"क्यों नहीं होता? पैदल चलते समय हमें कोई कांटा न चुभे,हम चप्पल या जूता पहनते हैं कि नहीं?"
"पहनते हैं" मैं ने तत्क्षण उत्तर दिया।
"ठीक इसी तरह ऊपर की हवा अथवा अलाय-बलाय को रोकने के लिए ये गण्डे/तावीज़ बड़ा उपयोगी काम करते हैं।"
उस व्यक्ति के इस सटीक तर्क ने मुझे लगभग परास्त कर दिया था।दकियानूसी होते हुए भी यह बात उसने मुझे इस तरह से समझायी कि मुझे लगा एक-आध तावीज़ मैं भी क्यों न लूँ इससे।शायद कुछ शुभ हो जाए।
इस बीच बस आधा सफर तय कर चुकी थी।मैं ने तावीज़ की कीमत पूछी तो मालूम पड़ा कि तासीर के हिसाब से तावीज़ भी तीन तरह के थे उसके पास।तेज़,बहुत तेज़ और नरम।तेज़ के दो सौ,बहुत तेज़ के चार सौ और नरम के सौ।मैं ने बात को आगे बढाते हुए यों ही कह दिया:" भई,नरम के बीस मंज़ूर हों तो दे दो एक।"मेरे पड़ौस में बैठी सवारी ने भी मेरी बात का समर्थन किया और उसने भी एक तावीज़ खरीदने की बात कही।
"अरे साहब, इतना फर्क थोड़े ना होता है?" वह बोला।
हम अपनी बात पर अड़े रहे।
"अच्छा, पचास दे दीजिए।" वह कुछ नरम पड़ गया।
इस बार भी हम अपनी बात पर अडिग रहे।
इस बीच बस अपने गंतव्य पर पहुंचने वाली थी।पांच/सात मिनट का सफर और बाकी था।
"अच्छा तो निकालिये बीस-बीस रुपये।दे ही देता हूँ।खुदा साहब आप दोनों को सलामत रखे।"
बीस रुपये देकर मैं ने एक तावीज़ ख़रीदा।जल्दी-जल्दी में तावीज़ के धारण करने की विधि सुनकर मैं बस से नीचे उतर आया।कई सालों तक यह तावीज़ मेरे कोट की अंदर वाली जेब में पड़ा रहा।बाद में शायद ड्राई-क्लीनर वाले ने कहीं पटक दिया।शुभ तो कुछ खास हुआ नहीं मगर अशुभ भी कुछ नहीं हुआ।
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
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