सच तो यह है कि इन उप स्वास्थ्य केंद्रों पर केवल टीकाकरण और किसी विशेष अवसरों पर कागजी खानापूर्ति के लिए नर्स या स्वास्थ्य सेवक उपस्थित होते हैं. बाकी दिनों में यह उप स्वास्थ्य केंद्र पूरी तरह से ठप रहता है. न चिकित्सक और न कोई सुविधा रहती है. ग्रामीण झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाकर सेहत व पैसे बर्बाद करते हैं. कभी-कभार झोलाछाप डाॅक्टरों के चक्कर में जान भी गंवानी पड़ती है. प्रखंड स्थित पीएचसी जाने के लिए ग्रामीणों को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है. यह जरूर है कि प्रसव व परिवार नियोजन हेतु प्रखंड स्तर पर सरकार की अच्छी व्यवस्था है. जहां जाकर बच्चा-जच्चा दोनों ही सुरक्षित व स्वस्थ होकर घर लौटते हैं. एंबुलेंस की सुविधा होती है. आशा दीदी भी गर्भवती महिलाओं की सेहत की सुरक्षा के बारे में घर-घर जाकर जानकारियां देती हैं. लेकिन संचालन के तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में चल रहे कई स्वास्थ्य केंद्र केवल दिखावा से अधिक कुछ नहीं है.
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पश्चिमी दियारा के लोगों का स्वास्थ्य भी भगवान भरोसे है. ज़िले के साहेबगंज और पारु प्रखंड स्थित चांदकेवारी, धरफरी, मुहब्बतपुर, चक्की सुहागपुर, फतेहाबाद पंचायत सहित रेवाघाट के किनारे बसे हजारों लोगों को इलाज के लिए प्रखंड स्थित पीएचसी जाने के लिए 15-20 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है. यदि पीएचसी में किसी कारण से इलाज नहीं हुआ तो उन्हें जिले के किसी निजी अस्पताल के महंगे डाॅक्टरों से अपना इलाज कराना पड़ता है. पारू प्रखंड स्थित पीएचसी में एक्सरे व अल्ट्रासाउंड की सुविधा बिल्कुल भी नहीं है. आखिरकार लोगों को निजी जांच घरों में जाकर जांच करानी पड़ती है. दवा के लिए भी निजी दुकान पर ही जाना पड़ता है. कुल मिलाकर ग्रामीणों को प्राइवेट नर्सिंग होम के खर्चे लग ही जाते हैं.
इस संबंध में चांदकेवारी पंचायत के निवासी सिपाही भक्त कहते हैं कि आयुष्मान कार्ड रहते हुए भी केवल इस वजह से शहर की ओर रूख करना पड़ता है क्योंकि गांव के स्वास्थ्य केंद्र में सुविधा नाममात्र की होती है. शहर के अस्पतालों में भी कार्ड से सभी बीमारियों का इलाज नहीं होता है. गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाली ललपरिया देवी (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि ब्लॉक पीएचसी जाने के लिए बस या ऑटो के बहुत खर्चे लगते हैं. किराये के पैसे से दवाखाने से ही दवा लेकर काम चला लेती हूं. यदि गांव में उप स्वास्थ्य केंद्र में इलाज हो जाता तो पैसे बच जाते. एक अन्य ग्रामीण पंकज कुमार कहते हैं कि उप स्वास्थ्य केंद्र से गांव के लोगों को कोई फायदा नहीं है. हमें शहर के निजी डाॅक्टरों या आपातकालीन सेवा के लिए प्राइवेट अस्पताल की शरण में जाना ही पड़ता है जिससे भारी रकम चुकानी पड़ती है. निजी डाॅक्टर की फीस और जांच के लिए पैसे जुटाने में ग्रामीणों को गांव के साहूकार से 5 प्रतिशत ब्याज की दर पर कर्ज लेना पड़ता है. कई लोग तो बीमारी का उचित चिकित्सा नहीं होने की वजह से असमय ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं. सुखद बात यह है कि जिले के पारू ब्लाॅक के धूमनगर में ठप पड़े पीएचसी का जीर्णोंधार और दवा-चिकित्सक की व्यवस्था हुई है. जहां सप्ताह में दो दिन पीएचसी में डॉक्टर और नर्स मौजूद रहते हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि पीएचसी का संचालन नियमित होना चाहिए, ताकि दूर-दराज के निर्धन व बेबस लोगों का इलाज हो सके.
हेल्थ इंडेक्स के मुताबिक स्वास्थ्य के मामले में बिहार और उत्तर प्रदेश का सबसे अधिक बुरा हाल है. इंडेक्स में 20वें एवं 21वें स्थान पर बिहार व उप्र हैं जबकि शीर्ष तीन राज्यों में केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र हैं. साफ तौर पर कहा जा सकता है कि भारत में स्वास्थ्य के मामले में अभी और काम करने की जरूरत है. बिहार में 10 मोबाइल हेल्थ क्लीनिक शुरू किया गया है. जिसमें 3 को महिला स्वास्थ्य सेवा के लिए तैयार किया गया है. मोबाइल हेल्थ क्लीनिक की सेवा एक सराहनीय कदम है, परंतु गरीबी व पिछड़ेपन का दंश झेलने वाले राज्यों के लिए अधिकाधिक मोबाइल हेल्थ क्लीनिक शुरू करना बेहद आवश्यक है ताकि घर-घर लोगों को स्वास्थ्य सेवा मिल सके.
बहरहाल, ग्रामीण भारत की सेहत व सुरक्षा की जवाबदेही पीएचसी की अधिक है. यदि उप-स्वास्थ्य केंद्रों को सुविधाओं से लैस कर दिया जाए, तो निःसंदेह आम नागरिकों की सेहत सुधर जाएगी. गांव-गांव सरकारी चिकित्सकों को केंद्र पर सेवा मुहैया कराया जाए. ग्रामीणों को रोग होने के कारण व निवारण से अवगत कराया जाए तो निश्चित रूप से लोग स्वस्थ और आनंद भरी जिंदगी गुजारेंगे. स्थानीय स्तर पर भी जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों व समाजसेवियों को उपयुक्त स्वास्थ्य सेवा मुहैया करने के लिए आगे आना चाहिए. आम आदमी स्वस्थ होग तो देश खुशहाल होगा और व्यक्ति की कमाई के एक बड़े हिस्से की बचत होगी.
मुजफ्फरपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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