपास के गांव के लोग भी बुलाने लगे हैं. उनकी टोली ज्यादातर शाम के समय में ही गीतों की प्रस्तुति देती हैं, क्योंकि दिन में उनके पास समय नहीं रहता है, उन्हें घर और खेतों में काम करना पड़ता है. उनका मानना है कि मौजूदा समाज में कई तरह के सुधार की जरूरत है और जिसके लिए जन-जागरूकता एक अहम प्रयास है, जो उनकी टोली गीतों के माध्यम से कर रही है.
पूजा यादव
भोपाल, मप्र
(चरखा फीचर)
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