2018 में क्षमा ने अपने घर से सिलाई कढ़ाई की शुरुआत की और 2020 में कृतिका क्रिएशन्स नाम से बुटीक शुरू किया. क्षमा कहती हैं, "शुरुआत में मैं खुद सिलाई करती थी. लेकिन लॉकडाउन के दौरान मैंने देखा कि सबकी नौकरी जा रही है. उस समय मुझे लगा कि स्थानीय लोगों के लिए कुछ ऐसा किया जाना चाहिए, जिससे हर कोई घर बैठे आराम से कुछ काम करके आमदनी कमा सके. इसी सोच के साथ मैंने अपना बुटीक का काम शुरू किया. पहले मैं अकेले सिलाई किया करती थी, अब लोगों को काम देने लगी हूं. जैसे-जैसे काम आगे बढ़ रहा है उनके बुटीक से अधिक से अधिक महिलाएं काम में शामिल हो रही हैं." क्षमा ने अपने स्टार्टअप के बारे में कहा, "छपरा एक बड़ा शहर नहीं है, इसलिए लड़कियों के लिए ज्यादा विकल्प नहीं हैं और लड़कियों के प्रति आम जनता की धारणा में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया है." हमारे घर में मुझे हर तरह का सपोर्ट मिला, जिसकी वजह से मैं अपना काम शुरू कर पाई. वर्ना यहां के ज्यादातर घरों में मैं देखती हूं कि लड़कियों पर बहुत बंदिशें होती हैं. ऐसा मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत खड़े रहो आदि. यह हमारी छोटी सी शुरुआत है, महिलाओं को सशक्त बनाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की एक कड़ी है. महिलाएं भी घर में बैठकर ही घर का काम करती हैं और वे हमारे साथ अपने खाली समय का सदुपयोग कर आत्मनिर्भर भी बन रही हैं.” क्षमा ने अपनी पड़ोसन रामवती को मुफ्त में सिलाई करना सिखाया है. लॉकडाउन के दौरान वह अपने गांव शीतलपुर चली गईं और वहां उन्होंने अपना सिलाई सेंटर खोल लिया और काम करने लगीं. रामवती ने कहा, "मैं छपरा शहर में रहती थी, जहां मैंने क्षमा से सिलाई सीखी. उसने मुझे मुफ्त में सिलाई करना सिखाया.
कृतिका क्रिएशन्स के साथ काम करने वाली मेहंदी कलाकार अंकिता स्नातक की छात्रा है. वह बताती है कि “हम मेहदी लगाने की कला जानते थे, इसलिए मैंने 2020 में यहां ज्वाइन किया, शादियों और त्योहारों के सीजन के हिसाब से मेहंदी लगानी होती है. यह काम स्थायी नहीं है, इसलिए सीखना जारी है और काम करना बहुत अच्छा लगता है. खासकर जब आपके काम की तारीफ होती है तो लगता है कि आपकी मेहनत और कौशल रंग ला रही है. पहले जब हम कमाते नहीं थे तो हमें अपने परिवार पर निर्भर रहना पड़ता था, अब कभी-कभी मैं अपनी कमाई से कॉलेज की फीस भरती हूं. क्षमा अब तक लगभग 15 लड़कियों को सिलाई के साथ-साथ अन्य हुनर सिखा चुकी है, जिनमें से कुछ ने अपने घरों में अलग से सिलाई का काम करना भी शुरू कर दिया है और लगभग 10 लड़कियां अभी भी उनके साथ जुड़ी हुई हैं. यहां आने वाली लड़कियां अपनी रुचि के अनुसार काम करती हैं.' एक छोटे से कस्बे के मध्यमवर्गीय परिवार की एक औसत लड़की के सपने भले ही बड़े-बड़े हों, लेकिन उन्हें पूरा करने का साहस वह बहुत कम जुटा पाती है. वह हर दिन सामाजिक मुद्दों और अपने सपनों के बीच संघर्ष करती है. 18 से 20 साल की उम्र में उसकी शादी हो जाती है, बच्चे हो जाते हैं और फिर इसी को वह अपनी दुनिया मानकर जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती है. लेकिन क्षमा और उसकी जैसी कई महिलाएं हैं जिन्होंने छोटे शहरों में भी रह कर मज़बूत कदम उठाया है और न केवल ऊंचाइयों तक पहुंची हैं बल्कि सफल भी हुई हैं. अपनी इस सफलता में उन्होंने अन्य महिलाओं को जोड़कर उन्हें भी आत्मनिर्भर और सशक्त बनाया है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के तहत लिखा गया है.
अर्चना किशोर
छपरा, बिहार
(चरखा फीचर)
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