किसान को जहां खरीफ फसल की बुवाई के दौरान सूखे ने परेशानी में डाला था वहीं इस बेमौसम बरसात ने किसानों को बुरी तरह तबाह कर दिया। इस आपदा से हुए वास्तविक नुकसान का आकलन करने में तो अभी वक्त लगेगा लेकिन अनुमान है कि लगभग 15 -20 फीसदी फसलें बर्बाद हुईं, जिससे करीब 3500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। कृषि विशेषज्ञों ने रबी फसलों की पैदावार और दलहन उत्पादनों में भारी गिरावट आने और फसलों की गुणवत्ता के प्रभावित होने की आशंका जताई है। जाहिर है कि इस स्थिति के चलते महंगाई भी बढ़ेगी ही। केंद्र सरकार ने फसलों को हुए नुकसान के बारे में राज्यों से सूचनाएं मंगवाई हैं। संभावित नुकसान का आकलन किया जा रहा है।बेमौसम बरसात की मार से गेहूं, चना, मसूर, सरसों, धनिया, मटर, संतरा और आलू की फसलें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। इस साल वैसे भी देरी से बारिश होने के कारण रबी फसलों की बुवाई समय पर नहीं हो पाई थी। बेमौसम बरसात की वजह से गेहूं, आलू और दलहनी फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा टमाटर, मटर और धनिया जैसी फसलों की खेती भी बड़े पैमाने पर तबाह हुई है। चना, मसूर, मटर, सरसों आदि दलहनी फसलें इस समय फ्लावरिंग स्टेज पर होती हैं लेकिन इस समय इन फसलों पर पानी गिरने से इनके फूल झड़ जाएंगे और नमी बढ़ने से फसलों में रोग लगने की पूरी आशंका है।आम के पेड़ों में लगे बौर के लिए भी यह बेमौसम की बारिश नुकसानदेह साबित होगी। खराब मौसम की वजह से गेहूं की खड़ी फसलें जमींदोज हो गई हैं। तेज हवा से उन किसानों को ज्यादा नुकसान हुआ है, जिन्होंने मौसम बिगड़ने से पहले गेहूं की सिंचाई कर दी थी। लेकिन जहां गेहूं में अभी बाली नहीं पकी है, वहां नुकसान की संभावना कम है। कटाई के लिए तैयार खड़ी गेहूं और चने की फसल खेतों में ही बिछ गई। इससे दाने में दाग लगने या दाने छोटे रह जाने की आशंका बढ़ गई है। चना और मसूर के साथ धनिया और सब्जियों के लिए भी यह बारिश जानलेवा साबित हुई है। बताया जा रहा है कि मौसम की इस मार का सर्वाधिक असर गेहूं की फसल पर पड़ेगा। इससे दाना कमजोर तो पड़ेगा ही, उसमें दाग भी लग जाएंगे। गेहूं की खेती करने वाले किसानों पर इस मार का असर इसलिए भी ज्यादा पड़ने वाला है, क्योंकि फसल के दागी होने के कारण किसान को फसल का उचित मूल्य नही मिलेगा। राज्य सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद भी लगभग बंद कर दी है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने भी प्रदेश के कई जिलो में मनरेगा योजना से हाथ खींच लिए हैं, जिसकी वजह से छोटे किसान और खेतीहर मजदूरों को राहत कार्यों से होने वाली थोड़ी-बहुत आमदनी भी बंद हो गई है। कुल मिलाकर राज्य का किसान चौतरफा आर्थिक संकट से घिरा अनुभव कर रहा है। पिछले साल सूखे से लड़ने वाला किसान अक्टूबर-नवंबर आते-आते ओलावृष्टि और बेमौसम बरसात से तबाह हो गया था। उस संकट से वह उबर भी नहीं पाया था कि इस बेमौसम बरसात ने फिर उसकी फसलें चौपट कर दीं। राज्य के कई जिलों में गेहूं, प्याज, अंगूर, संतरा, अनार, मिर्च जैसी नकदी फसलें काफी हद तक बर्बाद हो गई हैं। यही नहीं, भारी बरसात और ओलावृष्टि की वजह से कई पालतू पशुओं की मौत भी हुई है। विडंबना यह है कि ज्यादातर राज्य सरकारें अपनी आर्थिक बदहाली का हवाला देते हुए किसानों की हालत पर घड़ियाली आंसू बहा रही हैं और मदद के लिए केंद्र सरकार का मुंह देख रही हैं, जबकि केंद्र सरकार मदद संबंधी नियमों का हवाला देते हुए अपना पल्ला झाड़ रही है। संसद के दोनों सदनों में विभिन्न दलों के सांसदों ने भी इस स्थिति पर चिंता जताई है। खेती-किसानी को संकट से उबारना केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए और इसमें किसी तरह के नियम-कायदे आड़े नहीं आने चाहिए। उनका कहना है कि इसके लिए केंद्रीय मदद के तय पैमाने में भी बदलाव कर केंद्र सरकार को प्रभावित राज्यों की मदद करना चाहिए। त्यागी ने राज्यसभा में भी भारी बारिश से नष्ट फसलों का मामला उठाते हुए किसानों को लागत के आधार पर मुआवजे की मांग केद्र सरकार से की है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों को संकट से उबारने के लिए सरकारों को हर मुमकिन कदम उठाने चाहिए, लेकिन साथ ही मौसम की लगातार बदलती चाल जो संदेश दे रही है, उसे भी हमें गंभीरता से समझना चाहिए। मार्च के महीने में देश के इतने बड़े हिस्से में इतनी तेज और इतनी लंबी बारिश कोई सामान्य बात नहीं है। जिस पश्चिमी विक्षोभ का हवाला मौसम विभाग ने दिया है, उसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने बंगाल की खाड़ी और अरब सागर यानी देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों से नमी उठाई थी। मौसम की बदलती चाल के लिए जिम्मेदार ऐसे कारक जो संदेश हमें दे रहे हैं, वह काफी गंभीर हैं। इन्हें समझने में जिस तरह की सतर्कता और तत्परता हमें दिखानी चाहिए, वह हम नहीं दिखा पा रहे हैं। वैसे हमारे मौसम विभाग के अफसर अभी तक निष्ठापूर्वक इन संकेतों को पकड़ते रहे हैं और हमें इनके बारे में जानकारी देते रहे हैं। लेकिन यह मामला सामान्य ढंग से आसमान साफ होने, बूंदाबांदी या भारी बारिश होने या तापमान इतने से उतने डिग्री के बीच रहने के पूर्वानुमान तक सीमित नहीं है। समूचे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी ही उग्र मौसमी घटनाएं दर्ज की गई हैं। अगर ये घटनाएं मौसम के बदलते मिजाज को जाहिर कर रही हैं तो यह तथ्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि यहां के देशों की खेती-बाड़ी, उद्योग-धंधे और रहन-सहन काफी हद तक मौसम पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए मौसम के मिजाज में ऐसे बड़े बदलावों को दर्ज कर उनका विश्लेषण करने की जिम्मेदारी अफसरों की नहीं बल्कि वैज्ञानिकों की होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो व्यवस्था के मारे किसान कुदरत की मार के शिकार होने के लिए भी अभिशप्त बने रहेंगे।
डॉ अनिल कुमार सिंह
प्रधान वैज्ञानिक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का पूर्वी अनुसंधान परिसर, पटना
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