—डॉ० शिबन कृष्ण रैणा—
होली के अवसर पर भाँग/ठंडाई आदि लेने का चलन है।मुझे एक बात याद आ रही है।प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा में भाँग का चलन खूब है।1967-77 के दौरान मैं यहां के सरकारी कॉलेज में सेवारत रहा।मेरे सहयोगी रहे अंग्रेज़ी के प्रोफेसर स्वo चाँदनारायण श्रीवास्तव साहब को भाँग-सेवन का थोड़ा-बहुत शौक था।कई बार मुझ से भी लेने का अनुरोध किया, मगर मैं हमेशा टालता रहा।आखिर होली के दिन वे मुझे अपने साथ चौपाटी ले गए।वहां वे अपनी पूर्वपरिचित 'ठंडाई' की दुकान के अंदर चले गए।मैं भी साथ में हो लिया।दुकानदर को इशारा करते हुए श्रीवास्तव साहब ने कहा:'दो गिलास'।दुकानदार समझ गया कि आज एक और कस्टमर बढ़ गया।बोला:'दोनों पॉजिटिव?' 'हाँ, मगर एक मीडियम वेव और दूसरा शार्ट वेव।' दोनों के बीच हुई सांकेतिक भाषा को मैं कुछ-कुछ समझ गया।घर पहुंचते-पहुंचते मैं सचमुच सातवें आसमान पर तैर रहा था।खूब तो मिठाई खाई और खूब नाच-गाना किया। उस दिन के बाद नाथद्वारा छूटने तक मैं जब भी चौपाटी की तरफ जाता तो यदाकदा 'पॉज़िटिव' का आस्वादन अवश्य करता।वे भी क्या दिन थे!
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